पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) की संरचना एवं प्रमुख कार्य

एक जिला पंचायत अथवा जिला परिषद् जिले का अन्तिम पड़ाव है, प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् होती है। ठीक इसी प्रकार क्षेत्र (ब्लॉक) पंचायत अथवा पंचायत

पंचायती राज संस्थाओं की संरचना (Composition of Panchayati Raj Institutions)

भारत के राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं की मूल संरचना यद्यपि स्पष्ट है फिर भी यह विभिन्न राज्यों में विभिन्न नामों से जानी जाती है। प्रत्येक राज्य में पंचायत की अपनी विशेषताएँ हैं यहाँ तक कि इन संस्थाओं की चुनाव प्रक्रिया भी भिन्नता रखती है। एक जिला पंचायत अथवा जिला परिषद् जिले का अन्तिम पड़ाव है, प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् होती है। ठीक इसी प्रकार क्षेत्र (ब्लॉक) पंचायत अथवा पंचायत समिति कथित जिले के ब्लॉक का अन्तिम पड़ाव है।

1. ब्लॉक (Block)

एक ब्लॉक में अनेक गाँव होते हैं। परन्तु ग्राम पंचायत गाँव का अन्तिम पड़ाव नहीं है, क्योंकि यह इसके जनसंख्या के आकार पर निर्भर करता है, अर्थात् वहाँ मतदाताओं की संख्या कितनी है, इस बात पर भी निर्भर करता है। एक गाँव को नियमानुसार एक भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ा जाता है। एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र एक गाँव कहलाता है अथवा निकटवर्ती गाँव को मिलाकर एक समूह के रूप में जोड़ दिया जाता है और फिर पंचायत के सदस्यों का चयन किया जाता है।

2. जिला पंचायत (Zila Panchayat)

जिला पंचायत के अन्तर्गत प्रत्येक क्षेत्र पंचायत (Block) से एक/दो/तीन सदस्यों का चुनाव सीधे प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। यह मतदाताओं की संख्या पर निर्भर करता है कि कितने सदस्यों का चयन किया जाए। सभी ब्लॉक पंचायत के अध्यक्ष जिला परिषद् के एक्स आफिसिओ (Ex-officio) सदस्य भी होते हैं। कुछ राज्यों में विधान सभा क्षेत्र के एम०एल०ए० अथवा एम०पी० भी (Ex-officio) सदस्य होते हैं।

3. ब्लॉक पंचायत अथवा पंचायत समिति (Block Panchayat or Panchayat Samiti)

एक ब्लॉक पंचायत के अन्तर्गत प्रत्येक ग्राम पंचायत एक, दो अथवा तीन सदस्यों का चयन प्रत्यक्ष रूप से करते हैं। ये सदस्य ब्लॉक पंचायत के लिए चुने जाते हैं। इस ब्लॉक पंचायत का (Ex-officio) सदस्य ग्राम पंचायत का प्रधान होता है।

4. ग्राम पंचायत (Gram Panchayat)

नियमों के अन्तर्गत परिभाषित ग्राम का समूह बद (eluster), ग्राम (जो मतदाताओं की संख्या पर निर्भर करता है) को पाँच (Constituencies) में बांटा जाता है। (यह भी मतदाता सदस्यों की संख्या पर निर्भर करता है) इन प्रत्येक (Consituency) में एक सदस्य का चयन किया जाता है। इन चयनित सदस्यों की (Body) को ग्राम पंचायत कहा जाता है। प्रत्येक राज्य में ग्राम पंचायत का आकार भिन्न भिन्न होता है। कुछ राज्य; जैसे-पश्चिम बंगाल, केरल राज्यों में ग्राम पंचायत में औसतन 20 हजार व्यक्ति होते हैं जबकि बहुत से अन्य राज्यों से यह संख्या केवल लगभग 3000 है।

5. ग्राम सभा (Gram Sabha)

अधिकांश राज्यों में प्रत्येक (Constituency) के ग्राम पंचायत के सदस्यों को ग्राम सभा कहा जाता है और उस (Constituency) के सभी मतदाता इसके सदस्य कहे जाते हैं जबकि कुछ राज्यों में इसे वार्ड सभा (Ward-sabha) या पाली सभा (Palli sabha) कहा जाता है। पश्चिमी बंगाल में इसे ग्राम संसद (Village Parliament) कहा जाता है। यही ग्राम पंचायत के सभी मतदाता ग्राम सभा का गठन करते हैं।

ग्राम सभा की सामान्यत: वर्ष में 2 या 4 बार मीटिंग होती है। लेकिन जब भी आवश्यक हो तब कभी भी बुलाई जा सकती है। कुछ राज्यों में इनकी तिथियाँ निश्चित होती हैं, जैसे- मध्य प्रदेश, गुजरात आदि जबकि दूसरे राज्यों में यह तिथि ग्राम पंचायत द्वारा निश्चित की जाती है। मीटिंग में बहस के मुद्दे बहुत विस्तृत हो सकते हैं लेकिन आवश्यक एजेण्डा सम्मिलित किया जात है, जैसे-वार्षिक एक्शन प्लान और बजट, ग्राम पंचायत की वार्षिक वित्त और वार्षिक रिपोर्ट, सुविधा पाने वालों का चयन, विभिन्न सामाजिक सेवा कार्यक्रम (इन्दिरा आवास योजना, IAY), पेन्सन स्कीम आदि।

पंचायती राज संस्था का इतिहास (History of Panchayati Raj Institution)

भारत में ब्रिटिश शासनकाल में लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव दिया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रान्तों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तान्तरित विषयों की सूची में रखा गया। स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1957 में योजना आयोग द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1953) के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था- ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं ज़िला स्तर लागू करने का सुझाव दिया।

वर्ष 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की तथा 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा देश की पहली त्रि-स्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया गया। वर्ष 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर पर), पंचायत समिति (मध्यवर्ती स्तर पर) और ज़िला परिषद (ज़िला स्तर पर) शामिल हैं।

पंचायत के कार्य (Functions of Panchayat)

पंचायत के कार्यों को हम निम्नलिखित रूप से समझ सकते हैं-

  1. संविधान के अनुसार पंचायत अपने क्षेत्र में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनाएँ बना सकती हैं और उन्हें क्रियान्वित कर सकती है।
  2. इन कार्यों के सम्पादन के लिए राज्य वित्त आयोग की स्वीकृति के आधार पर वित्त (Funds) उपलब्ध करा सकती है।
  3. पंचायत के कार्य विभिन्न समितियों में बंटे होते हैं। इन समितियों को (राज्य और संघ सरकार में मन्त्रियों के द्वारा निर्मित) स्थायी समितियाँ (Standing Committees) या उप समितियां कहा जाता है।
  4. इनमें प्रत्येक समिति का एक सदस्य इन्चार्ज रहता है। जबकि पंचायत का सम्पूर्ण चार्ज चेयरपर्सन पर रहता है।
  5. वित्त आयोग की अनुमति के अनुसार सरकार से प्राण्ट (Grants) प्राप्त करके पंचायत योजनाओं को लागू करने के लिए उपयुक्त फण्ड (Funds) प्राप्त करती है।
  6. पंचायत राज्य सरकार के नियमानुसार टेक्स, फीस, पेनल्टी, आदि के द्वारा रेवन्यु (Revenue) एकत्रित कर सकती है।
  7. पंचायत को अधिकारी द्वारा सपोर्ट (Supports) किया जाता है और इसमें अधिकारियों की संख्या प्रत्येक राज्य में भिन्न-भिन्न होती है।

पंचायती राज संस्थाओं की ग्रामीण विकास में भूमिका (Role of Panchayati Raj Institutions in Rural Development)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार का मुख्य उद्देश्य देश का सम्पूर्ण विकास करना है। विकास की दृष्टि से शीघ्र ही कृषि, उद्योग एवं संचार के विकास पर ध्यान दिया गया है। इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को सम्मिलित किया गया है। लेकिन यह महसूस किया गया कि देश का सम्पूर्ण विकास तभी सम्भव है, जबकि गाँव का विकास हो। इस बात को ध्यान में रखते हुए पंचायती राज संस्थाओं को भारतीय संविधान में 73वें संशोधन (73rd Amendment Act. 1992) के द्वारा स्थान दिया गया और सम्पूर्ण विकास को गति प्रदान की गई।

पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका को हम निम्नलिखित रूप से समझ सकते हैं-

  1. ग्रामीण विकास के अन्तर्गत समाज की लोकतन्त्रीय संरचना को शक्तिशाली बनाने का कार्य सम्मिलित किया गया और इस कार्य को पूर्ण करने के लिए पंचायती राज संस्थाओं को माध्यम बनाया गया।
  2. पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से ग्रामीण विकास के नये आयाम जोड़े गए। इसके अन्तर्गत ग्रामीण ढाँचागत विकास (Rural Infrastructure), ग्रामीण परिवारों की आय में वृद्धि और शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की उचित व्यवस्था को सम्मिलित किया गया।
  3. ग्रामीण भारत के विकास के लिए भारत सरकार ने अनेक कदम उठाए है और इसके लिए ग्रामीण विकास विभाग की स्थापना की गई है। यह विभाग ग्रामीण विकास मन्त्रालय के नियन्त्रण में कार्य करेगा। इस प्रकार पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है।
  4. पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से इस विभाग ने विकास की विभिन्न योजनाएँ प्रारम्भ की है। इन योजनाओं में मुख्यतः सम्पूर्ण स्वच्छ अभियान, ग्राम विकास योजना, किसान बाजार (Farmer market) और लाइव स्टॉक मार्केट (Live stock market) आदि प्रारम्भ किए गए हैं। इसके अलावा जमीन के अन्दर नाली व्यवस्था (Drainage system under ground) को भी सम्मिलित किया गया है।
  5. इन स्कीमों के माध्यम से भारत सरकार ग्रामीण विकास के सपने को पूर्ण करने का प्रयास कर रही है। इस विकास में पंचायती राज संस्थाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
  6. यद्यपि इन योजनाओं को पूर्ण करने में कुछ कमियाँ नजर आ रही हैं। आवश्यकता है इन कमियों को दूर करने की और पंचायती राज संस्थाओं को शक्तिशाली बनाकर विकास को गति देने की।
  7. पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण विकास को गति देने से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। आवश्यकता है सही व्यवस्था और सही दिशा देकर प्रभावी नियन्त्रण की।

इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण विकास का आधार है। इनकी भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इन्हें और अधिक शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता है।

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