बकासुर का वध | Bakasura ka Vadh | Mahabharat

नगरी के समीप एक गुफा में एक अत्याचारी राक्षस रहता था। वह पिछले तेरह वर्ष से एकचक्रा नगरवासियों पर बड़े जुल्म ढा रहा था। उस राक्षस का नाम बकासुर था।

बकासुर वध

एकचक्रा नगरी में पाण्डव बड़ी कठिनाई से अपना जीवनयापन कर रहे थे। उस नगरी के समीप एक गुफा में एक अत्याचारी राक्षस रहता था। वह पिछले तेरह वर्ष से एकचक्रा नगरवासियों पर बड़े जुल्म ढा रहा था। उस राक्षस का नाम बकासुर था। वह नगर के लोगों को जहां भी देखता मारकर खा जाता था। उसके अत्याचार से घबराकर वहां के लोगों ने मिलकर बकासुर से प्रार्थना की थी कि प्रति सप्ताह उसे जितनी मदिरा, मांस, अन्न, दूध, दही चाहिए वह उसे एक बैलगाड़ी में भरकर भेज दिया करेंगे। गाड़ी हांकने वाला और दो बैल, जो गाड़ी खींचकर उसके पास आएंगे, उन्हें भी वह खा लिया करेगा।

इस प्रकार वे रोज-रोज के भय से बच जाएंगे। बकासुर ने उनकी बात मान ली थी।

एक दिन उस आश्रयदाता ब्राह्मण की बारी आई। वह गाड़ी हांककर बकासुर के पास ले जाने वाला था। उस ब्राह्मण की पत्नी रोने लगी और कुंती के पूछने पर उसने कुंती को सारी बात बताई।

भीम ने भी सारी बात सुनी, क्योंकि उस दिन वह अपने भाइयों के साथ भिक्षा मांगने नहीं गया था।

“तुम घबराओ मत!” कुंती ने अपनी आश्रयदाता ब्राह्मणी से कहा- "आज तुम्हारे पति की जगह मेरा पुत्र गाड़ी लेकर जाएगा।”

“नहीं बहन! मैं तुम्हारे पुत्र को संकट में नहीं डाल सकती।” ब्राह्मणी ने रोते हुए कहा।

"हां बहन! आप हमारी अतिथि हैं।” ब्राह्मण बोला— “अतिथि तो देवता के समान होता है। हम आपके बेटे को मौत के मुंह में नहीं धकेल सकते।”

“विप्रवर! आप चिंतित न हों।" कुंती ने उन्हें समझाया– “मैं अपने जिस बेटे को राक्षस के पास भेजूंगी, वह कोई साधारण बेटा नहीं है। तुम देखना वह उस राक्षस को मारकर ही लौटेगा।"

“हां माते! मैं जाऊंगा, उस दुष्ट राक्षस के पास।" भीम बोले– “लेकिन इस बात को आप गुप्त रखें।"

“भीम ठीक कहता है।" कुंती बोली– “अगर बात खुल गई तो मेरे बेटे की शक्ति क्षीण हो जाएगी।"

"लेकिन बहन! यह उचित नहीं है। इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं यह सामान लेकर जाऊं।" ब्राह्मणी बोली।

“बहन! तुमने विपत्ति में हमें सहारा दिया, रहने को आश्रय दिया। अब अगर तुम्हारे ऊपर विपत्ति आई है तो क्या हम पीछे हट जाएंगे?... नहीं, मेरा बेटा ही वहां जाएगा।" कुंती ने कहा।

ब्राह्मणी ने फिर कुछ नहीं कहा। नगर के लोग गाड़ी में मांस, मदिरा, दूध और दही के घड़े भरकर ब्राह्मण के द्वार पर ले आए। गाड़ी में दो काले बैल भी जुते थे। भीमसेन तत्काल गाड़ी में बैठ गए और गाड़ी को हांककर ले चला। नगर के लोग गाते-बजाते नगर की सीमा तक उसके साथ गए। नगर सीमा पर उनके रुक जाने पर उनके बताए स्थान की ओर भीम गाड़ी को हांककर ले गया।

गुफा के पास पहुंचकर भीमसेन ने देखा, जगह-जगह हड्डियां बिखरी पड़ी हैं और रक्त के छींटे चट्टानों पर गिरकर सूख गए हैं। चारों तरफ बदबू फैली थी। भीमसेन ने गुफा के द्वार पर गाड़ी रोकी और आराम से बैठकर साथ लाए भोजन को चट करने लगे।

उधर राक्षस भूख से तड़प रहा था। देर होते देख वह क्रोध में भरकर बाहर निकला तो उसने देखा कि एक लम्बा-चौड़ा आदमी आराम से बैठकर उसके लिए लाया गया भोजन खा रहा है। भीमसेन ने उसे देखा तो हंसकर बोला—“बकासुर! थोड़ी-सी मंदिरा बची है, इसे पी लूं तो तेरे से बात करूंगा।"

बकासुर गुस्से में भीम पर झपटा। वह देखने में बड़ा भयानक लग रहा था। भीमसेन ने उसकी परवाह न करके मंदिरा का घड़ा उठाकर पी लिया। राक्षस गुस्से में एक पेड़ उखाड़कर उन पर प्रहार करने के लिए आगे आया। भीमसेन आराम से उठे और उन्होंने राक्षस को पेड़ सहित उठाकर पत्थर पर दे मारा।

"दुष्ट राक्षस! तू मेरे को जरा विश्राम भी नहीं करने देता।" कहकर भीम ने उसकी ओर क्रोधपूर्वक देखा।

राक्षस की रीढ़ की हड्डी टूट गई थी। उसके मुख से खून बहने लगा था। कुछ ही पलों में उसने दम तोड़ दिया।

राक्षस को मारकर भीम ने उसके शव को गाड़ी में डाला और नगर के फाटक के पास लाकर उसे पटक दिया। फिर उन्होंने नदी में स्नान किया और अपनी मां के पास आकर सारा वृत्तांत सुनाया। माता कुंती अपने बेटे की बहादुरी पर फूली न समाई।

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