भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, समस्याएँ एवं आवश्यकता | Technical and Vocational Education in India in hindi

राविधिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा का अंग है। व्यासायिक शिक्षा व्यक्ति को किसी कार्य या व्यवसाय से सम्बन्धित प्राविधिक प्रशिक्षण प्रदान करती है ताकि वह

भूमिका (Introduction)

एक पाश्चात्य विचारक के अनुसार, व्यावहारिक विज्ञान (Applied Science) और टेक्नोलॉजी (Technology) आधुनिक सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ हैं तथा प्रो० हुमायूँ कबीर ने 'लीडर' नामक समाचार पत्र के एक अंक में प्रकाशित अपने लेख 'वैज्ञानिक और प्राविधिक शिक्षा की आवश्यकता' में विचार प्रकट करते हुए कहा कि किसी देश या राष्ट्र की सभ्यता का आधार वैज्ञानिक व टेक्निकल शिक्षा है। इस शिक्षा पर ही राष्ट्र की उन्नति निर्भर करती है। दूसरे विचारक राबर्ट यूलिच के अनुसार, "स्कूलों और कॉलेजों में अधिक से अधिक नवीन विषयों को समाविष्ट किया जा रहा है और प्राचीन मानवशास्त्रों तथा नवीन वैज्ञानिक एवं व्यावसायिक विषयों में सामंजस्य स्थापित किया जा रहा है।"

Technical and Vocational Education in India in hindi

प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का अर्थ व उद्देश्य (Meaning and Objectives of Technical and Vocational Education)

1. अर्थ (Meaning)

प्राविधिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा का अंग है। व्यासायिक शिक्षा व्यक्ति को किसी कार्य या व्यवसाय से सम्बन्धित प्राविधिक प्रशिक्षण प्रदान करती है ताकि वह उस व्यवसाय के द्वारा अपनी जीविका का उपार्जन कर सके। विज्ञान के विश्वकोष के अनुसार इसका अर्थ है- "व्यापक रूप में व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत उस सब प्रकार की शिक्षा को सम्मिलित किया जा सकता है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिए प्रशिक्षण प्राप्त होता है।"

2. उद्देश्य (Objectives)

'यूनेस्को' के बारहवें अधिवेशन में इस शिक्षा के कुछ उद्देश्य बताये हैं-

  1. इस शिक्षा का लक्ष्य केवल आधारभूत कौशल का विकास करना ही नहीं होना चाहिए, वरन् आधारभूत वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करना भी होना चाहिए।
  2. इस शिक्षा का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि व्यक्ति अपनी शिक्षा को उस समय तक जारी रख सके, जब तक उसकी कुशलताओं का पूर्णतय सम्भव विकास न हो जाए।
  3. प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के समस्त कार्यक्रमों में सामान्य वैज्ञानिक एवं विशिष्ट विषयों में समुचित सन्तुलन होना चाहिए।

प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता (Need for Technical and Vocational Education)

प्रो० हुमायूँ कबीर ने अपने लेख में कुछ प्रमुख देशों का उदाहरण देते हुए इस शिक्षा के महत्व एवं आवश्यकता पर बल दिया है। विज्ञान और प्राविधिक शिक्षा से ही किसी देश या राष्ट्र की उन्नति हो सकती है। यदि किसी देश में यह शिक्षा अग्रसर हो रही है तो उस देश की प्रगति भी अवश्यम्भावी है। अमेरिका, रूस, जापान और जर्मनी के उदाहरण हमारे सामने हैं। ये सभी देश प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की योजना पर धनी बने हैं। जर्मनी और जापान को द्वितीय विश्व युद्ध ने जर्जर बना दिया था परन्तु वे फिर इसी शिक्षा के आधार पर उठकर खड़े हो गए हैं। इससे ज्ञात होता है कि प्राविधिक और व्यावसायिक शिक्षा का कितना महत्व है।

किसी राष्ट्र की सम्पन्नता दो आधार पर होती है— भौतिक सम्पत्ति एवं जन-शक्ति । भौतिक सम्पत्ति के अन्तर्गत कच्चा माल और खनिज पदार्थ आते हैं और उनका सदुपयोग जनशक्ति के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार देश सम्पन्नता प्राप्त करता है। भारत में अधिक मात्रा में खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। परन्तु प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के अभाव से भारतवासी उनका प्रयोग उपयुक्त तरीके से नहीं कर पाते हैं। सरकार ने 1958 के अपने 'विज्ञान नीति प्रस्ताव में भारत के औद्योगिक विकास के लिए निम्नांकित नीति निर्धारित की है-राष्ट्र की सम्पदा एवं सम्पन्नता औद्योगीकरण के द्वारा उसके मानव एवं भौतिक साधनों के समुचित उपयोग पर आधारित है। औद्योगीकरण के लिए मानव-साधनों का उपयोग विज्ञान की शिक्षा और प्राविधिक कुशलताओं में प्रशिक्षण की माँग करता है। भारत की जनशक्ति के विशाल साधन प्रशिक्षित एवं शिक्षित होकर ही आधुनिक संसार में उपयोगी हो सकते हैं।

प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का इतिहास (History of Technical and Vocational Education)

1. प्राविधिक शिक्षा का विकास:– 'ऋग्वेद में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उस समय लोगों ने खेती तथा अन्य कार्यों के लिए बाँध बनाकर नहरों का निर्माण किया था। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त खण्डरों और वस्तुओं से पता चलता है कि प्राचीन भारत प्राविधिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में अग्रणी था। सिकन्दर भी अपने साथ लोहे की वस्तुएँ ले गया था जो यहाँ के उद्योग को प्रकट करती हैं। विश्व के हर भाग में भारतीय उद्योग एवं व्यवसाय के प्रमाण आज भी प्राप्त हैं। यद्यपि स्वतन्त्र भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा नवीन मालूम पड़ती है परन्तु यदि प्राचीन भारत के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि प्राविधिक क्षेत्र में भारत उन्नति के शिखर पर था।

2. प्राचीन भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा:- प्राचीन काल में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा विद्यालयों में प्रदान नहीं की जाती थी। विभिन्न जातियों के व्यक्तियों के लिए विभिन्न कार्य एवं व्यवसाय निश्चित थे। कुछ व्यक्ति विविध प्रकार के शिल्पों का ज्ञान रखते थे और वस्तुओं का उत्पादन करते थे। वे लोग अपने पुत्रों तथा शिष्यों को यह शिक्षा देते थे। इस प्रकार वैदिक युग में सूती और ऊनी वस्त्र, रंगसाजी, कसीदाकारी आदि का कार्य किया जाता था। सुनार, धातुकार, चर्मकार और कुम्भकार का भी व्यवसाय करते थे। ये लोग विभिन्न प्रकार के आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, धनुष की प्रत्यंचाएँ आदि वस्तुएँ बनाते थे। वैदिक काल से राजपूत काल तक यह क्रम यथावत चलता रहा और प्राविधिक क्षेत्र में भारत ने अधिक उन्नति की।

3. मुस्लिम काल में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा:- मुस्लिम काल में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का वही रूप था जोकि प्राचीनकाल में था। मुगल सम्राटों के संरक्षण के कारण भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में काफी उन्नति प्राप्त की। मुगल बादशाह भोग-विलास का जीवन व्यतीत करते थे अतः ललित कलाओं और सुख ऐश्वर्य को अनेक वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन मिला। सजावट के सामान, कम ख्वाब, मल-मल, दरियाँ तथा कालीन उच्च कोटि के निर्माण होते थे। सूती वस्त्रों का व्यवसाय महत्वपूर्ण था। रेशमी कपड़े, जलपोत और बारूद का सामान भी बनाया जाता था। हस्तकला की अनेक वस्तुएँ निर्मित होती थीं। विलक्षण पेटियाँ, ट्रंक, कलमदान, मसि-पात्र, छोटी सन्दूकचियाँ, अलंकृत तश्तरियाँ, हाथी दाँत और लकड़ी की बनाई जाती थी। इस प्रकार व्यावसायिक शिक्षा उन्नति के शिखर पर थी।

4. अंग्रेजी राज्य में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा:- अंग्रेजों के आगमन पर परम्परागत प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा समाप्त हो गई। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए यहाँ के उद्योग-धन्धों को चौपट कर दिया। इस अध:पतन का कारण था, 'अंग्रेजों की अपनी निर्धारित नीति- जिसके अनुसार भारत की प्राचीन पंचायतें, शिक्षा प्रणाली, हजारों लाखो पाठशालाएँ और हजारों साल के उन्नत उद्योग-धन्धों का नाश कर डालना।' इस प्रकार यहाँ के उद्योगों को चौपट करके भारत को अंग्रेजी माल से भर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि असंख्य शिल्पी बेकार हो गए इसका भयावह परिणाम यह हुआ कि उनमें से हजारों भूख से तड़प-तड़प कर मर गए। तत्कालीन गवर्नर जनरल लाई विलियम बैटिक ने सन् 1834 में लिखा है, "वाणिज्य के इतिहास में ऐसे दुर्भाग्य का अन्य उदाहरण मिलना कठिन है जुलाहों की हड्डियों ने भारत के मैदानों को सफेद कर दिया है।"

इस प्रकार चिरकाल से चली आने वाली प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की परम्परागत पद्धति सदैव के लिए काल के गाल में समा गई और पाश्चात्य पद्धति ने पदार्पण किया। इस प्रकार एक नया अध्याय आरम्भ होता है जो निम्न कालों में विभाजित है, यथा-

भारत के स्वतन्त्र होने तक प्राविधिक शिक्षा के इतिहास को 3 कालों में विभाजित कर सकते हैं-

(i). 1800 ई० से 1857 ई० तक:- "शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए जो भारत के लोगों को व्यावहारिक तथा लाभदायक हो।" ऐसा 'वुड के आदेश पत्र' में कहा गया था किन्तु कम्पनी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया लेकिन 1847 में रुड़की इन्जीनियरिंग कॉलेज खोला गया। सन् 1857-58 में दो अन्य इन्जीनियरिंग कॉलेज मद्रास तथा कलकत्ता में और खोले गए। पूना में 1854 में एक मेकेनिकल कॉलेज खोला गया। परन्तु इस अवधि में इस प्राविधिक शिक्षा की प्रगति नहीं के बराबर थी।

(ii). 1857 ई० से 1902 ई० तक:- 1854 के वुड के घोषणा-पत्र में व्यावसायिक शिक्षा पर बहुत बल दिया गया था। सन् 1882 के हण्टर आयोग ने भी माध्यमिक शिक्षा में व्यावसायिक विषयों की सिफारिश की थी। परन्तु इसके बावजूद भी कोई प्रयास नहीं किया गया। आजकल भी केवल 9 प्रतिशत विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा माध्यमिक स्तर पर ग्रहण करते हैं। 1886 में पूना इन्जीनियरिंग कॉलेज और 1887 में विक्टोरिया जुबली टेक्निकल इन्स्टीट्यूट बम्बई में स्थापित किए गए। अधिकांश कार्य मिशनरियों द्वारा किया गया क्योंकि ईसाई धर्म में परिवर्तित व्यक्तियों को रोजगार की आवश्यकता थी। इन स्कूलों में बढ़ईगिरी तथा लोहारी की शिक्षा प्रदान की जाती थी।

1902 तक देश में 80 टेक्निकल स्कूल थे जिनमें 4805 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। कांग्रेस ने 1887 में होने वाले तीसरे अधिवेशन में इस शिक्षा की माँग की और अन्य अधिवेशनों में इस माँग को दुहराती रही। अंग्रेज शासक सोचते थे कि इस शिक्षा की व्यवस्था से भारत का तो विकास होगा परन्तु इंग्लैण्ड में व्यवसाय चौपट हो जायेगा। परन्तु सरकार ने 18 जून 1888 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें साहित्य शिक्षा के साथ-साथ औद्योगिक तथा व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव किया। यह तय किया गया कि ध्यानीय आवश्यकता के दुसार स्थानीय प्रशासन की सहायता से इस शिक्षा को आगे बढ़ाया जाए।

(iii). 1902 से 1947 तक:- सन् 1904 में 'Association for the Advancement Scientific and Industrial Education' की स्थापना की गई। 1905 ई० से 1917 के मध्य में 130 छात्रवृत्तियाँ विदेश में शिक्षा प्राप्त करने को दी गई। ये छात्रवृत्तियाँ वस्तु उद्योग, खान (Mines), बर्तन बनाना (Pottery), चर्म शोधन (Tanning), दियासलाई चका सामान, चीनी, पेंसिल तथा कागज आदि की कुशलता सीखने को दी गई थी। इस समय धनबाद में 'Institute of Mines', कानपुर में 'Institute of Textile Industry' और बम्बई में 'Engineering College' खोले गए। जादवपुर में 'College of Engineering and Technology', जमशेदपुर में 'Tata Institute' और बनारस में 'Banaras University' की स्थापना प्राविधिक शिक्षा के लिए खोले गए। सरकार ने युद्ध लड़ने को 'Ordinance Factories' खोली। सन् 1941 में दिल्ली में 'पॉलीटेक्निकल स्कूल' खोला और 1905 में एक कमेटी का निर्माण किया जिसका काम तकनीकी शिक्षा का विकास करना था। इस कमेटी को 'सरकार कमेटी' कहा जाता था और इसका कार्य युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करना था।

भारत में द्वैध शासन की स्थापना के बाद जनता ने प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की माँग की। सरकार ने लार्ड लिटन की अध्यक्षता में एक विशिष्ट समिति बनाई जिसने सुझाव दिया कि भारत में औद्योगिक प्राविधिक संस्थाओं का निर्माण किया जाए। इसके अनुसार जो संस्थाएँ खोली गईं वे इस प्रकार हैं-

  1. हारकोर्ट बटलर टेक्नोलोजिकल इन्स्टीट्यूट, कानपुर
  2. कॉलेज ऑफ इन्जीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी, जादवपुर
  3. गवर्नमेन्ट स्कूल ऑफ टेक्नोलॉजी, मद्रास

1937 ई० तक सम्पूर्ण भारत में 535 प्रौद्योगिक प्राविधिक विद्यालय थे। सन् 1941-42 में केवल 264 स्नातक प्राविधिक शिक्षा और 20 स्नातक रासायनिक की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। 30 नवम्बर, 1955 में सरकार ने All India Council of Technical Education की स्थापना की और मार्च 1947 में Scientific Manpower Committee की स्थापना की जिसका काम आगे आने वाले वर्षों में देश के विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान तथा तकनीकी आवश्यकताओं का अनुमान करना था। इस कमेटी ने 1947 के अन्त तक 54 हजार इन्जीनियर और 20 हजार टेक्नीशियन्स की आवश्यकता बतलाई।

स्वतन्त्र भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा (Technical and Vocational Education in Independent India)

एक विस्तृत दृष्टिकोण अपनाकर भारत के लिए प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा का महत्व समझा गया जिससे लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठ सके।

1. सन् 1947 से 1976 तक शिक्षा की प्रगति:- भारत के औद्योगीकरण के लिए प्रयास किए गए। अतः प्राविधिक और औद्योगिक शिक्षा की प्रगति हुई जो अभिनन्दनीय है। सन् 1947 में केवल 6,600 छात्रों को प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा देने के लिए प्रबन्ध था परन्तु सन् 1963 में 4,35, 799 छात्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त 1969 में इन्जीनियरिंग और औद्योगिक डिग्री एवं डिप्लोमा के लिए क्रमश: 17,800 तथा 2,79,000 छात्रों को अध्ययन की सुविधाएँ दी गयीं पंचवर्षीय योजनाओं में प्रसार निम्न प्रकार हुआ है-

(i) प्रथम पंचवर्षीय योजना में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा (1951-56)

इस शिक्षा पर ध्यान देने के कारण निश्चय किया गया कि "इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ साइन्स' बंगलौर का विकास किया जाए और इन्जीनियरिंग के 14 कॉलेज स्थापित किए जाएं। व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए परामर्शदाता केन्द्रों की स्थापना की जाए। प्रथम योजना में 23 करोड़ की धनराशि रखी गई है। सन् 1951 में इन्जीनियरिंग और टेक्नोलॉजी में डिग्री और डिप्लोमा कोर्स चलाने वाले संस्थानों की संख्या क्रमश: 53 और 89 थी।

इसके विकास के लिए प्रौद्योगिक, प्राविधिक तथा व्यावसायिक स्कूलों की स्थापना, क्राफ्ट स्कूलों का जूनियर टेक्नीकल हाईस्कूलों में परिवर्तन जूनियर बहु-उद्योगीय स्कूलों का निर्माण, सामान्य माध्यमिक विद्यालयों का टेक्नीकल हाईस्कूलों के रूप में विकास, औद्योगिक स्कूलों का शिलान्यास, पाठ्यक्रमों में कृषि शिक्षा का उपयुक्त स्थान, प्रौद्योगिक एवं प्राविधिक स्कूलों का कॉलेजों में रूपान्तर और विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियों का देना आदि का प्रबन्ध किया गया। कलाकारों एवं शिल्पकारों को प्रशिक्षण देने की अधिक सुविधाएँ तथा ग्रामो में भी प्रशिक्षण केन्द्र खोलने की व्यवस्था की जाए।

(ii) दूसरी पंचवर्षीय योजना में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा (1956-1961)

द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इस शिक्षा के विस्तार के लिए 48 करोड़ रुपये की धनराशि की व्यवस्था की गई। दूसरी योजना में "इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी" खड़गपुर को स्नातक तथा स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए विकसित कर दिया गया। इस इन्स्टीट्यूट में योजना के अनुसार 1200 छात्रों के लिए स्नातक और 600 छात्रों के लिए स्नातकोत्तर एवं शोध की व्यवस्था की गई।

'इस्टीट्यूट ऑफ साइंस' बंगलौर का विकास वायु एवं जल सेना इन्जीनियरी, आन्तरिक ज्वलन इन्जीनियरी, धातु विज्ञान और विद्युत इन्जीनियरी विषयक शोध, प्रौद्योगिक व प्राविधिक शिक्षा के लिए किया गया।

प्रथम योजना में स्थापित किए गए प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के अन्य केन्द्रों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों एवं इन्जीनियरिंग और प्रौद्योगिकी के अनुसंधान की व्यवस्था की गई। वर्तमान संस्थाओं को डिग्री और डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के लिए विकसित करने का कार्य जो पहली योजना में प्रारम्भ किया गया था उसे दूसरी योजना में पूर्ण किया गया। दो संस्थाओं का निर्माण बम्बई तथा कानपुर में किया गया।

द्वितीय योजना काल में, "दिल्ली पॉलीटेक्निक संस्था में इन्जीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा-सुविधओं में विस्तार किया गया। देश के विभिन्न भागों में इन्जीनियरिंग और प्रौद्योगिकी शिक्षा प्रदान करने के लिए 9 संस्थाएँ डिग्री स्तर की, 21 संस्थाएँ डिप्लोमा स्तर की स्थापित की गई। फोरमैनों के प्रशिक्षण की योजना को उद्योग संस्थानों के सहयोग से क्रियान्वित किया गया। छात्रवृत्तियों की संख्या को 633 से बढ़ाकर 800 कर दिया गया।

योग्य छात्रों के लिए इन संस्थाओं में कुछ निःशुल्क स्थान सुरक्षित रखे गए। 13,000 टेक्निकल छात्रों और 3300 जूनियर टेक्निकल स्कूलों के छात्रों के लिए अतिरिक्त छात्रावास का निर्माण किया गया। धनबाद में इण्डियन स्कूल ऑफ साइंस एण्ड एप्लाइड जिओलॉजी का विस्तार किया गया। 1960-61 तक प्रतिवर्ष 5700 स्नातक तथा 4800 डिप्लोमा प्राप्त व्यक्ति उपलब्धि हुई यह संख्या प्रथम योजना की तुलना में दुगुनी और तिगुनी थी।

(iii) तीसरी पंचवर्षीय योजना में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा (1961-66)

तीसरी योजना के समय 45,000 स्नातकों तथा 80,000 डिप्लोमाधारियों की आवश्यकता पड़ने की सम्भावना थी। यह सब प्रायः पूर्ण हो गई। डिप्लोमाधारियों की जो थोड़ी कमी रह गई थी उसे पूर्ण करने के लिए तीसरी योजना के आरम्भ में ही यथाशीघ्र अतिरिक्त शिक्षा सुविधाओं की व्यवस्था की गई। तीसरी योजना की अवधि में डिग्री वाले छात्रों के वार्षिक प्रवेश में 6000 की वृद्धि की गई- 5000 को इन्जीनियरिंग में प्रवेश करके तथा 1000 को आंशिक समय में अथवा पत्र व्यवहार द्वारा पढ़ाकर। वार्षिक दाखिलों की संख्या 1961 में 13,200 से बढ़कर 1966 में 19,200 हो गई।

डिप्लोमा लेने वाले छात्रों के वार्षिक दाखिलों की संख्या में 15,000 की वृद्धि की गई— 10,000 पॉलीटेक्निकों में प्रविष्ट करके तथा 5,000 को आंशिक समय में अथवा पत्र-व्यवहार द्वारा पढ़ाकर। वार्षिक दाखिलों की संख्या जो द्वितीय योजना के अन्त में 24,000 थी वह तृतीय योजना के अन्त तक बढ़कर 69,000 हो गई। तीसरी योजना में प्राविधिक शिक्षा के विकास कार्यक्रमों को पूर्ण करने के लिए 142 करोड़ रुपये रखे गए थे।

(iv) चौथी और पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में प्राविधिक शिक्षा

अब तक जिस प्रकार से प्राविधिक शिक्षा का विस्तार हुआ था उस प्रकार शिक्षा संस्थानों की प्रगति नहीं हुई थी। उदाहरण के लिए 1964 के सर्वेक्षण से पता लगा कि इन्जीनियरिंग और पोलीटेक्निकल संस्थाओं में 35 प्रतिशत अध्यापक कम थे, 53 प्रतिशत उपकरण कम थे, 51 प्रतिशत भवन कम थे और 55 प्रतिशत छात्रावासों का अभाव था। चौथी और पाँचवी योजना में इस कमी की पूर्ति का प्रयास किया गया। शिक्षा संस्थाओं और विभिन्न उद्योगों के कर्मचारियों की अदला-बदली की भी व्यवस्था की गई। उद्योगों में कार्य करने वाले इन्जीनियरों के हेतु एक निश्चित समय तक अध्यापक कार्य करने की व्यवस्था की गई। प्राविधिक शिक्षा औद्योगिक केन्द्रों के साथ समन्वय स्थापित किया गया।

1978 में इन्जीनियरिंग और टेक्नोलॉजी में डिग्री और डिप्लोमा कोर्स चलाने वाले संस्थानों की संख्या क्रमश: 156 और 320 थी जबकि 1951 में ये संस्थाएँ 53 और 89 थीं। इन संस्थाओं में प्रवेश पाने वालों की संख्या डिग्री पाठ्यक्रम के लिए लगभग 25,000 और डिप्लोमा पाठ्यक्रम के लिए लगभग 50,000 थी।

अब तक जो सुविधाएँ उपलब्ध हो चुकी हैं उनकी सहायता से भारत अब अगली दो पंचवर्षीय योजनाओं की जरूरतों के लिए तकनीकी जनशक्ति जुटाने की स्थिति में है।

(v) छठी और सातवीं पंचवर्षीय योजना

इसमें यह कहा गया कि औद्योगिक शिक्षा का आधुनिक औद्योगिक विकास से सीधा सम्बन्ध है परन्तु हमारे औद्योगिक संस्थान प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों को खपाने में असमर्थ रहे हैं। इन संस्थाओं की कुल क्षमता 25 हजार इन्जीनियरों और 50 हजार जूनियर इन्जीनियरों को खपाने की है, जोकि बहुत कम है। अगले दस वर्षों में इसे बढ़ाने का प्रयास किया जाएगा। पाठ्य पुस्तकों में सुधार किया जाएगा। खोज के कार्य को प्रमुखता दी जाएगी और उच्च प्राविधिक शिक्षा एवं खोज के कार्य के हेतु 5 नए केन्द्रों की भी व्यवस्था की जाएगी।

छठी सातवीं योजना में समेकन और गुणात्मक सुधार पर बल दिया गया। योजना अप्रचलन को दूर करने और प्रयोगशाला एवं कर्मशाला प्रणाली का पुनः अभिकल्प के आधार पर सुविधाओं का आधुनिकीकरण और पाठ्यक्रमों का आधुनिकीकरण एवं विविधीकरण, जिसमें ग्रामीण विकास की आवश्यकताओं के सन्दर्भ में खासकर अत्यधिक उदारता की जाए, बरबादी को कम करना और प्रयोगशाला कार्य योजना के साथ पाठ्यक्रम विकास केन्द्र एकीकरण के लिए क्रमबद्ध कार्यक्रम की व्यवस्था की गई है।

(vi) आठवीं एवं नवी योजना

इसमें अनुमोदित स्त्रियों के अनुसार वर्तमान संस्थानों में सुविधाओं में समेकन और सुधार के चालू कार्यक्रमों को पूरा करने की व्यवस्था की गई है। ऊर्जा अध्ययन भौतिक विज्ञान निम्न तापिकी, समुद्री इन्जीनियरी और संसाधन सर्वेक्षण में उच्च अध्ययन और अनुसन्धान के पाँच केन्द्र पूरी तरह से स्थापित किए जाएंगे। उनके भावी कार्यकलाप मुख्यतः विज्ञान और शिल्प विज्ञान की राष्ट्रीय योजना के अनुसार निर्धारित क्षेत्रों में अनुसन्धान करने के लिए होंगे। ऐसे अनुसन्धानों के लिए विशिष्ट परियोजनाएँ और वित्तीय सहायता सरकारी विभागों और सरकारी क्षेत्रों निजी उद्योगों के प्रयोजित अभिकरणों को उपलब्ध करानी होगी। इन्जीनियरों और शिल्प विज्ञान में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और अनुसन्धान कार्यक्रम वर्तमान स्तर पर ही बनाए रखने होंगे। उपभोक्ता अधिकरणों द्वारा समनुदेशित और निश्चित प्रायोजित अनुसन्धान कार्य, शिक्षक वर्ग और छात्रों द्वारा तकनीकी विस्तार सेवाओं तथा शिक्षक वर्ग के विकास कार्यक्रमों पर और अधिक जोर दिया जाएगा।

तकनीकी शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय विज्ञान और शिल्प विज्ञान संसाधन के साथ विशिष्ट प्रयोगशालाओं, परिष्कृत उपकरण सुविधाओं और उससे अधिक महत्वपूर्ण उनके शिक्षक वर्ग के उच्च योग्यता प्राप्त वैज्ञानिक और इन्जीनियरों कर्मिकों के दल का प्रतिनिधित्व करती है। ये आन्तरिक संसाधन केवल शिल्प वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता में ही उपयोग में न लाए जाएं बल्कि तकनीकी शिक्षा उत्तरोत्तर गुणात्मक सुधार के लिए भी उपयोग में लाए जाएँ। इस सन्दर्भ में इस बात की जाँच की जाए कि क्या आन्तरिक तकनीकी सहायता कार्यक्रम प्रणाली विकासोन्मुख लाभों के लिए चुने हुए संसाधनों के संग्रहण संसाधनों द्वारा निर्मित नहीं की जा सकती है।

भारत में प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा की समस्याएँ (Problems of Technical and Vocational Education in India)

ब्रिटिश सरकार ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए भारत के विकास और उद्योग-धन्धों में रुचि नहीं ली थी। वर्तमान भारत की सरकार अपने देश को उच्च कोटि का राष्ट्र बनाने पर बल दे रही है। अतः प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इसका जीता जागता प्रमाण है कि देश में अनेक तकनीकी स्कूल, पॉलिटेक्निकल, इन्जीनियरिंग कॉलेज आदि का विकास किया गया। आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों और विमानों का निर्माण भी इस शिक्षा की देन है। लेकिन तकनीकी शिक्षा व क्षेत्र में बहुत सी समस्याएँ भी है जिसके कारण शिक्षा की प्रगति में व्यवधान पड़ रहा है। तकनीकी शिक्षा की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्न प्रकार की हैं-

1. श्रम के प्रति अनुचित दृष्टि:- भारत में यह धारणा रही है कि यहाँ के लोग मानसिक कार्य को प्रधानता देते हैं और शारीरिक श्रम के कार्य को हेय दृष्टि से देखते हैं। श्रम के सम्बन्ध में कारलायल का मत है- "श्रम ही जीवन है। हमारे युग का सच्चा महाकाव्य उपकरण और मनुष्य है।" (Labour is life. The true epic of our times is tools and the man) हमारी परम्परा में जोकि दासता के कारण पनपी है वह है कि एक श्रमिक का पुत्र भी बनिस्वत हाथ का कार्य करने की अपेक्षा किसी दफ्तर में क्लर्क होना ज्यादा अच्छा समझता है जबकि संसार के महान राष्ट्रों में इस भावना को नहीं पाया जाता है। किसी भी डिग्री या डिप्लोमा को प्राप्त करने के पश्चात् छात्र नौकरी की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं और किसी उद्योग को खोलने में रुचि नहीं रखते हैं।

समाधान-दृष्टिकोण में परिवर्तन:- इस समस्या का निराकरण हमारे मानसिक दृष्टिकोण को बदलकर ही समाधान किया जा सकता है। हमारे समाज सेवक व सरकार के वरिष्ठ अधिकारीगण जनता के मानसिक दृष्टिकोण को बदलने में सहायता प्रदान कर सकते हैं। वे अपने प्रयत्नों से शारीरिक श्रम की महत्ता बतलाकर या उदाहरण रखकर जनता में एक नई चेतना का विकास कर सकते हैं। इससे शारीरिक श्रम के प्रति निष्ठा बढ़ेगी और प्रत्येक व्यक्ति के मन में शारीरिक श्रम के प्रति फैली हुई भ्रान्ति दूर होगी। श्रम के प्रति इस प्रकार निष्ठा होगी और हमारा राष्ट्र श्रम के महत्व को समझकर उन्नतिशील बनेगा। "कोठारी कमीशन" ने अपने शब्दों में कहा था- "कुशल कारीगरों और शिल्पकारों की स्थिति और महत्व को ऊँचा उठाने के लिए सरकार और उद्योगो-दोनों के द्वारा सम्मिलित प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, उनको उत्तम पारिश्रमिक नीतियों का निर्माण, व्यावसायिक निर्देशन का आयोजन एवं जनमत के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए।"

2. सामान्य व प्राविधिक शिक्षा में अन्तर:- हमारी शिक्षा में सामान्य और प्राविधिक शिक्षा में अन्तर समझा जाता है। प्राविधिक शिक्षा मानव को कुशल शिल्पी बनाती है और सामान्य शिक्षा मानव को एक महामानव निर्मित करती है जिसमें अच्छे चरित्र और गुणों का समावेश होता है। अच्छे नागरिक निर्माण करने में सहायता प्रदान की जाती है। प्राविधिक शिक्षा मानवीय पहलुओं की पूर्ण रूप से अपेक्षा करती है। अतः प्राविधिक शिक्षा एकांगी है—वह कुशल इन्जीनियर या शिल्पकार बनाती है परन्तु श्रेष्ठ मानव नहीं। छात्रों को इस शिक्षा को प्राप्त करने के पश्चात् जगत का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता है। वे अपने अधिकारियों तथा सहयोगियों का पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं कर पाते हैं और असफल हो जाते हैं। इस प्रकार उत्पादन और कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

समाधान-सामान्य व प्राविधिक शिक्षा का उचित मिश्रण:- इस समस्या का समाधान प्राविधिक और सामान्य शिक्षा के मिश्रण द्वारा ही किया जा सकता है। ये एक दूसरे से अलग न होकर शिक्षा प्रक्रिया के दो रूप है। "वुड एबट रिपोर्ट के अनुसार- "सामान्य एवं व्यावसायिक शिक्षा अनिवार्य रूप से एक-दूसरे से भिन्न न होकर निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया के पहले और बाद के रूप हैं।" एक इन्जीनियर व्यावसायिक व्यक्ति है जिसे कुशलता प्राप्त है और समाज के अन्दर कार्य करता है। उसे मानव सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है। ताकि उसकी कार्यक्षमता में चार चाँद लग सके। अतः उसे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।

यह तभी सम्भावित हो सकता है जबकि प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं में सामान्य शिक्षा को निश्चित स्थान प्रदान किया जाए। इससे उसकी व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि होगी। "कोठारी आयोग का इस सम्बन्ध में सुझाव है "सामान्य तथा प्राविधिक शिक्षा में स्पष्ट अन्तर नहीं किया जाना चाहिए। सब प्रकार की प्राविधिक शिक्षा में सामान्य शिक्षा का अंश होना चाहिए।"

3. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम:- प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में दो मुख्य दोष हैं—संकीर्णता एवं समरूपता। उनमें व्यापकता और बहुउद्देश्य का अभाव है। उनको छात्रों की रुचियों को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है अत: वह छात्रों और उद्योगों-दोनों के लिए अहितकर व अनुपयोगी है। इसके परिणाम निम्नलिखित हैं-

पहला दोष है कि छात्रों को समस्त विषयों का अध्ययन अनिवार्य है। यहाँ रुचि एवं क्षमता का प्रश्न नहीं उठता है। अतः परीक्षा में असफलता मिलती है और अपव्यय व अवरोधन को जन्म देती है।

दूसरा दोष है कि छात्रों को एक-सा पाठ्यक्रम पढ़ने को मिलता है। अतः अधिक संख्या में एक-सी योग्यता के छात्र अधिक हो जाने के कारण बेरोजगारी बढ़ती है और नौकरी नहीं मिल पाती। चौथी पंचवर्षीय योजना में बेरोजगारी होने से छात्रों की संख्या में कमी हो गई।

तीसरा दोष है कि देश की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियाँ बदल रही हैं और नए उद्योगों की माँग बढ़ रही है। पाठ्यक्रम इन बदलती हुई माँगों को पूरा नहीं करता है।

समाधान-विविध व संशोधित पाठ्यक्रम:- पाठ्यक्रम के संशोधन के दो सुझाव प्रस्तुत किए जाते हैं। प्रथम सुझाव है कि पाठ्यक्रम में विभिन्न विषयों को सम्मिलित करके उसे विविधता का रूप प्रदान किया जाए ताकि छात्र अपनी रुचियों एवं क्षमताओं के आधार पर विषयों का चयन कर सके। इससे असफलता रुकेगी और अपव्यय व अवरोधन समाप्त होगा। दूसरा सुझाव है कि विभिन्न उद्योगों की माँग के आधार पर पाठ्यक्रम में संशोधित विषयों को स्थान दिया जाए। इस प्रकार का पाठ्यक्रम देश और छात्रों के लिए लाभदायक होगा और नए उद्योगों में कार्य करने के लिए प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति सुलभता से उपलब्ध हो सकेंगे। इस प्रकार बेरोजगारी समाप्त होगी।

4. शिक्षा का अनुपयुक्त माध्यम:- पं० नेहरू ने राज्य शिक्षा मन्त्रियों के सम्मेलन में 2 सितम्बर, 1956 को कहा था- "यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वैज्ञानिक एवं प्राविधिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रहेगा।" उस समय से आज तक प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा में अंग्रेजी ही माध्यम है। इन संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्र हाईस्कूल और इण्टर परीक्षा पास करके प्रवेश लेते हैं और वे हाईस्कूल व इण्टर तक की शिक्षा अपनी मातृभाषा में प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् जब वे प्राविधिक शिक्षा में पढ़ने के लिए प्रवेश लेते हैं तो अंग्रेजी द्वारा शिक्षा दी जाती है। इससे वे असमंजस की स्थिति में पड़ जाते हैं क्योंकि उनको अंग्रेजी को पढ़ने, सुनने, समझने और लिखने के लिए विवश होना पड़ता है। अतः न वे व्याख्यान समझ पाते हैं और न पुस्तकें पढ़ सकते हैं। इस प्रकार उनका अधिकांश समय भाषा पर अधिकार करने में व्यतीत होता है। अंग्रेजी में सुगमता न होने के कारण अपनी पढ़ाई बन्द कर देते हैं या परीक्षाओं में असफल होते हैं। इस प्रकार उनका धन व परिश्रम बेकार हो जाता है।

समाधान-क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग:- प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम की समस्या का समाधान तभी हो सकता है जबकि अंग्रेजी का स्थान क्षेत्रीय भाषाओं को प्रदान किया जाए। क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकें तैयार की जाएँ जिसमें समय लग सकता है। संसार के अन्य देश जैसे रूस, जर्मनी, जापान आदि देश अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देते हैं। इन देशों का माध्यम अंग्रेजी नहीं है वरन् उनकी अपनी भाषाएँ हैं। उनकी प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा उच्च कोटि की है तो फिर भारत में इस प्रकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

कोठारी कमीशन" ने सुझाव दिया है- "पॉलीटेक्निको (डिप्लोमा स्तर की शिक्षा संस्थाओं) में शिक्षा का माध्यम- क्षेत्रीय भाषाएँ होनी चाहिए। अंग्रेजी कुछ समय तक इन्जीनियरिंग की शिक्षा (डिग्री स्तर की शिक्षा) का माध्यक रह सकती है। किन्तु क्षेत्रीय भाषाओं में प्राविधिक विषयों पाठ्य-पुस्तकों को तैयार करने के लिए उत्साहपूर्ण कार्य करने की आवश्यकता है।

5. व्यावहारिक प्रशिक्षण की उपेक्षा:- हमारी प्राविधिक एवं व्यावसायिक संस्थाओं में एक कमी है और वह कमी है कि सैद्धान्तिक शिक्षा पर बल अधिक दिया जाता है और व्यावहारिक प्रशिक्षण पर नहीं। इन शिक्षा संस्थाओं का उत्तर होता है कि उनके वर्कशापों और प्रयोगशालाओं में उपकरणों का अभाव है। आधुनिक दृष्टि से उनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। दूसरा उत्तर है कि उनके क्षेत्रों में स्थित फैक्टरियाँ और औद्योगिक केन्द्र उनके छात्र को व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए अनुमति प्रदान नहीं करती है। यथार्थता को स्वीकार करते हुए उनके तर्क अकाट्य हैं परन्तु इन अभावों के कारण वे अपने कार्य में दक्षता और प्रवीणता प्राप्त हैं नहीं कर सकते। उन्हें कार्य करने पर अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की कृपा पर रहना पड़ता है।

समाधान–नई साज-सज्जा की आवश्यकता:- व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के सम्बन्ध में “कोठारी आयोग" ने सुझाव दिए हैं। प्रथम यह है कि डिग्री कोर्स से छात्रों को तीसरे वर्ष से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। द्वितीय सुझाव यह है कि डिप्लोमा कोर्स के छात्रों को सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जाए। तृतीय सुझाव यह है कि छात्रों को स्थानीय उद्योगों में वास्तविक अनुमति प्राप्त करने की समुचित सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। इसके बदले में उद्योगों को कुछ धन दे दिया जाए।

इसके अतिरिक्त यह भी सुझाव है कि वर्कशापों और प्रयोगशालाओं को नवीन उपकरणों से सजाया जाए। सरकार का पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में यह निर्णय स्वागत के योग्य है कि वर्कशाप और प्रयोगशालाओं को आधुनिक रूप प्रदान किया जाए और बदलती हुई औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए पुरानी संस्थाओं की अनुपयोगी साज-सज्जा को उपयोगी साज-सज्जा से बदला जायेगा।'

6. अपव्यय:– प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा में अपव्यय की समस्या जटिल हो गई है। "कोठारी कमीशन" के अनुसार डिप्लोमा स्तर पर अपव्यय लगभग 40 प्रतिशत और डिग्री स्तर पर 20 प्रतिशत है। अपव्यय के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

  1. यह शिक्षा महंगी है और छात्रों को पर्याप्त धन अपनी पाठ्य पुस्तकें और सामग्री खरीदने को नहीं मिल पाता है।
  2. इन संस्थाओं के अध्यापकों को अल्प वेतन मिलने के कारण अपनी नौकरी छोड़कर औद्योगिक संस्थानों या व्यावसायिक केन्द्रों में चला जाना पड़ता है जहाँ कि उन्हें अधिक वेतन मिल जाता है। इस प्रकार छात्रों की पढ़ाई का क्रम टूट जाता है।
  3. इन शिक्षा संस्थाओं के वर्कशापों और प्रयोगशालाओं में प्राचीन ढंग के उपकरण हैं। अतः छात्रों का उचित प्रशिक्षण नहीं हो पाता है। (iv) अंग्रेजी का माध्यम होने के कारण परीक्षा में असफल हो जाते हैं। उन छात्रों को अंग्रेजी समझने में कठिनाई होती है जिनका भाषा पर अधिकार नहीं है।
  4. योग्य अध्यापकों का अभाव है और शिक्षण का स्तर निम्न है।
  5. पाठ्यक्रम संकीर्ण है अपनी अभिरुचि के अनुसार विषयों का चयन नहीं कर सकते।
  6. छात्रावासों का प्रबन्ध नहीं है जिससे उनके अध्ययन पर प्रभाव पड़ता है।

समाधान:– उपयुक्त समस्या के समाधान के लिए "कोठारी आयोग" ने कुछ सुझाव दिए हैं—"अच्छे छात्रों का चुनाव प्रवेश की निम्नतम शैक्षिक योग्यताओं से छात्रों को मुक्त करने की प्रचलित प्रथा की समाप्ति और अंग्रेजी पर अपर्याप्त अधिकार रखने वाले छात्रों के लिए इस भाषा के शिक्षण की व्यवस्था।"

7. शिक्षकों का अभाव:- प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा में शिक्षकों का अभाव रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उद्योगों में इन प्रशिक्षित व्यक्तियों की माँग अधिक रहती है, उन्हें आवास, वेतन और भत्ता अधिक मिलता है। अत: अच्छा जीवन व्यतीत करने के प्रलोभन में वे उन उद्योगों में कार्य करना अधिक पसन्द करते हैं। दूसरी तरफ इन शिक्षा संस्थाओं में अध्यापन करने वाले व्यक्तियों को कम वेतन मिलता है और धन के अभाव में ग्रस्त रहते हैं तथा समाज द्वारा भी उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं होता है।

कोठारी आयोग ने लिखा है कि "इन्जीनियरिंग कॉलेजों में शिक्षकों का वर्तमान अभाव परेशानी में डालने वाला है।"

"The existing shortage of teachers in engineering colleges is disturbing large." -Kothari Commission.

समाधान- शिक्षकों की पूर्ति:- प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा में अध्यापकों की कमी की समस्या की पूर्ति को, उनके व्यवसाय को आकर्षक बनाकर किया जा सकता है। "कोठारी आयोग" ने इस सम्बन्ध में चार सुझाव दिए हैं-

  1. (अ) शिक्षकों के वेतनमान में वृद्धि करके,
  2. (ब) उनकी कार्य करने की दशाओं में सुधार करके,
  3. (स) उनको अनुसंधान की सुविधाएं देकर,
  4. (द) स्थानीय उद्योगों में परामर्शदाता के रूप में नियुक्त करके।

सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं में कई प्रकार के उपाय शिक्षकों की दशा सुधारने तथा कमी को पूरा करने के लिए किए हैं जैसे-दूसरी और तीसरी योजनाओं में इन्जीनियरिंग कॉलेजों में शिष्य वृत्तियाँ देकर शिक्षक तैयार किए गए। चौथी योजना में स्नातकोत्तर शिक्षा एवं अनुसन्धान की सुविधा देकर कार्यरत अध्यापकों को शैक्षिक योग्यता में वृद्धि करने में सहायता देना। पाँचवी योजना में शिक्षकों को निवास की सुविधाएँ देने की व्यवस्था है।

8. अध्ययन के उपरान्त शिक्षा का अभाव:- शैक्षिक ज्ञान मनुष्य के जीवन में काम आता है जो छात्र इन संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद किसी उद्योग या व्यवसाय में लग जाते हैं उनको शिक्षा प्राप्त करने का फिर अवसर नहीं मिल पाता। अतः इसका परिणाम यह होता है कि कुछ समय पश्चात् वे अपने अध्ययन-काल के ज्ञान को भूल जाते हैं या सीमित हो जाते हैं। इस प्रकार प्राप्त ज्ञान का कुछ अंश ही शेष रह जाता है। उनकी दक्षता कम हो जाती है और वे अवनति की ओर अग्रसर होते हैं। जो नये अनुसंधान एवं आविष्कार होते हैं उनसे वे अपरिचित रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को अध्ययन का कोई अवसर नहीं मिलता है और उनकी कुशलता में गिरावट आ जाती है।

समाधान–अनवरत शिक्षा की व्यवस्था:- उपर्युक्त अंकित समस्या का समाधान तभी हो सकता है जबकि उनके लिए अनवरत शिक्षा की व्यवस्था की जाए। सभी को अपनी सुविधानुसार ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिले। “कोठारी आयोग" ने अपने इस सम्बन्ध में 3 सुझाव दिए हैं-

  1. (i) सभी शिक्षा संस्थाओं में सायंकालीन अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था की जाए और उनको इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिए अवकाश प्रदान किया जाए।
  2. (ii) ऐसे कर्मचारियों को शिक्षा प्रदान करने को पत्राचार पाठ्यक्रम (Correspondance Cource) चालू किए जाएँ।
  3. (iii) ऐसे कर्मचारियों को व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने को प्राविधिक संस्थाओं के वर्कशापों और प्रयोगशालाओं का अवकाश के दिनों में प्रयोग किया जाए।

भारत सरकार ने अल्पकालीन शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया है और अनवरत शिक्षा के लिए पाँचवीं योजना में निम्नलिखित कार्यक्रमों का उल्लेख किया है- (अ) अल्पकालीन एवं अनौपचारिक शिक्षा का कार्यक्रम (ब) विशिष्ट प्रशिक्षण का कार्यक्रम, (स) अल्प विधि के अभिनवन पाठ्यक्रम। इन सभी के द्वारा कर्मचारियों की कुशलता में वृद्धि होगी। अतः अनवरत शिक्षा सभी को अपने कार्य में दक्ष एवं कुशल बनाएगी।

(9) औद्योगिक शिक्षा संस्थाओं का अभाव:- देश की आवश्यकताओं को देखते हुए औद्योगिक शिक्षा संस्थाओं की कमी है। जितने छात्र प्रौद्योगिक महाविद्यालयों में जाना चाहते हैं उतनों को प्रवेश नहीं मिल पाता है अतः वे साहित्यिक पाठचर्याओं को लेते हैं। इस प्रकार प्रौद्योगिक शिक्षा का विकास कैसे सम्भव है?

समाधान:– उपर्युक्त परिस्थिति का सामना करने के लिए प्रौद्योगिक शिक्षा संस्थाओं को बोला जाए ताकि छात्रों को निराश न होना पड़े। इस समय देश में 450 प्रौद्योगिक शिक्षण सस्थाएँ है। देश की जनसंख्या के आधार पर इनकी संख्या बहुत कम है। प्रशासन की ओर से संस्थाएं खोलना चाहिए।

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