नियोजन का अर्थ, विशेषताएँ, महत्त्व, प्रकार, सिद्धान्त एवं आवश्यकता | Meaning, Charateristics, Importance, Types, Principles and Need of Planning in hindi
नियोजन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Planning)
नियोजन प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिसके अन्तर्गत भावी परिस्थितियों व आवश्यकताओं का अनुमान लगाकर पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए श्रेष्ठतम वैकल्पिक कार्यपक्ष का चयन किया जाता है। दूसरे शब्दों में नियोजन वह प्रक्रिया है जिसमें इस बात का पूर्व निर्धारण किया जाता है कि संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु भविष्य में कौन-कौन से कार्य कब और किसके द्वारा सम्पन्न किए जाएंगे।
हॉज एवं जॉनसन के अनुसार, "नियोजन भविष्य का पूर्वानुमान लगाने का प्रयास है ताकि श्रेष्ठ निष्पादन प्राप्त हो सके।"
मेरी कुशिंग नाइल्स के अनुसार, "नियोजन के अन्तर्गत इस बात को शामिल किया जाता है कि क्या, कैसे, कब और कहाँ करना है।"
शिक्षा में नियोजन की आवश्यकता (Need for Planning in Education)
नियोजन के सभी कार्यों में उत्तर निष्पादन की सम्भावना निहित है। शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में नियोजन से प्रभावशाली विनिश्चयीकरण तथा अधिक सन्तोषजनक परिणामों की सुनिश्चितता बढ़ जाती है। शिक्षा में नियोजन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण क्रिया है क्योंकि यह शिक्षा में परिमाणात्मक एवं गुणात्मक सुधार के कार्यक्रमों को आधार प्रदान करती है। भारत एक लोकतन्त्रात्मक गत्यात्मक तथा विकासशील देश है। यह व्यवस्थित रूप में राष्ट्र का सामाजिक राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक विकास के कार्य में लगा हुआ है। ऐसा केवल नियोजन की तकनीकी एवं उपागमों को अपनाकर ही किया जा सकता है।
नियोजन के लक्षण अथवा विशेषताएँ (Characteristics of planning)
नियोजन के लक्षण या विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-
1. नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है:- नियोजन एक वौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें नियोजनकर्ता को विभिन्न विकल्पों में से एक सर्वोत्तम विकल्प का चयन करना होता है। ऐसे चयन के लिए नियो नकर्ता विश्लेषण करना होता है जिसमें विवेक, दूरदर्शिता एवं विश्लेषण शक्ति का होना आवश्यक है। यदि नियोजनकर्त्ता में सृजनात्मक और कल्पना शक्ति नहीं होगी तो वह प्रभावी नियोजन नहीं कर सकेगा। नियोजन बौद्धिक या मानसिक प्रक्रिया इसलिए है, क्योंकि वह सम्भावित घटनाओं की भावी मानसिक तस्वीर पहले से ही चित्रित कर लेता है।
2. नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है:- नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है, क्योंकि नियोजन के पूरा होने के पश्चात् ही प्रबन्ध के अन्य कार्यों की शुरुआत होती है। इस प्रकार प्रबन्ध के अन्य कार्य संगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन, नियन्त्रण आदि नियोजन पर ही आधारित होते हैं। वास्तव में प्रबन्ध के प्रत्येक कार्य में भी योजना बनाने की आवश्यकता होती है। बिना योजना के न तो संगठन ही बनाया जा सकता है और न ही नियुक्तियों की जा सकती हैं, निर्देश भी योजना के अनुसार दिए जाते हैं और नियन्त्रण में नियोजन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की वास्तविक लक्ष्यों से तुलना की जाती है।
3. नियोजन सर्वोत्तम विधि का चुनाव है:- किसी कार्य को करने की अनेक विधियां होती हैं। इन विधियों में से सर्वोत्तम विधि का चुनाव करना नियोजन का एक प्रमुख लक्षण होता है। कार्य को करने को वैकल्पिक पद्धतियाँ, नीतियाँ एवं प्रणालियाँ होती है और नियोजन में इनमें से सर्वोत्तम तरीके का चुनाव किया जाता है।
4. नियोजन का उद्देश्य लक्ष्य प्राप्ति करना है:- प्रत्येक संस्था के कुछ निश्चित उद्देश्य व लक्ष्य होते है और नियोजन इन निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है। कोई भी योजना बनाते समय संस्था के लक्ष्यों को ध्यान में रखा जाता है। किसी भी योजना को तभी सफल माना जाता है जब वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति कम खर्च और अधिक आय देकर करें।
5. नियोजन समस्त प्रबन्धकीय कार्यों में व्याप्त है:- संगठन के उच्चतर व निम्नतर स्तरों पर नियोजन की आवश्यकता होती है। कम्पनी के अध्यक्ष से लेकर साधारण फोरमैन तक सभी व्यक्तियों को योजना बनानी पड़ती है। प्रबन्ध का प्रत्येक कार्य योजना बनाने से हो आरम्भ होता है।
6. नियोजन एक लोचपूर्ण प्रक्रिया है:- नियोजन एक लोचपूर्ण प्रक्रिया है। भविष्य के अनिश्चित होने के कारण, बदली परिस्थितियों के अनुसार ही योजना में परिवर्तन करना पड़ता है। वह नियोजन सफल होता है जो परिवर्तनों को शीघ्र पहचान सके और परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार न्यूनतम लागत में अपनी योजना बना ले।
7. नियोजन एक निरन्तर प्रक्रिया है:– नियोजन, प्रबन्ध की एक कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया है। एक योजना के समाप्त होने पर दूसरी योजना आरम्भ हो जाती है, प्रति क्षण व्यवसाय में कोई-न-कोई निर्णय लेना होता है जो कि नियोजन ही है। नियोजन का कार्य उसी समय समाप्त होता है जब किसी कारण से संस्था को ही समाप्त कर दिया जाए। कूण्ट्ज एवं ओ 'डोनेल के अनुसार, “निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यह जरूरी है कि प्रभावी नियोजन का कार्य लगातार चलता रहे।"
8. नियोजन एक परस्पर आश्रित प्रक्रिया है:- प्रत्येक उपक्रम में कई विभाग होते हैं; जैसे-उत्पादन विभाग, क्रय विभाग, विक्रय विभाग, कर्मचारी विभाग आदि। यद्यपि इन सब विभागों की अलग-अलग योजनाएं होती हैं परन्तु ये योजनाएं एक विस्तृत योजना (Master Plan) का अंग होती हैं और आपस में एक-दूसरे पर निर्भर होती है। उदाहरण के लिए, विक्रय बढ़ने पर उत्पादन भी बढ़ाना होगा, क्रय भी अधिक करना होगा और कर्मचारी भी अधिक रखने होंगे।
नियोजन के तत्व (Elements of Planning)
1. कार्यक्रम:— किसी कार्य को संपन्न करने की योजना को कार्यक्रम कहा जाता है कार्यक्रम एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयासों की एक श्रेणी है जो क्रम में व्यवस्थित होते हैं।
2. नीतियां:— लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जिन सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाता है वह सिद्धांत ही नीतियां कहलाती हैं। नीतियां प्रबंध क्रियाओं का मार्गदर्शन करती है।
3. बजट:— बजट भविष्य के लिए खर्चों का पूर्वानुमान होते हैं। बजट बन जाने से खर्चों को नियंत्रित एवं नियमित किया जा सकता है। बजट भविष्य की आवश्यकताओं का अनुमान है जो व्यक्तियों द्वारा लगाया जाता है और एक निश्चित समय में एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करने का स्पष्टीकरण देता है। यह भविष्य की योजनाएं होती हैं इसके बनने के बाद ही विभिन्न भागों के क्रियाकलापों की सीमा निश्चित हो जाती है।
4. मोर्चाबंदी:— मोर्चाबंदी एक व्यवहारिक योजना है जिसमें प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखकर योजना बनाई जाती है। कार्यक्रम के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयासों की एक श्रेणी है जो प्राथमिकता के क्रम में व्यवस्थित होते हैं।
5. लक्ष्य:— लक्ष्य नियोजन का आधार होते हैं, इन्हें परिणामों की प्राप्ति के लिए भविष्य की समस्त क्रियाएं लिखी जाती हैं। लक्ष्यों के द्वारा हमें क्या करना है, का ज्ञान होता है।
नियोजन के प्रकार (Type of Planning)
नियोजन समान तथा विभिन्न समयावधि व उद्देश्यों के लिए किया जाता है इस प्रकार नियोजन के प्रमुख प्रकार हैं-
1. दीर्घकालीन नियोजन:- जो नियोजन एक लम्बी अवधि के लिये किया जाए उसे दीर्घकालीन नियोजन कहते हैं। दीर्घकालीन नियोजन, दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। जैसे पूंजीगत सम्पत्तियों की व्यवस्था करना, कुशल कार्मिकों की व्यवस्था करना, नवीन पूंजीगत योजनाओं को कार्यान्वित करना, स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा बनाये रखना आदि।
2. अल्पकालीन नियोजन:- यह नियोजन अल्पअवधि के लिये किया जाता है। इसमें तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति पर अधिक बल दिया जाता है। यह दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, तिमाही, छमाही या वार्षिक हो सकता है।
3. भौतिक नियोजन:- यह नियोजन किसी उद्देश्य के भौतिक संसाधनों से सम्बन्धित होता है। इसमें उपक्रम के लिए भवन, उपकरणों आदि की व्यवस्था की जाती है।
4. क्रियात्मक नियोजन:- यह नियोजन संगठन की क्रियाओं से सम्बन्धित होता है। यह किसी समस्या के एक पहलू के एक विशिष्ट कार्य से सम्बन्धित हो सकता है। यह समस्या, उत्पादन, विज्ञापन, विक्रय, बिल आदि किसी से भी सम्बन्धित हो सकता है।
5. स्तरीय नियोजन:- यह नियोजन ऐसी सभी सगंठनों में पाया जाता है जहॉं कुशल प्रबन्धन हेतु प्रबंध को कई स्तरों में विभाजित कर दिया जाता है यह उच्च स्तरीय, मध्यस्तरीय तथा निम्नस्तरीय हो सकते हैं।
6. उद्देश्य आधारित नियोजन:- इस नियोजन में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नियोजन किया जाता है जैसे सुधार योजनाओं का नियोजन, नवाचार योजना का नियोजन, विक्रय सम्वर्द्धन नियोजन आदि।
नियोजन के सिद्धान्त (Principles of Planning)
नियोजन करते समय हमें विभिन्न तत्वों पर ध्यान देना होता है। इसे ही विभिन्न सिद्धान्तों में वर्गीकृत किया गया है। दूसरे शब्दों में नियोजन में निम्नलिखित सिद्धान्तों पर ध्यान देना आवश्यक है-
1. प्राथमिकता का सिद्धान्त:- यह सिद्धानत इस मान्यता पर आधारित है कि नियोजन करते समय प्राथमिकताओं का निर्धारण किया जाना चाहिए और उसी के अनुसार नियोजन करना चाहिए।
2. लोच का सिद्धान्त:- प्रत्येक नियोजन लोचपूर्ण होना चाहिए। जिससे बदलती हुई परिस्थितियों में हम नियोजन में आवश्यक समायोजन कर सकें।
3. कार्यकुशलता का सिद्धान्त:- नियोजन करते वक्त कार्यकुशलता को ध् यान में रखना चाहिए। इसके तहत न्यूनतम प्रयत्नों एवं लागतों के आधार पर संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहयोग दिया जाता है।
4. व्यापकता का सिद्धान्त:- नियोजन में व्यापकता होनी चाहिए।नियोजन प्रबन्ध के सभी स्तरों के अनुकूल होना चाहिए।
5. समय का सिद्धान्त:- नियोजन करते वक्त समय विशेष का ध्यान रखना चाहिए जिससे सभी कार्यक्रम निर्धारित समय में पूरे किये जा सकें एवं निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
6. विकल्पों का सिद्धान्त:- नियोजन के अन्तगर्त उपलब्ध सभी विकल्पों में से श्रेष्ठतम विकल्प का चयन किया जाता है जिससे न्यूनतम लागत पर वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।
7. सहयोग का सिद्धान्त:- नियोजन हेतु सगंठन में कायर्रत सभी कामिर्कों का सहयोग अपेक्षित होता है। कर्मचारियों के सहयोग एवं परामर्श के आधार पर किये गये नियोजन की सफलता की सम्भावना अधिकतम होती है।
8. नीति का सिद्धान्त:- यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए ठोस एवं सुपरिभाषित नीतियॉं बनायी जानी चाहिए।
9. निरन्तरता का सिद्धान्त:- नियोजन एक गतिशील तथा निरन्तर जारी रहने वाली प्रक्रिया है। इसलिये नियोजन करते समय इसकी निरन्तरता को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिये।
10. मूल्यांकन का सिद्धान्त:- नियोजन हेतु यह आवश्यक है कि समय समय पर योजनाओं का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जिससे आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक दिशा परिवर्तन किया जा सके।
11. सम्प्रेषण का सिद्धान्त:- प्रभावी सम्प्रेषण के माध्यम से ही प्रभावी नियोजन सम्भव है।नियोजन उसके क्रियान्वयन, विचलन, सुधार आदि के सम्बन्ध में कर्मचारियों को समय समय पर जानकारी दी जा सकती है और सूचनायें प्राप्त की जा सकती हैं।
प्रबन्ध में नियोजन का महत्त्व (Importance of Planning in Management)
जीवन में जो महत्त्व दिनचर्या का होता है प्रबन्ध में वही महत्व नियोजन का है। जिस प्रकार बिना दिनचर्या के जीवन महत्त्वहीन हो जाता है उसी प्रकार बिना पूर्व योजना बनाए कोई भी संस्था उद्देश्यविहीन रह जाती है। नियोजन वह प्रक्रिया है जो संस्था के उद्देश्यों को निर्धारित करती है तथा निर्धारित किए गए उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कार्यक्रम को भावी रूपरेखा तैयार करती है। व्यवसाय में नियोजन का महत्व निम्नलिखित से अधिक स्पष्ट होता है-
1. भावी अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए:- भविष्य की अनिश्चितताएँ व्यवसाय में नियोजन को आवश्यक बनाता है। वास्तविक प्रबन्ध भूतकालीन घटनाओं के आधार पर वर्तमान परिस्थितियो एवं प्रवृत्तियों का अध्ययन तथा विश्लेषण करके भविष्य के पूर्वानुमान लगाता है तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योजना तैयार करता है।
2. उद्देश्यों का स्पष्टीकरण:- नियोजन उद्देश्यों के स्पष्टीकरण पर जोर देता है ताकि योजनाएँ इन्हीं को पूर्ति के लिए बनाई जाएं। एक बार उद्देश्य निर्धारित हो जाने के पश्चात् प्रबन्धक कोई भी निर्णय लेते समय सदैव इनका ध्यान रखता है।
3. प्रबन्धकीय कार्यों में समन्वय:- नियोजन से विभिन्न विभागों के प्रवन्धकों के कार्यों में समन्वय स्थापित होता है, जिससे एक विभाग के हित दूसरे विभागों से नहीं टकराते और सभी विभाग कदम से कदम मिलाकर एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
4. संचालन में मितव्ययिता:- नियोजन संस्था के उद्देश्यों को कम-से-कम लागत द्वारा प्राप्त करने का साधन है, क्योंकि इसका उद्देश्य ही कार्य को सर्वश्रेष्ठ ढंग से पूरा करने के लिए एक रूपरेखा तैयार करना होता है। यह मितव्ययिता क्रय-विक्रय, उत्पादन, वित्त-प्रबन्ध, कर्मचारी व्यवस्था आदि में प्राप्त होती है।
5. नियन्त्रण में सहायता:- नियोजन के द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि कौन-सा विभाग किस कार्य को कब और किस प्रकार करेगा किस कार्य के लिए कितना समय लगेगा तथा उस पर कितना व्यय किया जाएगा। इस प्रकार नियोजन प्रवन्धकीय नियन्त्रण को सुदृढ़ बनाने में अपना योगदान करता है।