देवव्रत (भीष्म)
राजा शान्तनु शिकार खेलते हुए एक दिन गंगा के तट पर चले आए। वहां उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। गंगा के किनारे पर खड़ा एक सुदर्शन युवक बाणों की बौछार से गंगा की वेगवान धारा को रोके हुए था।
राजा उस युवक के पास पहुंचकर उसका परिचय पूछने ही वाले थे कि देवी गंगा वहां स्वयं उपस्थित हो गई और बोलीं- “राजन! यह आपका पुत्र देवव्रत है।"
“क्या?” राजा चौंके।
“हां राजन!” गंगा ने मुस्कराकर उस युवक को अपने पास बुलाया और कहा-"-“पुत्र! ये ही तुम्हारे पिता हैं। इन्हें प्रणाम करो।”
देवव्रत ने राजा शान्तनु के चरण स्पर्श किए। राजा ने देवव्रत को आनंदित होकर अपने सीने से लगा लिया।
पिता-पुत्र के मिलन पर देवी गंगा ने कहा– “राजन! महर्षि वसिष्ठ ने आपके पुत्र को वेद-वेदांगों की शिक्षा दी है। असुरों के आचार्य शुक्राचार्य ने शस्त्र-ज्ञान और रण-कौशल में पारंगत किया है और भगवान परशुराम ने धनुर्विद्या का ज्ञान दिया है। युद्ध में केवल परशुराम ही आपके इस पुत्र का सामना करने की सामर्थ्य रखते हैं। आपका यह पुत्र जितना कुशल योद्धा है, उतना ही कुशल राजनीतिज्ञ भी है। आज आपका यह पुत्र मैं, आपको सौंप रही हूं।"
अपनी बात कहकर गंगा ने देवव्रत का मस्तक चूमा और उसे आशीर्वाद देकर गंगा की लहरों में समा गईं।
राजा शान्तनु अत्यन्त तेजस्वी पुत्र को पाकर प्रफुल्लित मन से अपनी राजधानी लौट आए। राजधानी आकर उन्होंने देवव्रत को युवराज के पद पर सुशोभित कर दिया।
धीरे-धीरे चार वर्ष बीत गए। राजा का मन फिर आमोद-प्रमोद में रमने लगा। एक दिन वे यमुना नदी के तट ओर आखेट करने निकल गए। यमुना तट पर भ्रमण करते हुए उन्हें पूरा वातावरण दिव्य सुगंध से सुवासित हुआ लगा। वे उस सुगंध से खिंचे चले गए। कुछ दूर उन्होंने एक नाव में खड़ी हुई एक अनिंद्य सुंदरी को देखा। वह सुगंध उस सुंदरी की कमनीय देह से ही निकल रही थी।
उस तरुणी का नाम सत्यवती था। वह एक निषाद की बेटी थी। पहले उसकी देह से मछली के समान दुर्गंध निकला करती थी, किंतु फिर एक दिन उसकी मुलाकात महर्षि पराशर से हुई, जिन्होंने अपने तप के प्रभाव से उसे दुर्गंध मुक्त करके दिव्य सुगंध प्रदान कर दी।
गंगा के वियोग के कारण राजा शान्तनु के मन में जो उदासी छायी रहती थी, वह इस तरुणी को देखकर विलीन हो गई। वे उस युवती का संसर्ग पाने के लिए लालायित हो उठे। उनकी काम-भावनाएं प्रबल हो उठीं। उन्होंने आगे बढ़कर उस सुंदरी से कहा— “हे सुंदरी! मैं हस्तिनापुर का राजा शान्तनु हूं। मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं। क्या तुम मेरा यह प्रणय निवेदन स्वीकार करोगी?".
सत्यवती ने मुस्कराकर उत्तर दिया- “राजन! मेरे पिता दाशराज मल्लाहों के ने स्वामी हैं। मुझसे विवाह करने के लिए आपको उनकी अनुमति लेनी होगी।"
राजा शान्तनु ने केवटराज दाशराज से अपनी इच्छा प्रकट की तो वे बोले- "हे राजन! आपके जैसा सुयोग्य वर मेरी कन्या को और कहां मिलेगा? पर आपको एक वचन देना होगा।”
“कैसा वचन।" शान्तनु ने कहा।
“राजन! आप मुझे वचन दीजिए कि आपके बाद हस्तिनापुर की राजगद्दी पर मेरी पुत्री के गर्भ से जन्म लेने वाली संतान ही बैठेगी।"
केवटराज की बात सुन राजा शान्तनु का मन उदास हो गया। वे किसी रूप से भी देवव्रत के अधिकारों का हनन करना नहीं चाहते थे। उनसे वचन देते न बना। निराश होकर वे गहरे अंतर्द्वन्द्व के साथ अपने नगर को लौट आए। महल में आकर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। चिंता उन्हें धीरे-धीरे भीतर-ही-भीतर खाने लगी। वे हर समय उदास रहने लगे। शरीर क्षीण होने लगा।
देवव्रत ने देखा कि पिताश्री के मन में कोई-न-कोई गहन चिंता अवश्य समाई हुई है। एक दिन अवसर देखकर देवव्रत ने पिताश्री से उनकी व्यथा का कारण पूछा, लेकिन राजा शान्तनु संकोचवश अपने मन की बात अपने पुत्र से नहीं कह सके, किंतु देवव्रत के बार-बार पूछने पर उन्होंने कहा – “पुत्र! तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो। तुम हर समय युद्ध में व्यस्त रहते हो। ईश्वर न करे, तुम्हें कुछ हो जाए तो मेरे वंश का क्या होगा? मुझे यही चिंता खाए जा रही है।"
देवव्रत अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के युवक थे। उन्होंने पिताश्री से तो कुछ नहीं कहा, किंतु पिताश्री के सारथी से पूछताछ करके असली बात का पता लगा लिया। वे अपने पिताश्री को बताए बिना केवटराज के पास पहुंचे और उनसे सत्यवती का विवाह महाराज शान्तनु से करने का आग्रह किया।
केवटराज ने अपनी वही शर्त देवव्रत के सामने दोहरा दी। इस पर देवव्रत ने केवटराज से कहा- "यदि यही बात है तो मैं, आपको वचन देता हूं कि मैं राज्य के सिंहासन पर अपना कोई अधिकार नहीं मागूंगा। सत्यवती का पुत्र ही पिताश्री के उपरांत राजा होगा।”
"आर्यपुत्र! आप निःसंदेह महान हैं, वीर हैं, परंतु मेरे मन में एक शंका और है। मैं जानता हूं कि आप अपने वचन के पक्के हैं, लेकिन आपकी संतान से तो मैं ऐसी आशा नहीं कर सकता। आप वीर हैं, आपका पुत्र भी वीर ही होगा। यदि उसने मेरे नाती को राजसिंहासन से उतार दिया तो मैं क्या करूंगा? मेरी पुत्री का जीवन तो नर्क बन जाएगा।"
केवटराज की बात सुनकर देवव्रत ने तत्काल आकाश की ओर हाथ उठाकर भीष्म प्रतिज्ञा की— “केवटराज! मैं दशों-दिशाओं को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं विवाह नहीं करूंगा और आजन्म ब्रह्मचारी रहूंगा। अब तो तुम संतुष्ट हो?”
युवा देवव्रत की ऐसी कठोर प्रतिज्ञा सुनकर दिशाएं 'धन्य महावीर! धन्य भीष्म! के जयघोष से गूंज उठीं। देवगण आकाश से पुष्प वर्षा करने लगे।
केवटराज भी युवा देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा सुनकर रोमांचित हो उठे। उन्होंने तत्काल अपनी कन्या सत्यवती को देवव्रत के साथ भेज दिया। इस प्रकार एक पुत्र ने अपने पिता की प्रसन्नता के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया। भारतीय-संस्कृति में ऐसा महान उदाहरण दूसरा कहीं भी नहीं मिलता। इस प्रतिज्ञा के बाद से ही देवव्रत का नाम भीष्म पड़ गया।
सत्यवती का विवाह खूब धूमधाम से महाराज शान्तनु के साथ हो गया। राजा को किंचित् भी इस बात का पता नहीं चला कि उनके पुत्र ने उनके लिए कितना बड़ा बलिदान किया था। उन्हें तो उस समय केवल सत्यवती का सौंदर्य ही दिखाई दे रहा था।