दुर्योधन का अंत और अश्वत्थामा का प्रतिकार | Duryodhana ka Ant aur Ashwatthama ka Pratikaar | Mahabharat

दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला— “युद्ध का बड़ा शौक है तुम्हें युधिष्ठिर! आओ, एक-एक करके आओ। मैं तुम्हें यमलोक भेजकर ही विश्राम करूंगा।”

दुर्योधन का अंत और अश्वत्थामा का प्रतिकार

जब दुर्योधन को कर्ण की और दुःशासन की मृत्यु का समाचार मिला तो उसके शोक की सीमा न रही। उसके शोक को देखकर कृपाचार्य ने उसे सांत्वना देते हुए कहा– “राजन! राज्य के लोभ में यह युद्ध लड़ा जा रहा है। जो-जो कार्य जिसे सौंपा गया था, उसे अपने प्राणों की आहुति देकर सभी पूरा करते जा रहे हैं। अब तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम पाण्डवों से संधि कर लो युद्ध अब बंद कर दो। यह उचित है।”

Duryodhana ka Ant aur Ashwatthama ka Pratikaar | Mahabharat

हताश दुर्योधन को कृपाचार्य की सलाह जरा भी पसंद नहीं आई। उसने मद्रराज शल्य को सेनापति बनाया और सोलहवें दिन का युद्ध प्रारंभ हुआ। पाण्डवों की सेना का संचालन स्वयं युधिष्ठिर ने ले लिया। दोनों ओर से घोर संग्राम छिड़ गया। युधिष्ठिर के शक्ति बाणों ने शल्य को मार डाला।

सेनापति शल्य के मारे जाते ही कौरव सेना हतोत्साहित हो उठी। फिर भी वह युद्ध करती रही। सहदेव ने गांधार नरेश मामा शकुनि को घेरा और तलवार जैसी पैनी धार वाला बाण उस पर चलाते हुए चीखा— “दुष्ट शकुनि! ले चख अपनी करनी का फल।”

बाण सीधा शकुनि के सिर को काटकर धरती पर जा पड़ा। यह सिर कौरवों के लिए पापों की जड़ के समान था। इस प्रकार एक-एक करके सारे कौरव वीर कुरुक्षेत्र के युद्ध में सदा के लिए सो गए। अब अकेला दुर्योधन, अश्वत्थामा और कृपाचार्य ही बचे थे। दुर्योधन की दशा बड़ी ही दयनीय हो गई थी। उसके पास न रथ था और न सेना थी। दुर्योधन अकेला ही हाथ में गदा लेकर एक जलाशय में जा छिपा। जब सत्रहवें दिन दुर्योधन युद्ध भूमि में दिखाई नहीं दिया तो पाण्डव उसे खोजते हुए जलाशय पर जा पहुंचे। श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ थे।

युधिष्ठिर ने उसे ललकारा– “दुर्योधन! अपने कुटुंब और वंश का नाश कराने के उपरांत अब भयभीत होकर यहां छिपे हो? तुम क्षत्रिय हो। बाहर निकलो और युद्ध करो।”

दुर्योधन व्यथित होकर बोला— “युधिष्ठिर! यह मत समझना कि मैं प्राणों के भय से यहां छिपा बैठा हूं। मैं यहां अपनी थकान मिटा रहा हूं। अब मैं अकेला हूं। राज्य-सुख का मुझे लोभ नहीं रहा। तुम चाहो तो उसे ले लो और उसका उपभोग करो।"

“दुर्योधन! एक दिन तुम हमें सुई की नोंक के बराबर भी भूमि देने को तैयार नहीं थे। आज अपना पूरा राज्य दे रहे हो?” युधिष्ठिर हंसे— “साहस है तो आकर युद्ध करो हमसे। हम पाण्डव भीख में पाए राज्य को नहीं लेते।”

दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला— “युद्ध का बड़ा शौक है तुम्हें युधिष्ठिर! आओ, एक-एक करके आओ। मैं तुम्हें यमलोक भेजकर ही विश्राम करूंगा।”

“पहले तू मुझसे लड़!” भीम गदा उठाए आगे बढ़ा तो दुर्योधन भी गदा उठाए जलाशय से बाहर आ गया।

दोनों के बीच गदा-युद्ध प्रारंभ हो गया। बड़ी देर तक युद्ध होता रहा। दोनों में से कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था, तभी श्रीकृष्ण ने भीम को संकेत करके बताया कि इसकी जंघा पर गदा का प्रहार करो।

संकेत समझकर भीम ने दुर्योधन की जंघा पर करारा प्रहार कर दिया । दुर्योधन कटे वृक्ष की भांति धरती पर गिर पड़ा। भीम ने उन्मत्त होकर दुर्योधन के सिर में लात मार दी।

भीम का यह कार्य देखकर सभी चौंक पड़े। कृष्ण बोले – “भीम! यह तुमने ठीक नहीं किया। दुर्योधन तुम्हारे कुल का बांधव है। तुम अपना प्रतिकार ले चुके । तुम्हारी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई। यह पापी तो स्वयं ही अब अपनी मौत मर जाएगा। अब चलो यहां से।”

कृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन बौखला गया। पीड़ा से तड़पते हुए उसने कहा— “अरे निर्लज्ज कृष्ण! धर्मयुद्ध करने वाले हमारे पक्ष के एक-एक यशस्वी महारथी को तुमने कुचक्र करके मरवा डाला, फिर भी तुझे लज्जा नहीं आती?”

मरणासन्न दुर्योधन के प्रलाप को सुनकर श्रीकृष्ण बोले– “दुर्योधन! क्यों मुझे दोष दे रहे हो? तुम अपने ही किए पापों का फल भोग रहे हो।”

“नहीं! मैंने जब कुछ किया ही नहीं, तब मैं कैसे अपने पापों का फल भोग रहा हूं?” दुर्योधन बोला— “तुम कहते हो कि तुम ही समस्त जीवों में विद्यमान हो। जो भी भला-बुरा, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य करते हो, तुम ही करते हो। जीवन और मृत्यु का चक्र भी तुम्हारा है। फिर मैंने यह सब कहां किया? जो किया तुमने ही किया। फल भी तुम ही भोगोगे मैं नहीं।”

श्रीकृष्ण मुस्कराए और आगे बढ़ गए। पाण्डव भी उसे छोड़कर चले गए, तभी श्रीकृष्ण के बड़े भाई हलधर बलराम तीर्थ यात्रा से वापस लौटकर आ गए। कुरुक्षेत्र का युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ था। बलराम को पता चला कि भीम ने दुर्योधन की जांघ पर गदा प्रहार किया था तो उन्हें क्रोध आ गया। भीम और दुर्योधन दोनों ही उनके शिष्य थे। भीम को देखकर वे क्रोध में भरकर बोले–“भीम! तुम पर धिक्कार है, जो तुमने कमर से नीचे गदा का प्रहार किया। यह गदा-युद्ध के नियमों के विरुद्ध है।"

भीम ने अपना शीश झुका लिया। श्रीकृष्ण ने बलराम को समझा-बुझाकर शांत किया। उन्होंने समझाया "भैया! कलियुग का प्रारंभ हो रहा है। इस युग में अन्याय का प्रतिकार अन्याय ही माना जाएगा। दुर्योधन के द्वारा किए गए छल-प्रपंचों के बदले यदि भीमसेन ने कटि के नीचे गदा प्रहार कर दिया तो अधर्म कैसे कहा जा सकता है?"

श्रीकृष्ण के समझाने पर और शांत होने पर भी बलराम का हृदय मीम की ओर से साफ नहीं हुआ। वे वहां से चले गए। जाते-जाते कहते गए कि जहां ऐसे अन्याय हुए हों, वहां वे एक पल भी नहीं ठहर सकते।

दुर्योधन पर जो बीती उसका हाल सुनकर अश्वत्थामा का हृदय व्याकुल हो उठा। मारे क्रोध के उसका कलेजा जलने लगा। वह वहां पहुंचा, जहां उसका मित्र दुर्योधन मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। दुर्योधन की दशा देखकर अश्वत्थामा ने प्रण किया कि आज रात वह पाण्डवों का वंश बीज नष्ट कर डालेगा।

दुर्योधन ने प्रसन्न होकर अश्वत्थामा को बचे-खुचे कौरवों का सेनानायक घोषित कर दिया। वह बोला— “मित्र अश्वत्थामा! यदि ऐसा तुम कर पाए तो मेरे हृदय को शांति मिलेगी और मैं चैन से मर सकूंगा।"

आधी रात को अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा, तीनों पाण्डवों के शिविर में पहुंचे। सभी सैनिक सोए पड़े थे। अश्वत्थामा सबसे पहले द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के शिविर में घुसा और सोए पड़े धृष्टद्युम्न के ऊपर चढ़कर उन्मत्त की भांति कूदने लगा। अश्वत्थामा ने अपने पैरों से कुचलकर ही धृष्टद्युम्न को यमलोक पहुंचा दिया। उसके बाद वह द्रोपदी के पुत्रों के खेमों में गया और एक-एक करके उन्हें भी यमलोक पहुंचा दिया।

कृपाचार्य और कृतवर्मा भी इस हत्याकाण्ड में अश्वत्थामा के साथ थे। यह कुकर्म करके उन्होंने पाण्डवों के शिविर में आग लगा दी। आग तेजी से भड़क उठी और सारे शिविर में फैल गई। सोए सैनिक जाग गए और इधर-उधर भागने लगे। सैकड़ों सैनिक आग की भेंट चढ़ गए।

तीनों ने लौटकर दुर्योधन को यह शुभ समाचार सुनाया— “राजन! हमने सारे पांचालों और द्रोपदी के सारे पुत्रों को मार डाला। पाण्डवों की सेना आग में जलकर तहस-नहस हो गई।"

दुर्योधन यह समाचार सुनकर अति प्रसन्न हुआ और बोला– “गुरु भाई! आपने मेरे कारण जो कार्य किया है, उसे भीष्म पितामह और महावीर कर्ण भी नहीं कर सके। आपका यह प्रतिकार मेरे लिए अत्यन्त शुभ है। अब में शांति के साथ प्राण त्याग सकूंगा।" इतना कहकर दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए।

अट्ठारहवें दिन शोक विह्वल द्रोपदी की दशा देखकर पांचों पाण्डव क्रोध में भरे हुए अश्वत्थामा की खोज में निकले। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते गंगा के तट पर व्यास के आश्रम में उन्होंने अश्वत्थामा का पता लगा ही लिया। उन्हें देखकर अश्वत्थामा घबरा गया। भीम और अश्वत्थामा के बीच द्वंद युद्ध हुआ। अश्वत्थामा पराजित हो गया। अपनी पराजय के चिन्हस्वरूप अश्वत्थामा ने अपने माथे की दिव्य मणि निकालकर भीम को सौंप दी और वन में जाने की अनुमति मांगी।

तब श्रीकृष्ण ने उससे कहा– “अश्वत्थामा! तूने जो जघन्य पाप किया है, उसके लिए तू सदैव व्याकुल होकर भटकता रहेगा। तेरी मृत्यु नहीं होगी और तेरे माथे का यह घाव सदा रिसता रहेगा।”

अश्वत्थामा ने कुछ नहीं कहा। गहरे आत्मपश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ वह वन में चला गया।

युद्ध समाप्त हो गया। हस्तिनापुर का सारा नगर निःसहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के रोने-कलपने की हृदय विदारक चीखों से गूंजता रहा। युद्ध भूमि में शृगाल और कुत्ते बे रोक-टोक घूम रहे थे और लाशों को नोच-नोचकर खा रहे थे। उन्हें खींच रहे थे। कुरुक्षेत्र की धरती खून से लाल हो गई थी। चील, कौए और गिद्ध लाशों पर से मांस नोचते-खसोटते इधर-से-उधर उड़ रहे थे।

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