Group Teaching Method in hindi

इस विधि का उपयोग अनेक प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जाता है। इसके अनेकों प्रकार तथा रूप हैं, इसलिये सर्वमान्य क्रिया-विधि का स्वरूप

समूह शिक्षण विधि (Group Teaching Method)

समूह शिक्षा या टोली शिक्षण, शिक्षण की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है जिसमें कई शिक्षक मिलकर विद्यार्थियों के एक समूह को अनुदेशन प्रदान करते हैं और एक साथ मिलकर किसी विशिष्ट प्रकरण के लिए शिक्षण का उत्तरदायित्व लेते हैं। इसमें दो या दो से अधिक शिक्षक भाग लेते हैं। इसमें शिक्षण विधियों की योजना, समय तथा प्रक्रिया लचीली रखी जाती है ताकि शिक्षण उद्देश्य के अनुसार तथा शिक्षकों की योग्यता के अनुसार समूह शिक्षण के कार्यक्रम में आवश्यक शिक्षित परिवर्तन लाए जा सके।

Group Teaching Method in hindi

इस विधि का उपयोग अनेक प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया जाता है। इसके अनेकों प्रकार तथा रूप हैं, इसलिये सर्वमान्य क्रिया-विधि का स्वरूप देना कठिन है जिससे टोली शिक्षण की व्यवस्था की जा सके। इसमें तीन सोपानों का अनुकरण किया जाता है—

  1. प्रथम सोपान- समूह-शिक्षण की योजना तैयार करना
  2. द्वितीय सोपान- समूह-शिक्षण की व्यवस्था करना
  3. तृतीय सोपान- समूह-शिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करना

सोपानों की क्रियाओं का वर्णन इस प्रकार है-

प्रथम सोपान: समूह-शिक्षण की योजना (Stage One: Plan of Group Teaching)

इसमें निम्नलिखित क्रियाओं का आयोजन किया जाता है-

  1. समूह-शिक्षण के उद्देश्यों का प्रतिपादन करना।
  2. उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना।
  3. छात्रों के आरम्भिक व्यवहारों (Entering Behaviour) की पहचान करना।
  4. शिक्षण के प्रकरण के सम्बन्ध में निर्णय लेना।
  5. शिक्षण के लिये एक सम्भावित रूपरेखा तैयार करना।
  6. शिक्षकों की रुचियों एवं कौशलों को ध्यान में रखते हुए उन्हें कार्य सौपना जैसे–
    • (अ) नेतृत्व प्रवचन का कार्य (Lead Lecture)
    • (ब) अनुसरण का कार्य (Follow-up work), तथा
    • (स) निरीक्षण का कार्य (Supervision)
  7. (7) अनुदेशन का स्तरीकरण करना।
  8. (8) समुचित शिक्षण सामग्री तथा अन्य साधनों की अधिगम वातावरण उत्पन्न के लिये योजना बनाना।
  9. (9) मूल्यांकन प्रविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेना कि मौखिक या लिखित रूप में किया जायेगा।

समूह शिक्षण विधि के अध्यापकों को उक्त क्रियाओं के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय लेकर एक योजना तैयार करनी होती है। अध्यापकों की विशिष्ट योग्यता का पूर्णरूपेण प्रयोग किया जाता है। क्रियाओं को शिक्षकों पर थोपा नहीं जाता है, अपितु वे अपना इच्छा से क्रियाओं का चयन करते हैं।

द्वितीय सोपान: समूह-शिक्षण की व्यवस्था (Stage Two: Management of Group Teaching)

उद्देश्यों को ध्यान में रखकर टोली-शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। छात्रों की कठिनाइयों तथा आवश्यकताओं को विशेष महत्व दिया जाता है। समूह-शिक्षण में साधारणत: निम्नांकित क्रियायें की जाती हैं-

  1. आरम्भ में कुछ प्रश्न किये जाते हैं, जिससे छात्रों की भूमिका का बोध होता है एवं उसी के अनुसार अनुदेशन का स्तरीकरण किया जाता है।
  2. समुचित सम्प्रेषण की प्रविधि का चयन किया जाता है। इसमें छात्रों की भाषा की बोधगम्यता को ध्यान में रखा जाता है।
  3. योग्य शिक्षक द्वारा 'नेतृत्व प्रवचन' का प्रस्तुतीकरण किया जाता है और अन्य समूह के शिक्षक प्रवचन को सुनते हैं तथा कुछ बिन्दु को साथ लिखते जाते हैं। ऐसे तत्व को विशेष रूप से अंकित करते हैं, जिनका समझना छात्रों के लिये सरल नहीं है तथा उसे समुचित ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया है।
  4. अन्य समूह के शिक्षकों द्वारा नेतृत्व प्रवचन के बाद उन तत्वों का स्पष्टीकरण किया जाता है। वे प्रकरण उन तत्वों को अधिक सरल रूप में प्रस्तुत करते हैं ताकि छात्र उन्हें बोधगम्य कर सकें। इन्हें अनुसरण की क्रियायें कहते हैं।
  5. उक्त दोनों ही परिस्थितियों में छात्रों की क्रियाओं को पुनर्बलन दिया जाता है। नेतृत्व प्रवचन तथा अनुसरण की क्रियाओं में शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहन करते रहते हैं।
  6. नेतृत्व प्रवचन में छात्रों को कुछ 'गृह कार्य' कक्षा में ही करने को दिये जाते हैं तथा कुछ अनुसरण काल में कार्य दिये जाते हैं। जो छात्र कक्षा में ही कार्य करते हैं और शिक्षक उन्हें सहायता प्रदान करते हैं। यह टोली-शिक्षण का महत्वपूर्ण कार्य समझा जाता है।

प्रत्येक शिक्षक अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिये सतर्क रहता है और योजना के अनुसार क्रियायें पूरी की जाती हैं।

तृतीय सोपान: समूह-शिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन (Stage Three: Evaluation of Group Teaching)

किसी प्रकार के अनुदेशन तथा शिक्षण में मूल्यांकन सोपान महत्वपूर्ण माना जाता है। छात्रों की निष्पत्तियों के आधार पर उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है कि उनकी प्राप्ति हुई अथवा नहीं हुई है। इसके अतिरिक्त मूल्यांकन के परिणाम छात्रों तथा शिक्षकों के पुनर्बलन का कार्य करते हैं। इस प्रकार इस सोपान में निम्नलिखित क्रियाएँ की जाती हैं-

  1. मौखिक व लिखित प्रश्नों तथा प्रयोगात्मक परिस्थितियों द्वारा मूल्यांकन किया जाता है। प्रकरण के विभिन्न तत्वों सम्बन्धी प्रश्न विशेषज्ञ द्वारा ही पूछा जाता है। प्रत्येक प्रश्न किसी एक उद्देश्य का मूल्यांकन करता है।
  2. छात्रों की निष्पत्तियों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है।
  3. छात्रों की कमजोरियों तथा कठिनाइयों का निदान किया जाता है और उनका उपचार किया जाता है।
  4. मूल्यांकन के आधार पर योजना सोपान तथा व्यवस्था सोपान में सुधार किया जाता है। टोली शिक्षण की व्यवस्था प्रमुख रूप से तीन कार्यों के लिये की जाती है-
    • (अ) कक्षा-शिक्षण के किसी विशिष्ट प्रकरण की अधिक बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करने के लिये।
    • (ब) सामान्य शिक्षण से जो छात्रों में कमजोरियाँ या कठिनाइयाँ रहती हैं, उनको स्पष्ट करने के लिये।
    • (स) प्रशिक्षण संस्थाओं में शिक्षण कौशल एवं क्षमताओं को विकसित करने के लियो इस प्राकर विभिन्न संस्थायें अपने उद्देश्यों एवं साधनों के अनुसार टोली-शिक्षण की अलग अलग क्रिया-विधि अपनाते हैं।

समूह-शिक्षण के लाभ (Advantages of Group Teaching)

समूह-शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

(1) छात्रों को विशेषज्ञों का लाभ मिलता है:— विषयानुकूल समूह-शिक्षण में विशेषज्ञों का उपयोग किया जाता है। अतः छात्रों को उनके विशिष्ट ज्ञान भण्डार से अधिक लाभ मिलता है तथा शिक्षण एवं अधिगम दोनों का ही स्तर ऊँचा उठता है।

(2) शिक्षकों का व्यावसायिक विकास होता है:- समूह शिक्षण में शिक्षकों को अन्य शिक्षकों के सामने ही छात्रों को एक विशेषज्ञ के रूप में पढ़ाना पड़ता है। अतः वे अपने विषय का गहराई से अध्ययन करते हैं और शिक्षण की तैयारी में अधिक परिश्रम करते हैं। इस प्रकार उनके शिक्षण का स्तर तो ऊँचा होता ही है, साथ ही साथ उनका व्यावसायिक विकास भी होता रहता है। समूह शिक्षण एक ऐसा सुअवसर प्रदान करता है, जिसमें एक शिक्षक दूसरे शिक्षक की शिक्षक-शैलियों एवं कौशलों का निरीक्षण कर सकता है, आवश्यकता पड़ने पर इनमें सुधार के लिये एक-दूसरे को सुझाव दे सकता है। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक शिक्षक को स्वयं अपना सुधार करने का अवसर मिलता है।

(3) तत्कालीन समस्याओं का अन्तःअनुशासनिक (Inter-disciplinary) अध्ययन सम्भव होता है:- किसी भी समस्या चर्चा एवं शिक्षण की व्यवस्था करते समय समूह-शिक्षण में इस बात की ओर ध्यान दिया जाता है कि समस्या के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डालने के लिये विभिन्न विषयों के ज्ञान क्षेत्र या अनुशासन के विशेषज्ञों को शिक्षण करने का अवसर दिया जाये। अतः छात्रों को समस्या के अन्तः अनुशासनिक परिप्रेक्ष्य का ज्ञान सम्भव होता है।

(4) छात्रों को मुक्त चर्चा करने का अवसर मलता है:— समूह-शिक्षण में बड़े समूह को छोटे समूहों में विभाजित कर प्रत्येक छात्र को विषय पर चर्चा करने का अवसर प्रदान कर चर्चा में भाग लेने के लिये प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है। शिक्षक हमेशा छात्रों के सहयोग को बढ़ाने के लिये प्रयत्नशील होते हैं।

(5) मानव सम्बन्धों का विकास सम्भव होता है:— समूह शिक्षण के समय कक्षा का सामाजिक वातावरण प्रजातान्त्रिक एवं परिचयात्मक होने के कारण छात्रों में सामाजिक सम्बन्धों एवं समायोजन का विकास होता है।

समूह-शिक्षण की सीमाएँ (Limitations of Group Teaching)

समूह-शिक्षण प्रणाली की कुछ अपनी सीमायें हैं। ये सीमायें अलग-अलग समूह शिक्षण की प्रभावकारिता को समाप्त करने में सक्षम नहीं हैं, किन्तु इनमें से कुछ मिलकर इसकी प्रभावकारिता को समूल नष्ट कर सकती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख न्यूनताओं का उल्लेख किया गया है—

(1) शिक्षकों में प्रतिबद्धता और सहयोग का अभाव:- समूह शिक्षण की आधारशिला शिक्षकों का परस्पर विश्वास एवं सहयोग है। यदि शिक्षकों में इसके प्रति आस्था और प्रतिबद्धता नहीं है, तो यह कभी भी सफल नहीं हो सकती है।

(2) संरचना की नमनीयत-समूह:- शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि इसकी संरचना लचीली हो । समूहों में छात्रों का चयन, शिक्षकों की टोली का निर्माण, शिक्षण का कालांश यदि किसी कठोर नियम एवं व्यवस्था से बाँध दिये जायेंगे और उनमें समयानुकूल परिवर्तन करने की छूट नहीं दी जायेगी, तब इस प्रणाली से लाभ होने की सम्भावना नहीं के बराबर हो जायेगी।

(3) शिक्षकों की भूमिकाओं में विविधता एवं बाहुल्य:- समूह शिक्षण में शिक्षकों का उत्तरदायित्व बहुत बढ़ जाता है। उनसे अनेक प्रकार की भूमिकाओं जैसे--शिक्षक, विशेषज्ञ, सम-उपदेष्टा, विभाग के सदस्य, कक्षा के सदस्य और संकाय के सदस्य आदि को सफलतापूर्वक निभाने की आशा की जाती है। एक शिक्षक प्रायः इन भूमिकाओं को एक-दूसरे का अवरोधक या विरोधी के रूप में अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में शिक्षकों को सामंजस्य बनाये रखने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

(4) अनेकता में एकता स्थापित करने में कठिनाई:- समूह शिक्षण में अनेक शिक्षकों को एक-साथ काम करना है और छात्रों के लिये पाठ्यक्रम तथा विषयवस्तु का निर्धारण करना पड़ता है। कुछ विशेषज्ञ पाठ्यक्रम को विस्तृत और व्यापक बनाना चाहते हैं और कुछ सीमाबद्ध करना। छात्रों में भी विविधता को पसन्द करने वाले और इसके विरोधी हो सकते हैं। ऐसी टकराव की स्थिति में कोई सर्वमान्य पाठ्यक्रम एवं कार्यक्रम बनाना कठिन कार्य है।

(5) परम्परागत रूढ़िवादी अभिवृत्ति एवं परिवर्तन:- सम्बन्धी अवरोध परम्परागत शिक्षण विधि एवं पाठ्यक्रम के साथ हमारे शिक्षक इतने रम गये है कि उसमें वास्तविक रूप से थोड़ा भी परिवर्तन लाने की चेष्टा करने पर उनमें खलबली मच जाती है। वे परिवर्तन को रोकना चाहते हैं। इस प्रकार की अभिवृत्ति समूह-शिक्षण को अपनाने में बाधा के रूप में सामने खड़ी हो जाती है।

(6) शिक्षण संस्थाओं में बड़े कमरों एवं पर्याप्त स्थान का अभाव:- अपने देश में अधिकांश विद्यालयों में बड़े कमरों, सेमिनार कक्ष या सम्मेलन कक्ष का अभाव है। समूह शिक्षण की व्यवस्था में छात्रों एवं शिक्षकों को इस प्रकार बैठना चाहिए कि वे एक-दूसरे को आमने-सामने देख्न सकें। इस व्यवस्था के अनुसार बैठाने के लिये बड़े कमरों तथा सेमितार कक्षों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इनके अभाव में समूह शिक्षण की प्रभावकारिता में कमी आती है।

पाश्चात्य देशों में समूह-शिक्षण की सफलता को देखते हुए और सैद्धान्तिक स्तर पर इसके लाभों को समझने के पश्चात् भारतीय शिक्षा जगत में समूह-शिक्षण को नवाचार के रूप में अपनाया जा सकता है, किन्तु इसका प्रयोग संस्थागत स्तर पर करने के पूर्व भारतीय परिवेश के अनुरूप इसका अनुकूलन करते हुए कुछ शिक्षण संस्थाओं में इससे सम्बन्धित प्राथमिक प्रायोगिक प्रयोग (Pilot Study) करने की नितान्त आवश्यकता है।

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