मापन का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, महत्त्व, सीमाएँ, स्तर एवं प्रकार | Meaning and Definition of Measurement in hindi

किसी भौतिक राशि का परिमाण संख्याओं में व्यक्त करने को मापन कहा जाता है। मापन मूलतः तुलना करने की एक प्रक्रिया है। इसमें किसी भौतिक राशि की मात्रा की

मापन का अर्थ (Meaning of Measurement)

किसी भौतिक राशि का परिमाण संख्याओं में व्यक्त करने को मापन कहा जाता है। मापन मूलतः तुलना करने की एक प्रक्रिया है। इसमें किसी भौतिक राशि की मात्रा की तुलना एक पूर्वनिर्धारित मात्रा से की जाती है। इस पूर्वनिर्धारित मात्रा को उस राशि-विशेष के लिये मात्रक कहा जाता है। उदाहरण के लिये जब हम कहते हैं कि किसी पेड़ की उँचाई 10 मीटर है तो हम उस पेड़ की उचाई की तुलना एक मीटर से कर रहे होते हैं। यहाँ मीटर एक मानक मात्रक है जो भौतिक राशि लम्बाई या दूरी के लिये प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार समय का मात्रक सेकण्ड, द्रव्यमान का मात्रक किलोग्राम आदि हैं।

मापन का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, महत्त्व, सीमाएँ, स्तर एवं प्रकार

'मापन' एक निरपेक्ष शब्द है जिसकी व्याख्या करना कठिन है। प्रायः मापन से अभिप्राय यह लगाया जाता है कि यह प्रदत्तों का अंकों के रूप में वर्णन करता है। मापन किसी भी वस्तु का शुद्ध एवं वस्तुनिष्ठ रूप से वर्णन करता है।

मापन की परिभाषा (Definition of Measurement)

1. एस० एस० स्टीवेन्स के अनुसार, "मापन किन्ही निश्चित स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है।"

2. हैल्मस्टेडटर के अनुसार, "मापन को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं का आंकिक वर्णन होता है।"

3. गिलफोर्ड के अनुसार- “मापन वस्तुओं या घटनाओं को तर्कपूर्ण ढंग से संख्या प्रदान करने की क्रिया है।”

साधारण शब्दों में, "मापन क्रिया विभिन्न निरीक्षणों, वस्तुओं अथवा घटनाओं को कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार सार्थक एवं संगत रूप से संकेत चिह्न अथवा आंकिक संकेत प्रदान करने की प्रक्रिया है।" अर्थात् हम मापन के अन्तर्गत विभिन्न निरीक्षणों, वस्तुओं एवं घटनाओं का मात्रात्मक रूप से वर्णन करते हैं। इसमें अंक प्रदान करने के लिए मापन के विभिन्न स्तरों के अनुकूल विशिष्ट नियमों एवं सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया जाता है।

मापन के क्षेत्र (Scope of Measurement)

मापन का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। सोते जागते, उठते, पढ़ते, सभी समयों पर एवं अन्य अनेक अवसरों पर हम मापन का उपयोग करते हैं। मापन के अनेक क्षेत्र हैं। शिक्षा से सम्बन्धि मापन के क्षेत्र निम्न प्रकार हैं— कला, साहित्य, संगीत, हॉकी आदि में योग्यता का मापन गणित, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अंग्रेजी में ज्ञानोपार्जन, क्लैरीकल काय, इन्जीनियरिंग, चिकित्सा आदि में अभिरुचि, जनतन्त्र, अल्पसंख्यकों, स्कूल, राष्ट्र, किसी संस्था के प्रति अभिवृत्ति, खेल, पाठन में रुचि तथा व्यक्ति के अनेक गुण जैसे- रचनात्मक प्रवृत्ति, अभियोजन और बुद्धि आदि सब मापन योग्य तथ्य हैं। स्कूल में परीक्षार्थियों को अंक देने में उनके, वर्गीकरण तथा तरक्की में, अध्यापकों को शिक्षा योग्यता का निर्णय करने में, पाठ्यक्रम का मूल्यांकन करने में, शिक्षा पर होने वाले कार्य को निश्चित करने में, परीक्षण की रचना करने में अर्थात् शिक्षा के हर क्षेत्र में मापन का प्रयोग करते हैं।

मापन के उद्देश्य (Objectives of Measurement)

मापन के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

1. चयन:- विभिन्न स्कूलों, मेडिकल कॉलेजों, इन्जीयनियरिंग कालेजों, सेना एवं उद्योग में विद्यार्थियों का चयन किया जाता है। परीक्षणों द्वारा अनेक व्यक्तियों में से कुछ को छाँट लिया जाता है। यह उनकी बुद्धि, योग्यता, उपलब्धि आदि के मापन से किया जाता है। अनेक सेवाओं में कर्मचारियों का चयन करते समय साक्षात्कार एवं प्रक्षेपण विधियों का सहारा उनकी योग्यता, चरित्र, सहनशीलता आदि को मापने के लिए किया जाता है।

2. पूर्वकथन:- पूर्वकथन का अर्थ है- वर्तमान के आधार पर भविष्य के बारे में बताना। हम अपने जीवन में नित्य कोई न कोई निर्णय लेते हैं। एक व्यापारी यह निर्णय लेता है कि किस माल को कितना खरीदे, किस मूल्य से बेचे, कितने कर्मचारी रखे, किसको रखे। एक अध्यापक यह निर्णय लेता है कि उसके छात्र कैसे हैं और उन्हें किस स्तर का परीक्षण दिया जाये। एक चिकित्सक यह निर्णय लेता है कि रोगी को कैसे ठीक किया जाये, कौन-कौन सी दवाइयाँ दी जाये। इस प्रकार सभी निर्णयों में पूर्वकथन सन्निहित हैं।

3. तुलाना:- ज्ञान, बुद्धि व्यक्तिका उपलब्धि आदि सभी शीलगुणों में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है। परीक्षणों का एक मुख्य उद्देश्य इन भिन्नताओं का तुलनात्मक अध्ययन करना है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए पहले हमें इन गुणों का मापन करना पड़ता है तथा मापन के आधार पर फिर तुलना करते हैं।

4. निदान:– निदान का अर्थ है-लक्षणों के आधार पर रोगों को पहचानना । शैक्षणिक निदान में अनेक तकनीकी प्रविधियों का प्रयोग होता है जिनका उद्देश्य सीखने की मुख्य कठिनाइयों का पता लगाना है तथा फिर उसका कारण और निराकरण का भी पता लगाना है। शैक्षणिक निदान में अनेक परीक्षणों, सांख्यिकीय प्रविधियों का प्रयोग होता है। विभिन्न विषयों पर बनी नैदानिक परीक्षाएं, नैदानिक चार्ट, मानचित्र आदि निदान में उपयोगी हैं। किसी विषय में नैदानिक परीक्षण से पहले तत्सम्बन्धी योग्यता की पहचान जरूरी है। निदान की सफलता मापन पर निर्भर करती है।

5. वर्गीकरण:— वर्गीकरण समानता तथा असमानता के आधार पर किया जाता है। विभिन्न स्कूलों, मेडिकल कॉलेजो, इन्जीनियरिंग कॉलेजों, उद्योगों तथा सेना आदि में वर्गीकरण का महत्त्व है। उदाहरणार्थ-स्कूल-कॉलेजों में छात्रों को उनकी योग्यता, उपलब्धि, अभिरुचि, बुद्धि के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इसी प्रकार उद्योगों में तथा सेना में कर्मचारियों को उनकी अभिक्षमता, बुद्धि, योग्यता के आधार पर किया जाता है। वर्गीकरण के लिए आवश्यक है कि इन गुणों का मापन किया जाये और तब उस मापन के आधार पर उसे वर्गीकृत किया जाये।

6. शोध:— शोध में परोक्षणों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। इसके लिए दो प्रकार के समूह लेते हैं। एक नियन्त्रित तथा दूसरा प्रयोगात्मक। प्रयोगात्मक समूह पर प्रयोग किये जाते हैं. और नियन्त्रित समूह को वास्तविक परिस्थितियों में रखा जाता है। दोनों का मापन करके प्रयोगात्मक तथा नियन्त्रित समूह के अन्तर का पता लगाते हैं कि व्यवहार में परिवर्तन हुआ या नहीं।

मापन का महत्त्व (Importance of Measurement)

शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुए हैं, विभिन्न प्रकार की तकनीक का विकास शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए किया जा रहा है। शिक्षा आज वैज्ञानिक विधि द्वारा दी जाती है। अच्छे परिणामों के लिए हमें शिक्षण में मापन की आवश्यकता है न कि हम जो छात्रों को सिखाना चाहते हैं। शिक्षण तथा अधिगम में मापन का महत्त्व संक्षेप में इस प्रकार है-

1. परीक्षार्थी की योग्यता का निर्धारण:- सभी परीक्षार्थियों में योग्यता का स्तर समान नहीं होता। यदि विभिन्न योग्यता-स्तर के छात्रों को समान शिक्षा एक ही विधि द्वारा दी जायेगी तो कम योग्यता वाले छात्रों को समझने में कठिनाई होगी तथा अधिक योग्यता वाले बच्चे कम योग्यता वाले बच्चों के साथ कठिनाई का अनुभव करेंगे; अतः योग्यता का मापन करके उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँट सकते है।

2. क्षमता का मापन:— विद्यार्थी की क्षमता का निर्धारण किया जा सकता है। यदि किसी छात्र की क्षमता कम है और उसे अधिक कार्य दिया जाये तो वह कर नहीं पायेगा और उस पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा अधिक क्षमता रखने वाले छात्रों को अधिक कार्य देकर ही हम उसे सन्तुष्ट कर सकते हैं।

3. शिक्षण विधियों-प्रविधियों का मापन:– शिक्षण में विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों तथा प्रविधियों का प्रयोग होता है। किस पाठ्यक्रम को पढ़ाने के लिए किस विधि या प्रविधि का प्रयोग सबसे अच्छा है। इसके लिए फिर छात्रों को एक पाठ्यक्रम विभिन्न विधियों तथा प्रविधियो द्वारा पढ़ाया जाता है। फिर उनकी निष्पत्ति का मापन करके यह पता लगाते हैं कि कौन-सी विधि अच्छी है।

4. निदान:– विभिन्न विषयों पर नैदानिक परीक्षण बनाये जाते हैं जिनसे छात्रों को शिक्षा सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर किया जाता है। निदान परीक्षण की सहायता से पता चलता है कि छात्र विषयवस्तु के किस भाग को समझने में कठिनाई महसूस करता है।

5. वर्गीकरण:- परीक्षण की सहायता से छात्रों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है; जैसे-विज्ञान वर्ग, साहित्यिक वर्ग, कला वर्ग, तकनीशियन, चिकित्सा इत्यादि।

6. छात्रों की तुलना करने में:- मापन द्वारा उत्कृष्ट बुद्धि तथा मन्द बुद्धि बालकों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं, और उनकी तुलना की जा सकती हैं।

7. कक्षा मानक तथा उम्र मानक तैयार करना:- विभिन्न कक्षाओं के लिए मानकों का निर्धारण मापन द्वारा ही किया जा सकता है।

8. विभिन्न कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम का स्तर निर्धारण:- मापन द्वारा पाठ्यक्रम का कठिनाई स्तर तथा छात्रों की योग्यता बुद्धिमत्ता के आधार पर पाठ्यक्रम के निर्धारण में मापन का महत्त्व है।

9. समय निर्धारण:- विद्यालय में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए समय का निर्धारण इसका मापन विभिन्न कक्षाओं में समयानुसार होते हैं जहाँ पर भी मापन का प्रयोग होता है।

10. फलांकों का निर्धारण:- मापन से छात्रों द्वारा दिये गये उत्तरों के फलाकों का निर्धारण किया जाता है।

मापन की सीमाएँ (Limitations of Measurement)

आज के युग में मापन का अत्यन्त व्यापकता से प्रयोग किया जाता है, फिर भी कुछ कमियों के कारण मापन एक आलोचना का विषय रहा है। इसकी सीमाएँ इस प्रकार हैं-

  1. इसका क्षेत्र संकुचित एवं सीमित हैं। एक समय में हम व्यक्ति के केवल एक या कुछ ही पहलुओं का अध्ययन कर सकते हैं, इसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवहार या व्यक्तित्व का अध्ययन कदापि सम्भव नहीं होता।
  2. मापन का रूप व्यवस्थित होता है। अतएव इसकी प्रक्रिया भी जटिल है। इसमें मानकीकृत परीक्षणों की आवश्यकता होती है तथा अच्छे विश्वसनीय एवं वैध परीक्षणों का समस्त क्षेत्रों में उपलब्ध होना प्रायः असम्भव ही है।
  3. मापन के द्वारा हमे किसी व्यक्ति या प्रक्रिया के विषय में केवल सूचनाएँ मिलती हैं, यह कोई निर्णय नहीं प्रदान करता है।
  4. यह केवल किसी पहलू पर अंकों प्रदर्शित करता है तथा उन अंकों से हमारा क्या तात्पर्य है, यह इंगित नहीं करता।

अतएव, इन सीमाओं के कारण भी मापन-क्रिया का व्यावहारिक जीवन में महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रयोग किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप आज का युग 'मापन युग' से जाना जाता है।

मापन के स्तर (Levels of Measurement)

विभिन्न चरों के मापन के प्रमुख रूप से चार स्तर होते हैं। इन स्तरों को मापन के चार पैमाने भी कहा जा सकता है क्योंकि इन चारों स्तरों या पैमानों पर ही समूह के विभिन्न व्यक्तियों की विशेषताओं या योग्यताओं का वर्णन किया जाता है। ये चारों स्तरों में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक स्तर की कुछ विशेषताएँ, नियम तथा सीमाएँ होती हैं जो दूसरे स्तर से पृथक होती हैं। इसी आधार पर मापन को चार भागों में विभक्त किया गया है—

  1. नामित स्तर
  2. क्रमित स्तर
  3. अन्तराल स्तर
  4. आनुपातिक स्तर

1. नामित स्तर:- यह सबसे निम्न स्तर का परिमार्जित स्तर का मापन होता है। इसमें किसी भी व्यक्ति, वस्तु की विशेषता के प्रकार के आधार पर उसे कुछ वर्गों या समूहों में बाँटा जाता है। इस प्रकार का मापन किसी गुण या विशेषता के आधार पर किया जाता है। इसका विभाजन जिन वर्गों या समूहों में किया जाता है। उन वर्गों में किसी तरह का कोई अन्तर निहित क्रम या सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। प्रत्येक भाग विशेषता के किसी एक प्रकार को अभिव्यक्त करता है। गुण के प्रकारों को एक-एक नाम, शब्द, अंक, अक्षर अथवा कोई अन्य संकेत दे दिया जाता है।

उदाहरण के लिए विषयों के आधार पर स्नातक छात्रो को कला, वाणिज्य तथा विज्ञान के आधार पर निवास के आधार पर लोगों को ग्रामीण अथवा शहरी में तथा लिंग के आधार पर पुरुष एवं स्त्री, फर्नीचर को कुर्सी, मेज, स्टुल आदि में तथा फलों को आम, केला, सेब तथा अमरूद, अंगूर एवं पपीता में विभक्त करना नामिक मापन का उदाहरण है।

2. क्रमित मापन:– यह मापन नामित मापन से कुछ अधिक सुधरा हुआ होता है। यह किसी विशेषता की मात्रा के आधार पर अवलम्बित होता है। इस तरह के मापन में सदस्यों या वस्तुओं को उनमें निहित किसी गुण की मात्रा के आधार पर कुछ ऐसे वर्गों में बाँट दिया जाता है जिसमें एक क्रम निहित होता है। इन समस्त वर्गों को कोई नाम शब्द, अक्षर, प्रतीक या अंक प्रदान कर दिये जाते हैं। उदाहरणार्थ विद्यार्थियों को उनकी योग्यता के आधार पर प्रतिभाशाली, सामान्य तथा कमजोर छात्रों के रूप में विभक्त करना क्रमित मापन का एक उदाहरण है।

क्रमित मापन के प्रमुख उदाहरण है— छात्रों को परीक्षा प्राप्तांकों के आधार पर प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं अनुत्तीर्ण श्रेणियों में बांटना, छात्रों को उनकी कक्षा के आधार पर प्राथमिक, माध्यमिक तथा स्नातक और स्नातकोत्तर में विभक्त करना, लम्बाई के आधार पर लम्बा, सामान्य एवं नाटा में बाँटना, विश्वविद्यालय अध्यापको को प्रवक्ता, रीडर तथा प्रोफेसर के रूप में बाँटना, अभिभावकों को उनके सामाजिक तथा आर्थिक स्तर के आधार पर उच्च, मध्यम तथा निम्न वर्गों में विभक्त करना इस मापन का ही उदाहरण है।

3. अन्तराल मापन:- अन्तराल मापन नामित तथा क्रमित मापन से अधिक परिमार्जित होता है। यह मापन गुण की मात्रा के परिमाण पर अवलम्बित होता है। इस प्रकार के मापन में सदस्यों या वस्तुओं में उपस्थित गुण की मात्रा को इस तरह की इकाइयों के द्वारा व्यक्त किया जाता है कि किन्हीं दो निरन्तर इकाइयों में अन्तर समान रहता है। उदाहरणार्थ विद्यार्थियों को उनकी भाषा योग्यता के आधार पर अंक प्रदान करना। यहाँ यह स्पष्ट है कि 20 एवं 21 अंकों के मध्य वही अन्तर है जो 26 एवं 27 अंकों के मध्य है। विद्यार्थियों की अभिवृत्ति, रुचि तथा बुद्धि आदि का मापन प्राय: इस मापन के द्वारा किया जाता है।

इस स्तर के मापन की इकाइयाँ समान दूरी पर स्थित अंक होते हैं। इन इकाइयों के साथ गणितीय संक्रियाओं में जोड़ तथा घटाना किया जा सकता है। अन्तरित मापन में परम शून्य या वास्तविक शून्य बिन्दु नहीं होता है जिसके कारण मापन से प्राप्त परिणाम सापेक्षित तो होते हैं परन्तु निरपेक्ष नहीं होते हैं। इस स्तर पर शून्य बिन्दु हो सकता है परन्तु यह आभासी होता है। जैसे यदि कोई छात्र विज्ञान विषय में शून्य अंक अर्जित करता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह छात्र विज्ञान विषय में कुछ नहीं जानता है। इस शून्य का अर्थ केवल इतना है कि वह छात्र प्रयुक्त किये गये विज्ञान परीक्षण के प्रश्नों का उचित समाधान करने में असमर्थ रहा है।

4. आनुपातिक मापन:- आनुपातिक मापन अन्य समस्त मापनों में सर्वाधिक परिमार्जित मापन होता है। इस मापन में अन्तरित मापन की समस्त विशेषताओं के साथ-साथ परम शून्य या वास्तविक शून्य की संकल्पना निहित होती है। परम शून्य वह स्थिति है जिसमें कोई विशेषता पूर्णरूपेण अस्तित्व विहीन हो जाती है। लम्बाई, भार, ऊँचाई, दूरी, छात्र संख्या, पुस्तक संख्या जैसे भौतिक चरों का मापन आनुपातिक मापन है क्योंकि लम्बाई, भार एवं दूरी के पूर्णरूपेण अस्तित्व विहीन होने की कल्पना की जा सकती है। इसकी दूसरी विशेषता इस पर प्राप्त मापों की तुलनीयता है।

आनुपातिक मापन द्वारा प्रयुक्त मापन को अनुपात के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। जैसे 70 किलोग्राम भार वाला व्यक्ति 35 किलोग्राम भार वाले व्यक्ति से दो गुना अधिक भार वाला कहा जायेगा। परन्तु 140 I.Q. वाले व्यक्ति को 70 I.Q. वाले व्यक्ति से दो गुना बुद्धिमान कहना ठीक नहीं होगा। जैसे-35-35 किलोग्राम वाले दो व्यक्ति भार की दृष्टि से 70 किलोग्राम वाले व्यक्ति के समान हो जायेंगे लेकिन 70 I.Q. एवं 70 I.Q. वाले दो व्यक्ति 140 I.Q. वाले व्यक्ति के समान बुद्धिमान नहीं हो सकते है।

मापन के प्रकार (Types of Measurement)

मापन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

1. मानसिक मापन:- मानसिक मापन के अन्तर्गत विभिन्न मानसिक क्रियाओं; जैसे-बुद्धि, रुचि अभियोग्यता उपलब्धि आदि का मापन किया जाता है। इसकी प्रकृति सापेक्षिक होती है अर्थात् इसमें प्राप्तांकों का स्वयं में कोई अस्तित्व नहीं होता। उदाहरण के लिए, किसी शिक्षक के कार्य का मापन श्रेष्ठ, मध्यम या निम्न रूप में किया जाता है, किन्तु कितना श्रेष्ठ, मध्यम या निम्न यह नहीं कहा जा सकता। मानसिक मापन में अग्रलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  1. मानसिक मापन में कोई वास्तविक शून्य बिन्दु नहीं होता।
  2. मानसिक मापन की इकाइयाँ एकसमान नहीं होती। इसकी इकाइयाँ सापेक्ष मूल्य की होती है; जैसे-13 और 14 मानसिक आयु के बालकों में उतना अन्तर नहीं होता जितना 7 और 8 मानसिक आयु के बालकों में होता है, यद्यपि निरपेक्ष अन्तर दोनों में एक ही वर्ष का है।
  3. मानसिक मापन में किसी गुण का आंशिक मापन ही सम्भव हो पाता है।
  4. मानसिक मापन आत्मनिष्ठ होता है और प्रायः मानकों के आधार पर तुलना की जाती है।

2. भौतिक मापन:- भौतिक मापन के अन्तर्गत विभिन्न भौतिक गुणों; जैसे-लम्बाई, दूरी, ऊंचाई आदि का मापन किया जाता है। इसकी प्रकृति निरपेक्ष होती है तथा इसके प्राप्तांक बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। भौतिक मापन की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. भौतिक मापन में एक वास्तविक शून्य बिन्दु होता है; जहाँ से कार्य प्रारम्भ करते हैं; जैसे-5 फीट का अर्थ है 0 से 5 ऊपर 5 फीट।
  2. भौतिक मापन की सभी इकाइयाँ समान अनुपात में होती है; जैसे- एक फुट के सभी इंच समान दूरी पर स्थित होते है।
  3. भौतिक मापन में किसी वस्तु या गुण का पूर्ण मापन सम्भव है, जैसे—सम्पूर्ण पृथ्वी के क्षेत्रफल की गणना कर सकते हैं, पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच कुल दूरी का मापन किया जा सकता है।
  4. भौतिक मापन स्थिर रहता है; जैसे-यदि किसी मेज की लम्बाई 4 फुट है, तो दो साल बीत जाने पर भी लम्बाई उतनी ही रहेगी।

मापन एवं मूल्यांकन की आवश्यकता (Need for Measurement and Evaluation)

मापन व मूल्यांकन की सहायता से अभिभावक गण अपने बच्चों की प्रगति को जानते हैं। उनकी रुचि, योग्यता, क्षमता, व्यक्तिव, सामर्थ्य, कमियों आदि को पहचानकर उन्हें उचित मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। शिक्षा प्रशासक तथा नीति-निर्धारक भी मापन एवं मूल्यांकन के परिणामों का उपयोग शैक्षिक प्रशासन की व्यवस्था तथा नीति-निर्माण में करते है। समाज तथा राष्ट्र की उन्नति के लिए शिक्षा में सुधार का एक सतत् प्रयास होना आवश्यक है। संक्षेप में मापन एवं मूल्यांकन की आवश्यकता निम्नलिखित है-

  1. मापन तथा मूल्यांकन उचित शैक्षिक निर्णय लेने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
  2. मापन तथा मूल्यांकन से शिक्षाशास्त्री, प्रशासक, अध्यापक, छात्र तथा अभिभावक शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा को जान सकते हैं।
  3. मापन तथा मूल्यांकन शिक्षक को प्रभावशीलता को इंगित करता है।
  4. मापन तथा मूल्यांकन शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।
  5. मापन तथा मूल्यांकन छात्रों को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करता है।
  6. मापन तथा मूल्यांकन के आधार पर पाठ्यक्रम शिक्षण विधियों सहायक सामग्री आदि में आवश्यक सुधार किया जा सकता है।
  7. मापन तथा मूल्यांकन कक्षा शिक्षण में सुधार लाता है। अध्यापक को अपनी कमी ज्ञात हो जाती है जिससे वह अपने शिक्षण को अधिक सुसंगठित कर लेता है।
  8. मापन एवं मूल्यांकन के आधार पर छात्रों को शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन दिया जा सकता है।
  9. मापन तथा मूल्यांकन से छात्रों की रुचियों, अभिरुचियों, कुशलताओं, योग्यताओं, दृष्टिकोणों एवं व्यवहारों की जाँच का ज्ञान सम्भव है।
  10. मापन तथा मूल्यांकन से विभिन्न कार्यक्रमों की उपयोगिता का ज्ञान किया जा सकता है।

निरपेक्ष मापन

निरपेक्ष मापन से आशय ऐसे मापन से है जिसमे शून्य की स्थिति सम्भव होती है और जिसका पैमाना शून्य से प्रारम्भ होता है। शून्य से अधिक होने पर धनात्मक (+) और शून्य से कम होने पर (-) ऋणात्मक माप देता है। जैसे किसी स्थान का तापमान शून्य भी हो सकता है और शून्य से अधिक भी हो सकता है साथ ही शून्य से कम भी हो सकता है। इस प्रकार का मापन भौतिक चरों में ही सम्भव होता है। यह मापन शैक्षिक एवं मनोवैज्ञानिक चरो मे सम्भव नहीं है।

निरपेक्ष मापन में परम शून्य होता है। अतः इसके परिणामों की व्याख्या गणितीय आधार पर ही की जा सकती है। जैसे-यदि किसी स्थान का तापक्रम 30° और दूसरे स्थान पर 15° हो तो कहा जा सकता है कि पहले स्थान का तापक्रम दूसरे स्थान के तापक्रम से दो गुना है। इस प्रकार की गणितीय व्याख्या शैक्षिक एवं मनोवैज्ञानिक चरों के मापों से नहीं की जा सकती है।

सामान्यीकृत मापन

सामान्यीकृत मापन वह मापन है जिसमें प्राप्तांक एक दूसरे से प्रभावित नहीं होते हैं। वे एक दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं। इसमें परम शून्य की सम्भावना नहीं होती है। जैसे-यदि किसी विषय के उपलब्धि परीक्षण में कोई छात्र शून्य अंक प्राप्त करता है तो इसका यह आशय नहीं होता है कि उस विषय में उस छात्र की योग्यता शून्य है। इसका आशय सिर्फ इतना है कि यथा परीक्षण के किसी भी प्रश्न को हल करने में यह छात्र सफल नहीं हो पाया। इस मापन में परम शून्य नहीं होता है। अतः इसके परिणामों को व्याख्या नहीं की जा सकती है। इस प्रकार के मापों की व्याख्या सांख्यिकीय गणनाओं, केन्द्रीय प्रवृत्ति मानों और विचलन मानों की सहायता से की जा सकती है।

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