परीक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, दोष एवं महत्त्व | Meaning, Definition, Types, Drawbacks and Importance of Examination in hindi

परीक्षा की अवधारणा (Concept of Examination)

बालक को कुछ पढ़ने के पश्चात उसका मूल्यांकन किया जाना अति आवश्यक प्रक्रिया मानी जाती है। मूल्याकन का मुख्य उद्देश्य होता है— यह जानना कि बालक ने कितना सीखा। वर्तमान में मूल्याकन हेतु परीक्षा की प्रणाली अपनाई गई है।

परीक्षा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, दोष एवं महत्त्व

माध्यमिक शिक्षा आयोग ने बलपूर्वक घोषित किया है कि वर्तमान परीक्षा प्रणाली छात्रों की मानसिक एवं साहित्यिक उपलब्धियों की जाँच करती है, परन्तु इसके द्वारा की जाने वाली जॉच विश्वसनीय नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रचलित निबन्धात्मक प्रकार के प्रश्नों के मूल्याकन में परीक्षक के मनोभावों का मूर्धन्य स्थान है।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, "परीक्षाएँ विद्यालय जीवन के सम्पूर्ण वातावरण में इस प्रकार परिव्याप्त हो गई है कि वे बालक तथा शिक्षक दोनों को मुख्य प्रेरणादायक शक्ति बन गई है। अपनी सम्पूर्ण शिक्षा की अवधि में छात्र के सभी प्रयास परीक्षा उत्तीर्ण करने में केन्द्रित होते है। जब तक कोई विषय या क्रियात्मक परीक्षा कार्यक्रम में शामिल नहीं होता, तब तक छात्र उसमें कोई रूचि नहीं लेते। जहाँ तक शिक्षण विधि का सम्बन्ध है. छात्र सरलता से अधिक से अधिक अंक पाने वाली विधि अपनाता है। वह पाठ्य-पुस्तकों को अपेक्षा बाजारू नोट्स व कुंजियों में रूचि रखता है। साथ ही वह विषयवस्तु को आत्मसात् करने की अपेक्षा रटने पर बल देता है। इस प्रकार वह परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल एवं संक्षिप्त विधियों को अपनाकर अपने भविष्य का निर्धारण करता है।"

परीक्षा का अर्थ (Meaning of Examination)

परीक्षा का शब्दार्थ है, "चारों ओर अच्छी प्रकार देखना।" किसी आन्तरिक अधिकारी या किसी बाहरी संस्था द्वारा विद्यार्थियों के ज्ञान, उनकी सामान्य क्षमता और किसी योग्यता को मापने या परखने के लिए किया गया सुव्यवस्थित प्रबन्ध परीक्षा है। वास्तव में यह शिक्षण एवं परीक्षण साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं। विस्तृत अर्थ में, "जीवन ही एक परीक्षा है।" परीक्षा के बिना यह मालूम नहीं हो सकता कि शिक्षण ठीक दिशा में चल रहा है या नहीं।

परन्तु वर्तमान परीक्षा प्रणाली को बहुत आलोचना होने लगी है। परीक्षा को एक भूत माना जाता है। कुछ इसे बला (Evil) भी कहते हैं। राधाकृष्णन विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (University Education Commission) के शब्दों में "गत आधी शताब्दी तक परीक्षा पद्धति की भारतीय शिक्षा का निकृष्ट रूप समझा जाता रहा है।"

रायबर्न (W.H. Ryburn) के अनुसार, "यह बिना किसी सन्दर्भ के कहा जा सकता है कि परीक्षाएँ रचनात्मक कार्य को दुश्मन है, विशेषतः जिस रूप में वे ली जाती हैं।"

कोठारी आयोग ने कहा है, "मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो शिक्षा की सम्पूर्ण प्रणाली का एक अभिन्न अंग है तथा जिसका शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह छात्र के पढ़ने की आदतों एवं अध्यापक के पढ़ाने की पद्धतियों पर गहरा प्रभाव डालता है तथा इस प्रकार यह न केवल शैक्षिक निष्पत्ति के मापने में अपितु उसके सुधार में भी सहायक होता है।"

प्रायः परीक्षा को लोग कक्षा पास करने का साधन समझते हैं। प्रत्येक अध्यापक एवं चालक का यह दृष्टिकोण बनता जाता है कि वह स्वीकृत पाठ्यक्रम को इस प्रकार याद कर ले कि परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाएँ। अतः ऐसा सोचने पर समाज की तरक्की अलग रह जाती है। अतः वर्तमान शिक्षा का लक्ष्य सभ्य होना, सदाचारी होना स्वास्थ्य लाभ करना तथा आदर्श नागरिक बन कर देश का कल्याण करना नहीं रहा, बल्कि परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेना मात्र ही रह गया है।

परीक्षा की परिभाषा (Definition of Exam)

किसी क्षेत्र में छात्रों की उपलब्धि अथवा योग्यता की जाँच के लिए जो प्रक्रिया प्रयुक्त की जाती है, उसे परीक्षा कहते हैं।

परीक्षा का महत्त्व (Importance of Exam)

परीक्षा के महत्त्व के सम्बन्ध में मुदालियर कमीशन ने कहा है, "परीक्षा और मूल्याकन का शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। छात्रों ने अपने अध्ययन काल में किस सीमा तक उन्नति की है, इसकी जाँच शिक्षक तथा अभिभावक दोनों के लिए आवश्यक है।" परीक्षा किसी-न-किसी रूप में सदा ही विद्यमान रही है। प्राचीन काल में शिक्षा आश्रमों में दी जाती थी और परीक्षा का रूप अलग था। भारतवर्ष में वुड योजना एवं घोषणा-पत्र के अनुसार लन्दन विश्वविद्यालय को आदर्श मान कर सन् 1850 के पश्चात् विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई और उनके साथ ही आधुनिक परीक्षाओं का जन्म हुआ।

परीक्षाओं के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं के आलोक में समझा जा सकता है-

  1. छात्रों की ग्राहयता का आंकलन:- परीक्षाओं द्वारा छात्रों की ग्राहयता का आंकलन किया जाता है। इसके द्वारा छात्रों के ज्ञानात्मक पहलुओं, समझ एवं व्यावहारिक प्रयोग का आंकलन किया जाता है।
  2. उद्देश्यों का स्पष्टीकरण:- परीक्षा द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को स्पष्ट रूप-रेखा मिलती है। इनसे हमें पता चलता है कि कौन-कौन से से उद्देश्य प्राप्त हो गए है और कौन-कौन से उद्देश्य अभी प्राप्त किए जाने है।
  3. प्रेरणापरक:- परीक्षाएँ छात्रों के लिए एक प्रेरणा के रूप में भी कार्य करती हैं। प्राय: छात्रों में परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त करने की होड़-सी लगी रहती है।
  4. मार्गदर्शन में सहायक:- परीक्षा द्वारा छात्रों को मार्गदर्शन देने में भी काफी सहायता मिलती है। परीक्षा से प्राप्त परिणामों के द्वारा विद्यार्थी अपने गुणों व दोषों के बारे में जानते हैं तथा शिक्षकों को भी अपने गुण दोषों का आभास होता है। इस कारण वे पुनः छात्रों का मार्गदर्शन करते है।
  5. व्यक्तित्व की जाँच:- परीक्षाएँ छात्रों के व्यक्तित्व के बारे में भी जानकारी प्रदान करती है। इससे हमें उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं जैसे कि बुद्धि, समझ, ज्ञान, रुचियों आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
  6. विद्यालय व अध्यापकों की निपुणता की जाँच में सहायक:- परीक्षाओं के द्वारा विद्यालय कार्यक्रम एवं अध्यापकों की निपुणता की भी जाँच होती है। इसके द्वारा हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि छात्र ने एक शैक्षिक सत्र के दौरान क्या कुछ सीखा है।
  7. अगली कक्षा में दाखिले के लिए मानक:- परीक्षाओं के प्रमुख कार्यों में से एक कार्य है कि इनके द्वारा छात्रों को अगली कक्षा में दाखिल करने के लिए मानक मिलते हैं।
  8. छात्रवृत्तियाँ प्रदान करने में सहायक:- परीक्षाओं को कई प्रकार की छात्रवृत्तियों के लिए भी आधार बनाया जा सकता है। अधिकतर छात्रवृत्तियाँ परीक्षाओं में प्राप्त नतीजों के आधार पर ही दी जाती है।

परीक्षा के प्रकार (Type of Exam)

परीक्षाएँ दो प्रकार की होती हैं-

1. बाह्य परीक्षाएँ:— वह परीक्षाएँ हैं जिनका संचालन क्रमशः सेकेण्डरी बोर्ड एवं यूनिवर्सिटी करती है।

2. आन्तरिक परीक्षाएँ:- यदि स्कूल के छात्रों की विभिन्न विषयों में तथा जो कुछ उन्होंने ग्रहण किया हो, उसकी जांच स्कूल के अध्यापक लेंगे तो वह आन्तरिक परीक्षा कहलाती है, जैसे प्रवेश परीक्षा, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध-वार्षिक एवं वार्षिक परीक्षा । ये परीक्षाएँ छात्र तथा अध्यापक, दोनों को प्रेरणा देती हैं। इनसे निम्नलिखित लाभ होते हैं-

  • अध्यापक को प्रेरणा मिलती है और वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है।
  • अध्यापक को सार्वजनिक स्तर प्राप्त होता है।
  • परीक्षा के कारण उद्देश्यों का स्पष्टीकरण होता है।
  • परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के बाद सामाजिक मान्यता मिलती है।

वर्तमान परीक्षा प्रणाली के दोष (Drawbacks of the present examination system)

आज जिस परीक्षा प्रणाली का प्रयोग हम अपने छात्रों के मूल्यांकन के लिए करते हैं, उस प्रणाली में बहुत दोष है। यह प्रणाली पुरानी परंपरागत तथा दोषपूर्ण है। यह प्रणाली शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्यों की प्राप्ति में पूरी तरह से असफल रही है। विभिन्न विद्वानों ने परीक्षा-प्रणाली के दोषों पर प्रकाश डाला है।

बी. एस. ब्लूम के अनुसार, "परीक्षा प्रणाली, जो टेस्टों पाठ्यक्रम, विषय-वस्तु, पाठ्य-पुस्तकों एवं शिक्षा, विधियों से मिलकर बनी है, ने एक बहुत बड़ी साजिश रची है, जिसके कारण शिक्षा से संबंधित हरेक व्यक्ति यह विश्वास करने लगा है कि सीखना रटने द्वारा याद करना है।"

रायबर्न के अनुसार, “इसमें कोई शक नहीं कि परीक्षाएँ सृजनात्मक कार्य की दुश्मन होती राधाकृष्णन् आयोग के अनुसार, "यदि परीक्षाएँ आवश्यक हैं तो इनमें सुधार उससे कहीं अधिक आवश्यक है।"

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अनुसार, "पिछली आधी शताब्दी से परीक्षाओं को भारतीय शिक्षा का सबसे बुरा लक्षण माना गया है।"

वर्तमान परीक्षा प्रणाली में निम्नलिखित दोष है-

  • आजकल की परीक्षा प्रणाली में छात्र केवल परीक्षा पास करना ही ध्येय समझता है। ज्ञान एवं स्तर की न तो अध्यापक ही परवाह करता है और न ही छात्र।
  • अतः आजकल परीक्षा का आर्थिक महत्त्व इतना बढ़ गया है कि, 'ज्ञान के हेतु' के स्थान पर यह 'धन के हेतु' ही है। परीक्षा पास करके नौकरी प्राप्त करना इसका उद्देश्य समझा जाता है।
  • छात्र कुंजियों पर आश्रित रहता है और उसे रटने तथा निबन्धात्मक उत्तर देने में ही कुशलता दिखानी पड़ती है।
  • अध्यापक भी छात्रों में गुणों का विकास करने की अपेक्षा उन्हें परीक्षा उत्तीर्ण कराना ही अपना ध्येय समझ लेता है।
  • वर्तमान परीक्षा एक कला है। जो इस कला में होशियार है, वह थोड़ा पढ़कर ही कक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं, परन्तु अधिक पढ़ने वाले, परीक्षा पास करने योग्य तैयारी व कला से अनभिज्ञ पास होने के मूल ध्येय से वंचित रह जाते हैं।
  • यह परीक्षा वर्ष भर के बाद में होती है। इसका समय प्रायः निश्चित रहता है और बालक बीमार हो जाने पर परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो सकता है। चाहे वह साल भर खूब पढ़ा हो, मगर थोड़ा समय पढ़ने वाला छात्र परीक्षा पास कर जाता है।
  • तीन घंटे की लिखित परीक्षा में सम्पूर्ण वर्ष की या पाठ्यक्रम की परीक्षा नहीं ली जा सकती। यह परीक्षा सैद्धान्तिक दृष्टि से अनुचित है।

विभिन्न आयोगों द्वारा परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए दिए गए सुझाव

विभिन्न शिक्षा आयोगों ने अपने-अपने समय में परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए अग्रलिखित सुझाव दिए हैं-

1. कोठारी आयोग ने परीक्षा प्रणाली में सुधार करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

  • लिखित परीक्षाओं को सुधारा जाना चाहिए।
  • बाहरी परीक्षाओं में प्रश्नों को वस्तुनिष्ठ बनाया जाना चाहिए।
  • जिन योग्यताओं का मापन लिखित परीक्षाओं द्वारा नहीं हो सकता, उनके मापन के लिए मूल्यांकन विधियों का आविष्कार किया जाना चाहिए।
  • बोर्ड की परीक्षाओं में प्रमाण-पत्रों में विषयों के प्राप्त अंको का विवरण होना चाहिए।
  • आंतरिक मूल्यांकन के लिए अध्यापक द्वारा निर्मित परीक्षाओं-मौखिक परीक्षाओं, प्रायोगिक परीक्षाओं, मनोवृत्तियों एवं रुचियों को जांचने के लिए विभिन्न मानक परीक्षाओं का उपयोग किया जाना चाहिए।
  • अनुत्तरदायी मूल्यांकन करने पर शिक्षा विभाग को ऐसे विद्यालय का अनुदान बंद करने का अधिकार होना चाहिए।
  • प्रमाण-पत्रों में पास फेल की घोषणा नहीं होनी चाहिए।
  • छात्रों को बोर्ड के प्रमाण-पत्र के साथ शिक्षण संस्था विद्यालय-लेखा भी मिलना चाहिए।

2. यूनेस्को की रिपोर्ट (1978) के सुझाव:– यूनेस्को द्वारा 1978 में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में वर्तमान परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं-

  • शैक्षिक एवं सह शैक्षिक पक्षों का मूल्यांकन - रिपोर्ट के अनुसार छात्रों के मूल्यांकन के लिए उनके शैक्षिक पक्ष का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
  • बाहरी परीक्षाओं को समाप्त करना- रिपोर्ट के अनुसार क्रमबद्ध प्रयासों से बाहरी परीक्षाओं को समाप्त कर दिया जाना चाहिए और इसके स्थान पर सतत् एवं समग्र मूल्यांकन को लागू किया जाना चाहिए।
  • प्राप्ति के स्तर पर सुधार- रिपोर्ट के अनुसार मूल्यांकन द्वारा प्रतिपुष्टि प्रदान करके छात्रों के प्राप्ति के स्तर में भी सुधार लाया जाना चाहिए।
  • ग्रेड प्रदान करना- रिपोर्ट के अनुसार मूल्यांकन के लिए अंकों के स्थान पर ग्रेडों का उपयोग किया जाना चाहिए।
  • निरंतर पुनर्निरीक्षण रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं की विधियों एवं सामग्री का निरंतर पुनर्निरीक्षण किया जाना चाहिए।
  • प्रश्न बैंक — रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक शिक्षा से लेकर हर कक्षा के लिए एवं सभी विषयों के लिए प्रश्न बैंकों का विकास किया जाना चाहिए।
  • नियंत्रण एवं सुधार सोपान — रिपोर्ट के अनुसार नियंत्रण एवं सुधार के उपर्युक्त कदमों द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने की कोशिश की जानी चाहिए।

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के सुझाव

  • आत्म-पक्षता (Subjective) के अंशों को समाप्त करना ।
  • भाग्य के तत्व (Element of Luck / Chance) को समाप्त करना ।
  • सतत एवं समग्र मूल्यांकन को, शिक्षा के शैक्षिक एवं सह शैक्षिक क्षेत्र में लागू करना ।
  • रटने की प्रवृत्ति को समाप्त करना।
  • परीक्षा के संचालन में सुधार लाना।
  • शिक्षकों, छात्रों एवं माता-पिता द्वारा मूल्यांकन प्रक्रिया का प्रभावशाली उपयोग करना ।
  • सैकेंडरी स्तर पर, पड़ावदार ढंग से, सेमेस्टर प्रणाली लागू करना। (viii) अंकों की जग ग्रेडों का उपयोग करना।
  • शिक्षा सामग्री एवं विधियों में सहगामी परिवर्तन शामिल करना । इस प्रकार विभिन्न आयोगों, समितियों व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिए गए सुझावों को अपनाकर वर्तमान परीक्षा प्रणाली के दोषों से मुक्ति पाई जा सकती है।

4. माध्यमिक शिक्षा आयोग ने परीक्षा-पद्धति के सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

  • बाहा परीक्षाओं की संख्या कम से कम हो। माध्यमिक पाठ्यक्रम पूर्ण करने के उपरान्त ही केवल एक बाह्य या सार्वजनिक परीक्षा होनी चाहिए।
  • निवन्यात्मक परीक्षाओं के आत्मनिष्ठ तत्व को कम करने के लिए साथ-साथ वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • प्रश्नों का स्वरूप ऐसा हो जिससे बुद्धि के प्रयोग एवं समझदारी की जाँच हो सके।
  • प्रश्न विषय-वस्तु के तत्वज्ञान से सम्बन्धित हो।

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