पाण्डवों का अज्ञातवास और कीचक वध | Pandavon ka Agyatvaas aur Keechaka Vadh | Mahabharat

वनवास में एक दिन उसकी दृष्टि सैरन्ध्री बनी द्रोपदी पर पड़ी तो वह उसे पाने के लिए लालायित हो उठा। उसने कई बार उसके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो

पाण्डवों का अज्ञातवास और कीचक-वध

गहन वन में पहुंचकर पाण्डव आगे के कार्यक्रम पर विचार करने लगे। सभी ने तय किया कि मत्स्य देश में राजा विराट के विराट नगर में जाकर रहना ठीक होगा। वह नगर बहुत ही सुंदर और समृद्ध है। मत्स्य देश का राजा विराट शक्ति सम्पन्न है और दुर्योधन का विरोधी भी है। उसके यहां छिपकर छद्मवेश में रहा जा सकता है।

Pandavon ka Agyatvaas aur Keechaka Vadh | Mahabharat

परस्पर तय करके सभी विराट नगर पहुंचे और सभी ने अपने-अपने अनुसार अपना छद्म रूप धारण कर लिया। युधिष्ठिर ने संन्यासी का वेश बनाया और कंक नाम से राजा के पास पहुंचा। युधिष्ठिर ने कहा- “राजन! मेरा नाम कंक है। मैं ज्योतिषी हूं। वेद-वेदांगों का मुझे ज्ञान है। मैं युधिष्ठिर का मित्र रह चुका हूं और चौपड़ खेलने में माहिर हूं। मैं आपकी सेवा में आना चाहता हूं।"

विराट ने उसे अपनी सेवा में रख लिया। इसी प्रकार भीम विराट के रसोइया बल्लभ बन गए और अर्जुन बृहन्नला के स्त्री रूप में रनवास की स्त्रियों को नाच-गाना सिखाने लगे। विशेषकर विराट की कन्या उत्तरा को। द्रोपदी सैरन्ध्री के नाम से विराट की पत्नी सुदेष्णा की दासी बन गई। नकुल, ग्रंथिक के रूप में राजा की अश्वशाला में घोड़ों की नस्ल सुधारने के काम पर लग गए और सहदेव, तंतिपाल नामक ग्वाला बनकर गाय-बैलों की देखभाल के काम पर राजा की गऊशाला को संभालने लगे।

राजा की सेवा में जाने से पहले पाण्डवों ने अपने अस्त्र-शस्त्र नगर के बाहर एक शमी वृक्ष पर छिपाकर रख दिए थे। सारा काम बड़ी सफाई से निबट गया था। किसी को जरा भी शक नहीं हो सका था कि वे पांचों कुरुवंश के महानायक हैं और द्रोपदी पांचाल नरेश की पुत्री है। समय आराम से कट रहा था, परंतु बीच-बीच में व्यवधान पड़ जाते थे। रानी सुदेष्णा का भाई कीचक बड़ा बलिष्ठ और वीर था। मत्स्य देश की सेना का वही नायक था। कीचक की धाक दूर-दूर तक फैली हुई थी। इसी से वह अत्यन्त अहंकारी और चरित्रहीन था।

वनवास में एक दिन उसकी दृष्टि सैरन्ध्री बनी द्रोपदी पर पड़ी तो वह उसे पाने के लिए लालायित हो उठा। उसने कई बार उसके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो द्रोपदी कुंठित हो उठी, परंतु संकोच के कारण वह किसी से कुछ नहीं कह सकी।

अपनी इच्छापूर्ति के लिए पहले कीचक ने अपनी बहन सुदेष्णा का सहारा लियो पर कामयाब नहीं हो सका। जब उसने सैरन्ध्री को ज्यादा परेशान किया तो उसने अपने मन की व्यथा भीम को बताई। भीम ने उसे चालाकी से नृत्यशाला में बुलाने के लिए कहा। सैरन्ध्री ने उसे रात्रि में मिलने के लिए नृत्यशाला में बुलाया। कीचक सजधज कर रात्रि में नृत्यशाला में पहुंचा। वहां भीम ने उसे पकड़ लिया। दोनों में मल्लयुद्ध हुआ। कीचक भी कम बलवान नहीं था, परंतु अंत में भीम ने कीचक को मार डाला और उसका शव नृत्यशाला में फेंककर चला गया।

कीचक-वध का समाचार प्रातः होते ही सारे राज्य में जंगल की आग की भांति फैल गया। उसे किसने मारा? यह पता नहीं चल सका। रानी सुदेष्णा को शक अवश्य हुआ कि सैरन्ध्री के गंधर्व पति ने कीचक की हत्या की है। कीचक-वथ की खबर हस्तिनापुर पहुंची तो दुर्योधन को शक हुआ कि कीचक जैसे बलशाली सेनानायक की हत्या या तो बलराम कर सकते हैं या फिर भीम।

पाण्डवों के बारह वर्ष का वनवास पूरा होने के बाद से ही दुर्योधन अपने गुप्तचरों से उनकी खोज करा रहा था, ताकि अज्ञातवास में उन्हें खोजकर फिर से बारह वर्ष के लिए वन में भेजा जा सके, परंतु वह सफल नहीं हो रहा था। कीचक-बध से उसे आशा बंधी कि हो-न-हो यह भीम का ही काम है, क्योंकि बलराम का कीचक से कोई बैर-भाव नहीं था।

कर्ण और शकुनि से परामर्श करके दुर्योधन विराट नगर पर आक्रमण करने चल पड़ा। वहां पहुंचकर उसके अनुचरों ने विराट की हजारों गायों का अपहरण कर लिया और उन्हें हस्तिनापुर ले जाने लगा। इस प्रकार विराट से युद्ध करने का यह खुला निमंत्रण था। सारे ग्वाले, विराट के पुत्र उत्तर के पास पहुंचकर दुहाई देने लगे। हस्तिनापुर की विराट सेना का समाचार सुनकर राजकुमार उत्तर घबरा गया। वह उससे युद्ध करना नहीं चाहता था, परंतु द्रोपदी के समझाने पर वह बृहन्नला को अपना सारथी बनाकर रणक्षेत्र में जा पहुंचा, किंतु रणक्षेत्र में कौरवों की सेना देखकर उसके छक्के छूट गए। वह रणक्षेत्र छोड़कर भागने लगा। तब बृहन्नला ने उसे समझाया और श्मशान में शमी वृक्ष के पास पहुंचे। वहां शमी वृक्ष से उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र उतारे। उन्हें देखकर उत्तर चौका। तब बृहन्नला ने उसे अपना और अपने भाइयों का परिचय दिया। राजकुमार उत्तर, अर्जुन के पैरों में गिर पड़ा। अर्जुन ने उससे रथ हांकने के लिए कहा और उसे हिम्मत बंधाई।

रणक्षेत्र में पहुंचकर अर्जुन ने अपने गांडीव धनुष की टंकार की और देवदत्त नामक शंख बजाकर युद्ध का बिगुल बजा दिया। अर्जुन के धनुष की टंकार सुनकर कौरव सेना में खलबली मच गई। सैनिक थर्रा उठे। देखते-ही-देखते अर्जुन की भयानक बाण वर्षा ने कौरव सेना को तितर-बितर कर दिया। उसने गायों के झुण्ड को छुड़ा लिया। ग्वालों को गायें विराट नगर की ओर ले जाने की आज्ञा का देकर अर्जुन, दुर्योधन का पीछा करने लगे। भयानक युद्ध हुआ। अंत में कौरव सेना के पैर उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई।

युद्ध से लौटते हुए अर्जुन ने राजकुमार उत्तर से कहा– “राजकुमार उत्तर! अपना रथ नगर की ओर ले चलो। शत्रु भाग गया है। इस विजय का श्रेय तुम्हें ही मिलना चाहिए।"

उत्तर के मना करने पर अर्जुन ने उसे समझा दिया और अपने अस्त्र-शस्त्र फिर से शमी वृक्ष पर रखकर बृहन्नला का वेश बना लिया। विराट नगर पहुंचकर राजकुमार उत्तर की जय-जयकार हुई। किंतु विराट का मन चिंतित हो उठा। राजा ने सोचा कि उसका सुकोमल पुत्र एक हिजड़े को साथ लेकर कौरव सेना पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में राजकुमार उत्तर ने अपने पिता की चिंता को दूर किया और पाण्डवों का असली परिचय दिया।

पाण्डवों का परिचय पाकर राजा विराट प्रसन्न भी हुआ और शर्मिंदा भी कि उसने उन्हें एक साधारण अनुचर समझकर अपने यहां रखा। उसने पाण्डवों से क्षमा मांगी। पाण्डवों ने उसे अपने अज्ञातवास की बात बताकर उसकी शर्मिंदगी को दूर किया। राजा विराट ने अपनी पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के साथ करने का प्रस्ताव रखा, किंतु अर्जुन ने कहा – “राजन! उत्तरा को मैंने शिष्या की भांति समझा है। वह मेरी पुत्री के समान है। यदि आप उसका विवाह करना ही चाहते हैं तो मेरे पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दें।”

राजा विराट ने अर्जुन की बात मान ली।

कुछ समय बाद दुर्योधन ने अपने दूत को भेजकर युधिष्ठिर को कहलवाया कि वे अज्ञातवास पूरा होने से पहले ही पहचान लिए गए हैं, इसलिए उन्हें शर्त के अनुसार फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना चाहिए।

दूत की बात पर युधिष्ठिर मुस्कराए और बोले-“दूत! शीघ्र वापस जाकर दुर्योधन से कहो कि पितामह भीष्म और ज्योतिष शास्त्र के जानकारों से काल गणना कराके निश्चित करें कि अर्जुन ने जिस समय अपने धनुष की टंकार करके अपने आपको प्रकट किया, उस समय अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी या नहीं। मैं यह निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि अर्जुन ने जिस समय धनुष की टंकार की थी, उस समय तेरहवां वर्ष समाप्त हुए पूरा एक दिन बीत चुका था।"

दूत, युधिष्ठिर का संदेश लेकर हस्तिनापुर लौट गया।

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