अस्तित्ववाद का अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत एवं उद्देश्य | Meaning, Definition, Principles and Aims of Existentialism in hindi

अस्तित्ववाद का अर्थ, अस्तित्ववाद की परिभषा, संकल्पना, दर्शन के सिद्धान्त, अस्तित्ववाद एवं शिक्षा, अस्तित्ववाद एवं शिक्षा के उद्देश्य

▶अस्तित्ववाद का अर्थ (Meaning of Existentialism)

अस्तित्ववाद का मूल शब्द है "अस्ति" जो कि स संस्कृत के शब्द ‘अस्’ धातु से बना है। जिसका अर्थ है "होना" तथा अंग्रेजी का शब्द ‘Existentialism’ शब्द "एक्स एवं सिस्टेरे" से बना है। जिसमें एक्स का अर्थ है- 'बाहर' और सिस्टेरे का अर्थ है- 'खड़ेरहना'. अत: अस्तित्ववाद वह दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसमे व्यक्ति अपने अस्तित्व को विश्वपटल पर स्पष्ट रुप से रखने का प्रयास करता है. अस्तित्ववाद एक बंधन मुक्त चिंतन है. इसे ना तो दार्शनिक चिंतन कह सकते हैं और ना ही सामाजिक चिंतन. यह ना राजनीतिक चिंतन है और ना ही आर्थिक चिंतन. यह तो इन सब चिंतनों के पूर्व निश्चित सिद्धांत एवं नियमों के विरोध स्वरूप विकसित हुआ है. यह विज्ञान एवं तकनीकी को भी मानव विरोधी मानता है. उसका मानना है कि इन सब ने मनुष्य के वैयक्तिक गरिमा अर्थात उसके अस्तित्व को नकारा है.

दर्शन में अस्तित्ववाद (Existentialism in Philosophy)

▶अस्तित्ववाद की परिभषा (Definition of Existentialism)

सार्त्रे के अनुसार- "अस्तित्ववाद अन्य कुछ नहीं वरन एक संयोजित निरिश्वरवादी स्थिति में सभी निष्कर्षों को उत्पन्न करने का प्रयास है."

हमारी दृष्टि से इस चिंतनधारा को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए- "अस्तित्ववाद एक ऐसा बंधन मुक्त चिंतन है जो नियतिवाद एवं पूर्व निश्चित दार्शनिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक सिद्धांत एवं नियमों में विश्वास नहीं करता और यह प्रतिपादन करता है कि मनुष्य का स्वयं में अस्तित्व है और वह जो बनना चाहता है उसका चयन करने के लिए स्वतंत्र है. मनुष्य वह है जो वह बन सका है अथवा बन सकता है और उसका यह बनना उसके स्वयं के प्रयासों पर निर्भर करता है."

▶अस्तित्ववाद की संकल्पना (Concepts of Existentialism)

(1). अस्तित्ववाद का सार से अधिक महत्व- डेकार्टे का प्रमुख उद्धरण है- "मैं सोचता हूँ इसलिए मेरा अस्तित्व है।" अस्तित्ववादी द्वारा यह स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि उनके अनुसार मनुष्य का अस्तित्व पहले है, तभी वह विचार कर सकता है। मनुष्य अपने अस्तित्व के पश्चात ही जीवित रहने के बारे में चेतना विकसित करता है। अस्तित्ववादी मनुष्य को मूल्यों का निर्माता मानते है। प्रो0 सात्रे का कथन है- "मै केवल अपने को सम्मिलित करता हूँ। इस प्रकार का भाव अहं बोध का भाव है और इसके कारण वह अपने किये कार्यो की कमियों को जानकर सुधारने का प्रयास करता है।"

(2). सत्य औैर ज्ञान- अस्तित्ववादी सहज ज्ञान में विश्वास करते है। ज्ञान मानवीय होता है। व्यक्ति द्वारा अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, यही सत्य है। सत्य व्यक्ति का आत्मपरक, यर्थाथ, आत्मानुभूति की उच्चतम व्यवस्था है। यह अमूर्त की परिणतिस्वरुप है।

(3). स्वतंत्रता- मनुष्य का अस्तित्व स्वीकार करने के लिए उसे "चयन करने वाला अभिकरण" मानना आवश्यक है। उसकी स्वतन्त्रता सम्पूर्ण है। मनुष्य को क्या बनना है। इसका चुनाव करने लिए वह पूर्ण स्वतंत्र है। चयन करने तथा निर्मित होने की प्रक्रिया मानव के स्वयं के अस्तित्व में है। व्यक्ति सूक्ष्मरुप में ईश्वर का प्रतिमान है, जोकि स्वतंत्रता के साथ कार्य कर सकता है।

(4). वैयक्तिक मूल्यों को प्रश्रय- अस्तित्ववाद में मूल्य सर्वथा वैयक्तिक होते हैं। अत: सत एवं असत तथा शुभ एवं अशुभ केवल वैयक्तिक मूल्य है। जिनकी व्याख्या प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से कर सकता है। अस्तित्ववाद मनुष्य को भयंकर बोझ से लदा हुआ मानता है और अपनी असफलता के लिए मानव किसी पराशक्ति में आश्रय नहीं ढूँढ सकता।

(5). मानव का स्वरुप:- अस्तित्ववादी मनुष्य को सभी गुणों से परिपूर्ण, अपने जीवन के निर्णय लेने में समर्थ एवं चेतनायुक्त मानते है। ब्लैकहोम लिखते हैं कि- "मानव सत्ता की परिभाषा नही दी जा सकती क्याकि वह प्रदत्त वस्तु नहीं है, वह प्रश्न है. मानव सम्भावना मात्र उसे स्वयंभु बनाने की शक्ति है। उसका अस्तित्व अनिर्णित होता है क्योकि उसकी समाप्ति नहीं होती। मानव मात्र चेतन प्राणी ही नहीं अपितु अद्वितीय रुपेण वह आत्मचेतना से युक्त है. वह विचार ही नही वरन् विचार के लिए भी सोचता है।"

▶अस्तित्ववाद दर्शन के सिद्धान्त (Principles of Existentialism)

अस्तित्ववाद दर्शन के अपने कुछ सिद्धान्त हैं, जिसके विषय में हमारा ज्ञान आवश्यक है और ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

  • व्यक्तिगत मूल्यों एवं प्रयासों को महत्व दिया जाना।
  • अस्तित्ववाद व्यक्तिगत मनुष्य की स्वतंत्रता एवं मुक्ति पर बल देता है। मुक्ति असीमित है।
  • अस्तित्ववाद सर्वश्रेण्ठता के अन्तयुर्द्ध से उठकर नैतिक बनकर साथ रहने पर बल देता है।
  • अस्तित्ववाद मनोविश्लेषणात्मक विधियों को अपनाने में विश्वास करता है।
  • इस ब्रह्माण्ड की कोई नियामक सत्ता नहीं है.
  • मनुष्य का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है.
  • ईश्वर का अस्तित्व नहीं है और आत्मा एक चेतन तत्व है.
  • मनुष्य जीवन का कोई अंतिम उद्देश्य नहीं है.

अस्तित्ववाद मानव के अस्तित्व में विश्वास करता है, इसका आभास हमें प्रो0 ब्लैकहोम के शब्दों में निम्नलिखित रुप में मिलता है- "अस्तित्ववाद सद्भाव या सत्तावाद का दर्शन है, प्रमाणित तथा स्वीकार करने और सत्ता का विचार करने और तर्क करने को न मानने का दर्शन है।"

▶अस्तित्ववाद एवं शिक्षा (Existentialism and education)

अस्तित्ववादी दर्शन इतना क्रान्तिकारी तथा जटिल है कि शिक्षा की दृष्टि से इस पर कुछ कम विचार हुआ है। अस्तित्ववाद का प्रादुर्भाव एक जर्मन दार्शिनिक हीगेल के "अंगीकारात्मक या स्वीकारात्मक" आदर्शवाद का विरोध है। हम पूर्व में भी पढ़ चुके है कि यह अहंवादी दर्शन की एक खास धारा है। मानव को चेतना युक्त, स्वयं निर्णय लेने अपने जीवन दशाओं को तय करने के योग्य मानते है तो ऐसी दशा में शिक्षा की आवश्यकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। भारतीय दर्शन में इस दर्शन का प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ। परन्तु पाश्चात्य दर्शन में इसका उल्लेख  स्पष्ट रुप में मिलता है।

अस्तित्ववादि के अनुसार मनुष्य यह चयन करने के लिए स्वतंत्र है कि वह क्या बनना चाहता है. इससे यह अभिप्रेतार्थ निकलता है कि शिक्षा वह साधन है जो मनुष्य को वह बनाने में सहायता करती है जो वह बनना चाहता है. अस्तित्ववादी परिवार को सीखने की सर्वोत्तम संस्था मानते हैं. इससे यह अभिप्रेतार्थ निकलता है कि ये शिक्षा को उसके व्यापक रूप में स्वीकार करते हैं.

▶अस्तित्ववाद एवं शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Existentialism and Education)

प्रो0 ऑड के अनुसार अस्तित्ववादी शिक्षा के उद्देश्य अग्रांकित अविधारणा पर आधारित है- मनुष्य स्वतंत्र है, उसकी नियति प्रागनुभूत नहीं हैं। वह जो बनना चाहें, उसके लिए स्वतंत्र है। मनुष्य अपने कृत्यो का चयन करने वाला अभिकरण है उसे चयन की स्वतंत्रता है। इनके आधार पर उद्देश्य निर्धारित है-

(1). स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास- चयन करने वाला अभिकरण होने के नाते चयन प्रक्रिया में व्यक्ति को समग्र रुप से अन्त: ग्रसित हो जाना पड़ता है। अत: शिक्षा का यह उद्देश्य है कि वह बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करे।

(2). व्यक्तिगत गुणों व मूल्यों का विकास- अस्तित्ववादी मानते है कि मानव स्वयं अपने गुणों एव मूल्यों को निर्धारित करता है। अत: शिक्षा को बालक में व्यक्तिगत गुणों और मूल्यों विकास की योग्यता विकसित करनी चाहिए।

(3). मानव में अहं व अभिलाषा का विकास करना- इस सम्बन्ध में प्रो0 मार्टिन हीडेगर का कथन है-"सच्चा व्यक्तिगत अस्तित्व ऊपर से थोपे गये और अन्दर से इच्छित किये गये अभिलाषाओं का संकलन है।" अत: अस्तित्ववाद यह मानता है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की अहं भावना के साथ अभिलाषा का भी विकास करना होना चाहिये।

(4). वास्तविक जीवन हेतु तैयारी- मानव अस्तित्व जीवन में यातना एवं कष्ट सहकरही रहेगी। अत: अस्तित्ववादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह भावी जीवन में आने वाले संघर्षो, कष्टों और यातनाओं को सहन कर सके जो उत्तरदायित्व पूर्ण जीवन में आ सकते है। अस्तित्ववादी मृत्यु की शिक्षा देने के पक्ष में है।

(5). व्यक्तिगत ज्ञान या अन्तर्ज्ञान का विकास करना- इस सम्बन्ध में प्रो0 बिआउबर का कहना है-"मानव एक पत्थर या पौधा नहीं है" और अस्तित्ववाद इसके अनुसार दो बाते मानते हैं- कि मनुष्य अपनी बुद्धि और सूझ-बूझा से काम करते है अत: अस्तित्ववादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत सहज ज्ञान या अन्तर्ज्ञान का विकास करना है और मानव को अपने क्रियाओं हेतु निर्णय लेने में सहायता देना है।

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