भीष्म मृत्यु शय्या पर | Bhishma Mrityu Shayya Par | Mahabharat

भीष्म ने अपने चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आने दी और न ही अर्जुन के बाणों का प्रत्युत्तर ही दिया। भीष्म गिरे तो उनका शरीर धरती को नहीं छू सका। सारे शरीर

भीष्म मृत्यु-शय्या पर

दसवें दिन पाण्डवों ने शिखण्डी को आगे करके युद्ध किया। अर्जुन उसके पीछे-पीछे था। शिखण्डी की आड़ लेकर अर्जुन ने भीष्म पितामह पर अपने बाण बरसाए। शिखण्डी को अपने सामने देखकर भीष्म ने अपना धनुष नीचे रख दिया। पल-भर के लिए उन्हें अम्बा का स्मरण हो आया। जैसे शिखण्डी के रूप में अम्बा ही उनका काल बनकर खड़ी हो। अम्बा के प्रति उनका अन्याय ही आज काल बनकर उनके सामने आ गया था। अर्जुन के बाणों ने वृद्ध पितामह का वक्ष-स्थल विदीर्ण कर डाला।

Bhishma Mrityu Shayya Par | Mahabharat

भीष्म ने अपने चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आने दी और न ही अर्जुन के बाणों का प्रत्युत्तर ही दिया। भीष्म गिरे तो उनका शरीर धरती को नहीं छू सका। सारे शरीर में जो बाण लगे थे, वे एक ओर से घुसकर दूसरी ओर निकल आए थे। इस प्रकार उनका शरीर बाणों के सहारे धरती के ऊपर ही टंगा रहा।

भीष्म ने अर्जुन को देखकर कहा– “पुत्र! मेरा सिर नीचे लटक रहा है। इसे ऊपर उठाने के लिए मुझे सहारा दो और मुझे पानी दो।”

अर्जुन ने बाणों द्वारा भीष्म का सिरहाना तैयार किया और धरती में एक बाण मारकर गंगा की जलधारा प्रकट करके उन्हें पानी पिलाया।

भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला हुआ था। उन्होंने बताया कि जब तक सूर्य उत्तरायण नहीं आएगा मैं मृत्यु का वरण नहीं करूंगा। दुर्योधन ने तत्काल भीष्म के घायल शरीर के आस-पास अंग रक्षक नियुक्त कर दिए।

कर्ण को पितामह भीष्म के घायल होकर रणक्षेत्र में गिरने का समाचार मिला तो वह दौड़ा-दौड़ा आया और दण्डवत् करके दुखी स्वर में बोला– “पूज्य कुलनायक! मैं सर्वथा निर्दोष होकर भी आपकी घृणा का पात्र बना रहा। मुझे क्षमा करें। मेरे कारण आपको जो मानसिक क्लेश पहुंचा, उसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं।"

भीष्म ने भरी आंखों से प्रेमपूर्वक कर्ण से कहा- "पुत्र! मैं जानता हूं कि तुम राधा के नहीं, कुंती के पुत्र हो। यह रहस्य मुझे देव-ऋषि नारद ने बताया था। हे सूर्य पुत्र! मैंने तुमसे द्वेष नहीं किया। तुम्हारी दानवीरता और शौर्य से मैं भली-भांति परिचित हूं। तुमने दुर्योधन के बहकावे में आकर पाण्डवों से बैर किया, इसीलिए तुम्हारे प्रति मेरा मन मलिन हो गया, किंतु अब मैंने वह सारा मैल धो डाला है। तुम वीर हो। जैसा उचित लगे करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।"

“पितामह! मैं भी जानता हूं कि मैं सूत पुत्र नहीं हूं, परंतु मित्र दुर्योधन ने जिस प्रकार मेरा साथ दिया, उसके कारण मैं उसकी सहायता के लिए उसी प्रकार बाध्य हूं, जैसे आप हस्तिनापुर राज्य के प्रति निष्ठा के साथ बंधे हैं।”

“तुम ठीक कहते हो।” भीष्म ने कर्ण की बात सुनकर कहा- "मैं तुम्हें दुर्योधन की ओर से युद्ध करने की अनुमति देता हूं, परंतु जीत धर्म की ही होगी।”

पितामह भीष्म का आशीर्वाद पाकर कर्ण दुर्योधन के शिविर में जा पहुंचा। कर्ण को आया देख दुर्योधन के उदास चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

ग्यारहवें दिन दुर्योधन ने आचार्य द्रोण को अपना सेनानायक बनाया। उन्हें सेनानायक बनाकर दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने की योजना बनाई। उन्होंने द्रोणाचार्य से प्रार्थना की कि युधिष्ठिर का वध न करके उसे जीवित पकड़कर उन्हें सौंप दिया जाए। द्रोणाचार्य ने समझा कि दुर्योधन, युधिष्ठिर को जीवित पकड़कर पाण्डवों से संधि करके, उन्हें आधा राज्य देना चाहता है, परंतु उन्हें जब सत्यता का पता चला तो बड़ा दुख हुआ। फिर भी उन्होंने युधिष्ठिर को पकड़ने का प्रयत्न अवश्य किया, जिसे अर्जुन ने निष्फल कर दिया।

बारहवें दिन कौरवों ने निश्चय किया कि अर्जुन और युधिष्ठिर के साथ रहते उन्हें बंदी बनाना अत्यंत कठिन है, तब उन्होंने उन्हें अलग-अलग करने की योजना बनाई। सबने यह निश्चय किया कि 'संशप्तक-व्रत' धारण करके त्रिगर्त नरेश सुशर्मा, अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारे और उसे युधिष्ठिर से दूर ले जाए।

'संशप्तक-व्रत' धारण करने वाले त्रिगर्त देश के वीरों की इस टोली को आज की भाषा में ‘आत्मघाती दस्ता' कहा जा सकता है। संशप्तक-व्रत धारण करने वाले वीरों ने युद्ध क्षेत्र में जाकर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। अर्जुन, पांचालराज के पुत्र सत्यजित को युधिष्ठिर की सुरक्षा के लिए तैनात करके, संशप्तकों से युद्ध करने निकल पड़ा। सामना होने पर घोर संग्राम छिड़ गया।

इधर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की कई बार चेष्टा की, पर असफल रहे। भीम, सात्यकि, नकुल, द्रुपद, विराट और शिखंडी आदि ने उन्हें युधिष्ठिर के पास फटकने भी नहीं दिया। संध्या समय अर्जुन वापस लौटा तो द्रोणाचार्य की सेना का बुरा हाल हो चुका था।

तेरहवें दिन संशप्तकों ने अर्जुन को फिर ललकारा और उसे युद्ध में उलझाकर दक्षिण की ओर ले गए। द्रोणाचार्य यही चाहते थे। दुर्योधन बार-बार उन्हें ताने दे रहा था कि वे अर्जुन के मोह में उसके साथ मन से युद्ध नहीं कर रहे हैं। इसी से उन्हें बेहद क्रोध चढ़ा हुआ था। उसी क्रोध के चलते उन्होंने चक्रव्यूह की रचना की और उस दिन एक पाण्डव को मारने का वचन दुर्योधन को दिया।

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