Small Group Instruction Method of Teaching in hindi

छोटा समूह अनुदेशन अथवा अधिगम एक ऐसा आव्यूह है, जिसकी सहायता से शिक्षण सामग्री को एक ऐसे क्रम में नियोजित किया जाता है, जिसमें छात्रों में लगातार अपे

छोटा समूह अनुदेशन विधि (Small Group Instructional Method)

शिक्षण में छोटा समूह अनुदेशन एक आधुनिक 'शिक्षण विधि' है। यद्यपि इसका प्रयोग प्राचीनकाल में सुकरात ने अपनी प्रश्नोत्तर प्रणाली में किया गया था। इस विधि के प्रणेता बी० एफ० स्किनर (B.F. Skinner) हैं जिन्होंने डॉ० प्रेसी (Sidney L. Pressey) के सहयोग से शिक्षा जगत को यह महान देन प्रदान की थी। उन्होंने अधिगम के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में एक शिक्षण पद्धति के रूप में प्रयुक्त किया है। यह सिद्धान्त है कि यदि बालक को उसके प्रश्न के हल का मूल्यांकन तुरन्त बता दिया जाये तो उसके सीखने में वृद्धि के अवसर चढ़ जाते हैं। स्किनर ने एक ऐसे शैक्षिक यंत्र का आविष्कार (सन् 1950) किया जो बालक को उसके प्रश्न का हल 'सही' अथवा 'गलत' तुरन्त बता देता है। इस आविष्कार से इस बात की पुष्टि हो गई है कि बालक को परिणाम तुरन्त मिलने से वे अच्छी तरह सीख जाते हैं।

Small Group Instruction Method of Teaching in hindi

"छोटा समूह अनुदेशन अथवा अधिगम एक ऐसा आव्यूह है, जिसकी सहायता से शिक्षण सामग्री को एक ऐसे क्रम में नियोजित किया जाता है, जिसमें छात्रों में लगातार अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा सकता है और उनका मापन भी किया जा सकता है।"

छोटा समूह अभिक्रमित अनुदेशन का अर्थ (Meaning of Small Group Programmed Instruction)

यह विधि ज्ञान की विषयवस्तु को छोटे-छोटे पदों में विभाजित कर क्रमबद्ध रूप से तार्किक ढंग से इस प्रकार नियोजित करती है कि विद्यार्थी रुचिपूर्ण स्वगति से स्वाध्याय में अग्रसर होता जाता है। इसमें बालक को तुरन्त परिणाम ज्ञात होने से प्रतिपुष्टि द्वारा पुनर्बलन (Reinforcement) मिलता है जिससे वह आगे अधिगम करने हेतु प्रेरित होता है।

छोटा समूह अनुदेशन की परिभाषा (Definition of Small Group Instruction)

1. प्रो० रूश के अनुसार, "अधिगम में एक विशेष प्रकार का निर्देशन जो विद्यार्थी को नयी सामग्री सिखाता है और अपने अधिगम को जाँचने का अवसर देता है, छोटा समूह अनुदेशन या कभी-कभी स्वाचालित अनुदेशन कहा जाता है।"

2. फ्रैंड स्टोफेल के अनुसार, "जान के छोटे-छोटे घटकों की तार्किक क्रम में व्यवस्था को अभिक्रिया है तथा इस प्रकार की सम्पूर्ण अभिक्रमित अधिगम छोटा समूह अनुदेशन कहलाता है।"

3. सुसान माइकल के अनुसार, "छोटा समूह अनुदेशन एक ऐसी विधि है जिसमें विद्यार्थी स्वयं को सलग्न रखते हुए अपनी गति के अनुसार अग्रसर होता है एवं उसे परिणामों की जानकारी भी तुरन्त मिल जाती है।"

4. डेल एजर के अनुसार, "छोटा समूह अनुदेशन एक क्रमबद्ध पद से पद तक स्वशिक्षण कार्यक्रम है जो पूर्व निर्धारित व्यवहार के अधिगम को सुनिश्चित करता है।"

छोटा समूह अनुदेशन के सोपान (Steps of Small Group Instruction)

छोटा समूह अनुदेशन का अध्ययन निम्न सोपानों के द्वारा सम्पन्न होता है-

  1. प्रकरण का चयन करना।
  2. उद्देश्यों का प्रतिपादन करना तथा व्यावहारिक रूप में लिखना।
  3. पाठ्यवस्तु का विश्लेषण करना तथा अनुदेशन क्रम का निर्धारण करना।
  4. मानदण्ड परीक्षा का निर्माण करना।
  5. अनुदेशन के प्रारूप का निर्धारण करना।
  6. अभिक्रमित अनुदेशन के पदों को लिखना।
  7. समूह पर जाँचना अथवा पदों की जाँच करना।
  8. मूल्यांकन करना।

छोटा समूह अनुदेशन विधि के प्रमुख तथ्य (Key Facts of Small Group Instruction Method)

  1. छात्र को परिणामों की तुरन्त जानकारी मिल जाती है।
  2. पुनर्बलन (Reinforcement) पर बल।
  3. भारत में अभिक्रमित शिक्षण का प्रारम्भ सन् 1963 में हुआ।
  4. रचना शिक्षण में उत्तम विधि है।
  5. जन्मदाता अमेरिकी मनोवैज्ञानिको बी० एफ० स्किनर है।
  6. प्राचीनकाल में प्रश्नोत्तर विधि में सुकरात ने प्रयोग किया।
  7. बालक को उसके प्रश्न का हल तुरन्त बता दिया जाये तो सीखने में वृद्धि के अवसर बढ़ जाते है।

छोटे समूह अनुदेशन के मूल अधिनियम (Basic Principles of Small Group Instruction)

एक प्रभावशाली एक छोटे समूह अनुदेशन की सामग्री कुछ मूल अधिनियमों पर आधारित होती है। इन्हें मौलिक अधिनियम (Fundamental Principles) भी कहते हैं। वास्तव में यह व्यावहारिक अधिनियम (Functional Principles) हैं। ये अधिनियम अभिक्रमित-अधिगम क प्रक्रिया की व्यवस्था करते हैं। इन अधिनियमों का प्रतिपादन मनोविज्ञान की प्रयोगशाला के शोध कार्यों के आधार पर किया गया है। यह मौलिक अधिनियम पाँच हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. छोटे-छोटे पदों के अधिनियम (Principle of Small Steps),
  2. तत्परता अनुक्रिया अधिनियम (Principle of Active Responding),
  3. तत्कालीन जाँच का अधिनियम (Principle of Immediate Confirmation)
  4. स्वतः अध्ययन गति का अधिनियम (Principle of Self Study Speed)।

(1) छोटे-छोटे पदों के अधिनियम:- अभिक्रमित अनुदेशन सामग्री में पाठ्यवस्तु को छोटे-छोटे पदों में व्यवस्थित करके एक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक पद में छात्रों की अनुक्रिया के लिए रिक्त स्थान दिया जाता है। पद की सही अनुक्रिया भी उसी के साथ की जाती है। पढ़ते समय छात्र सही उत्तर को छिपाकर रखता है। छात्र एक समय में एक पद को ही पढ़ता है। इस अधिनियम की यह धारणा है कि छात्र पाठ्यवस्तु को छोटे-छोटे पदों का अध्ययन करने से सरलता से सीखता है और पाठ्यवस्तु पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है।

(2) तत्परता अनुक्रिया अधिनियम:- मनोविज्ञान की प्रयोगशाला के शोध कार्यों की दूसरी उपलब्धि यह है कि छात्र अधिगम के समय यदि तत्पर रहता है, तब वह अधिक सीखता है। अभिक्रमित अनुदेशन के पदों को पढ़ने के बाद छात्र को रिक्त स्थान के लिए समुचित अनुक्रिया करनी पड़ती है। बिना तत्पर रहे छात्र सही अनुक्रिया नहीं कर सकता है। अधिगम का यह सिद्धान्त है कि शिक्षार्थी 'कार्य द्वारा' (Learning by doing) अधिक सीखता है। अनुदेशन के इस अधिनियम में इस धारणा का अनुसरण किया जाता है। छात्र को पदों के लिए सही अनुक्रिया करने के लिए अधिक तत्पर रहना पड़ता है।

(3) तत्काल पुष्टि का अधिनियम:- यह अधिनियम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की तीसरी उपलब्धि है। इसकी यह अवधारणा है कि अनुक्रियाओं की पुष्टि साथ-साथ करने से छात्र अधिक सीखता है। पदों को पढ़ते समय तत्पर होकर छात्र जो अनुक्रिया करते हैं, उनकी जाँच भी तत्काल करनी होती है। सही अनुक्रिया से छात्र को नया ज्ञान प्राप्त होता है और उसे पुनर्बलन भी मिलता है। अनुदेशन सामग्री में पद की सही अनुक्रिया भी दी जाती है। छात्र उसकी सहायता से अपनी अनुक्रिया की स्वयं पुष्टि करता है।

(4) स्वतः अध्ययन गति का अधिनियम:- मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला के शोध कार्यों की यह चौथी उपलब्धि है। शिक्षार्थी को यदि अपने अध्ययन गति से सीखने का अवसर दिया जाता है तब वह अधिक सीखता है। इस अधिनियम का सम्बन्ध व्यक्तिगत भिन्नता से होता है। प्रत्येक छात्र पद को पढ़कर अनुक्रिया करता है और स्वयं उसकी जाँच करता है। इसके बाद वह अगले पद पर जाता है। इन सभी क्रियाओं में छात्र को स्वतन्त्रता होती है कि वह अपनी क्षमताओं तथा अध्ययन गति के अनुसार पदों का अध्ययन करे। पदों को पढ़ने का समय प्रत्येक छात्र का अलग-अलग होता है।

छोटे समूह अनुदेशन की भूमिका (Role of Small Group Instruction)

छोटे समूह अनुदेशन का विकास मौलिक रूप में छात्रों के अधिगम में वृद्धि करने, उसे प्रभावशाली बनाने तथा व्यक्तिगत भिन्नताओं को सुविधा प्रदान करने हेतु किया गया है। परन्तु शिक्षक व्यवहार के सुधार हेतु एक पृष्ठपोषण के रूप में इसका प्रयोग किया जा सकता है।

छोटे समूह अनुदेशन के अभ्यास से शिक्षण की पाठ्यवस्तु के वास्तविक रूप का बोध होता है तथा अधिगम-उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए व्यवस्था क्रम की जानकारी होती है। यह जानकारी छात्राध्यापकों के लिए पृष्ठपोषण का कार्य करती है और पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण में विकास एवं सुधार करती है।

इस विवरण से यह प्रमाणित किया जा चुका है कि छात्राध्यापकों को पाठ-योजना तैयार करके जिस पाठ्यवस्तु को पढ़ाने के बाद, उनसे उसी पाठ्यवस्तु पर अभिक्रमित अनुदेशन की रचना कराई जाए और उसके अनुसार दूसरी कक्षा में उसी पाठ्यवस्तु को पुनः पढ़वाया जाए तो उसकी दोनों कक्षाओं के शिक्षण में महत्वपूर्ण अन्तर पाया जाता है। छोटे समूह अनुदेशन से छात्राध्यापको मे अधोलिखित क्षमताओं का विकास किया जाता है। इसे उपचारी शिक्षण में प्रयुक्त करते हैं-

  1. अभिक्रमित-अनुदेशन की रचना के अभ्यास से छात्राध्यापकों में उद्देश्यों को व्यापारिक रूप में लिखने तथा उनके लिए समुचित अधिगम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की योग्यता का विकास किया जा सकता है।
  2. पाठ्यवस्तु का तत्वों में विश्लेषण करना और सीखने के क्रम में व्यवस्था करने को क्षमताओं का विकास किया जा सकता है।
  3. शिक्षण में व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखकर छात्रों को अवसर प्रदान करने की क्षमताओं का विकास किया जा सकता है।
  4. पाठ्यवस्तु को छोटे-छोटे क्रमबद्ध पदों के रूप में प्रस्तुत करने की क्षमताओं को विकास किया जा सकता है।
  5. प्रस्तुतीकरण से छात्रों की अनुक्रियाओं को अवसर देना तथा उनके सही उत्तर को पुनर्बलन प्रदान करने की क्षमताओं का विकास किया जा सकता है।
  6. छात्रों को प्रस्तुतीकरण में तत्पर रखने के लिए समुचित प्रविधियों को प्रयुक्त करने का योग्यताओं का विकास किया जा सकता है।
  7. अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समुचित व्यक्तियों का चयन करके प्रयुक्त करने को योग्यताओं का विकास किया जा सकता है।

छोटा समूह अनुदेशन की आवश्यकता (Need of Small Group Instruction)

सामान्य कक्षा शिक्षण में सामान्यतयाः यह कठिनाई आती है कि बालकों को व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर इस प्रकार शिक्षा कैसे प्रदान की जाये कि वे स्वगति से सुविधा पूर्वक अधिगम कर सकें। अनेक प्रयास शिक्षक द्वारा इस दिशा में किये जाते हैं लेकिन इस जटिलता को कुछ कम तो किया जा सकता है पूर्ण निवारण नहीं। छोटा समूह अनुदेशन शिक्षा की एक ऐसी विधि है जो बालक को स्वगति से सीखने का अवसर प्रदान करती है। इससे व्यक्तिगत भिन्नता के कारण अध्यापन में आने वाली जटिलताएँ स्वतः ही कम हो जाती है।

छोटा समूह अनुदेशन के सिद्धान्त (Principles of Small Group Instruction)

1. छोटे सोपानों का सिद्धान्त:- इसका अर्थ है जिस विषय-वस्तु के विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तुत किया जाना हो उसे छोटे-छोटे पदों में विभाजित कर दिया जाये क्योंकि यह माना जाता है कि यदि सीखने वाले को सामग्री खण्डों में प्रस्तुत की जाये तो वह उसे अच्छी तरह से सीख सकता है।

2. सक्रिय सहयोग का सिद्धान्त:- प्रत्येक इकाई का छात्र द्वारा किसी न किसी रूप में अनिवार्यतः उत्तर दिया जाना। मनोवैज्ञानिक खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि अध्येता भलीभाँति तभी सीखता है, जब उसे उस कार्य में सक्रिय रूप से भाग लेने का अवसर दिया जाये। परम्परागत शिक्षण पद्धति में पूछे गये एक प्रश्न का उत्तर प्रायः एक ही छात्र देता है, शेष छात्रों का सोचा हुआ उत्तर उनके मस्तिष्क में ही जड़वत् रह जाता है।

वे अध्यापक सक्रिय छात्र के सही उत्तर से अपने सोचे हुए उत्तर का मन ही मन मिलान भले ही कर लें किन्तु शिक्षण में इस प्रकार समस्त छात्रों का सक्रिय सहयोग नहीं मिल पाता। कक्षा में यदि सभी प्रश्नों का उत्तर सभी छात्र सक्रिय रूप से दें तो अधिगम अधिक प्रभावपूर्ण रहेगा।

3. तुरन्त आश्वासन का सिद्धान्त:- उत्तरित सोपान के सही/गलत उत्तर की जानकारी देते हुए छात्र का अनुप्रेरण के द्वारा पुनर्बलन (Reinforcement) प्रदान करना। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि छात्र तब अच्छा सीखता है जब वह अपने उत्तर के प्रति आश्वस्त हो जो छात्र अपने उत्तर के बारे में अधिक देर तक प्रतीक्षारत रहता है, वह उस छात्र की अपेक्षा अधिक नहीं सीख पाता जिसे अपने उत्तर परिणाम की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है।

4. स्वतः गतिक्रम का सिद्धान्त:- अनुस्तरित सोपानों में क्रमश: एक-एक पर अधिकार करने के पश्चात् ही दूसरे सोपान पर पहुँचना। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा जल्दी सीखते हैं, जबकि कुछ लोग धीरे सीख पाते हैं। यदि कक्षा में अध्यापन की गति काफी तेज या काफी धीमी है, तो हर एक छात्र अपनी गति के कारण अध्ययन में पूरा ध्यान नहीं लगा पाता।

5. छात्र परीक्षण का सिद्धान्त:- पाठ्य-सामग्री की इकाइयों/घटकों का आकार, संख्या तथा मात्र केन्द्रित (बुद्धि स्तर, अभिरुचि, शारीरिक क्षमता के अनुरूप) रहना। छात्रों के सीखने की प्रक्रिया/गतिविधि के आधार पर किसी अभिक्रम का सुधार/संशोधन छात्र परीक्षण के सिद्धान्त पर आधारित है।

छोटा समूह अनुदेशन की सीमाएं (Limitations of Small Group Instruction)

  1. इसमें बालकों की रुचि तथा आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता।
  2. इसमें तकनीकी इस तकनीकी में अधिगम नियंत्रित परिस्थितियों में ही कराया जाता है।
  3. यह तकनीको मेधावी छात्रों को अधिक प्रभावित नहीं करती है।
  4. इस तकनीक के अन्तर्गत उचित फ्रेम या पद तैयार करना कठिन कार्य है इस तकनीक का प्रयोग करने के लिए।
  5. अध्यापक को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।

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