लाक्षागृह षड्यंत्र | Lakshagriha Shadyantra | Mahabharat

पाण्डवों की लोकप्रियता देखकर दुर्योधन उनसे बेहद ईर्ष्या करता था। विदुर उठाए गए प्रश्न का समाधान तत्काल नहीं हो सका। धृतराष्ट्र ने विचार करने के लिए

लाक्षागृह

हस्तिनापुर की राज्य सभा में एक दिन विदुर ने युवराज पद के लिए प्रश्न उठाते हुए कहा– “महाराज! पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर अब युवा हो गए हैं। हस्तिनापुर की प्रजा चाहती है कि युधिष्ठिर को युवराज का पद दिया जाए। इस पद के लिए वह सर्वाधिक योग्य व्यक्ति हैं।"

Lakshagriha Shadyantra | Mahabharat

जिस बात का डर धृतराष्ट्र को था, वही सामने आ रही थी। वे युधिष्ठिर के स्थान पर अपने पुत्र दुर्योधन को युवराज पद देना चाहते थे, परंतु कोई भी दुर्योधन को उसके दुष्ट आचरण के कारण पसंद नहीं करता था। जबकि धृतराष्ट्र का पुत्र मोह सर्वाधिक था।

पाण्डवों की लोकप्रियता देखकर दुर्योधन उनसे बेहद ईर्ष्या करता था। विदुर द्वारा उठाए गए प्रश्न का समाधान तत्काल नहीं हो सका। धृतराष्ट्र ने विचार करने के लिए थोड़ा समय मांग लिया। दुर्योधन को जब इस बात का पता चला तो वह आग-बबूला हो गया।

दुर्योधन गुस्से में भुनभुनाता हुआ तुरंत अपने पिता के पास पहुंचा और बोला— “पिताश्री! आप बड़े हैं। हस्तिनापुर राज्य पर आपका और आपके बाद आपकी संतान का अधिकार है। नेत्रहीन होने के कारण विदुर काका ने आपके साथ अन्याय किया है। अभी भी तो आप राज्य संचालन कर रहे हैं। फिर तब क्या हो गया था? विदुर काका ने आपको राजा न बनाकर पाण्डु काका को ही राजा क्यों बनाया? नेत्रहीनता ऐसी कोई बाधा नहीं थी।"

“तुम्हारा कहना सत्य है पुत्र!” धृतराष्ट्र ने शांति के साथ उत्तर दिया- “जो हो गया, उसे भूल जाओ। पुत्र युधिष्ठिर श्रेष्ठ गुणों से युक्त मेरे धर्मात्मा भाई पाण्डु का पुत्र है। वह सदैव धर्मानुसार आचरण करता है। सबका आदर करता है और सबसे स्नेह करता है। हमारे सारे मंत्रिगण, सेनानायक, सैनिक और प्रजा भी महाराज पाण्डु का उपकार मानते रहे हैं। वे कभी भी नहीं चाहेंगे कि युधिष्ठिर के स्थान पर किसी अन्य को युवराज बना दिया जाए। अगर हमने अपनी मनमानी की तो प्रजा हमारे विरुद्ध हो जाएगी।"

“आप तो व्यर्थ में डरते हैं।" दुर्योधन क्रोध में भरकर बोला– “राजभवन और हस्तिनापुर में मेरा प्रभाव भी किसी से कम नहीं है। मामा शकुनि और आपके मित्र कर्णिक मेरे पक्ष में हैं।"

"अच्छा याद दिलाया तुमने पुत्र!" धृतराष्ट्र बोले- "मैं आज ही अपने मित्र कर्णिक को बुलाकर बात करूंगा।"

संध्या समय महाराज धृतराष्ट्र के संदेश पर कर्णिक, महाराज धृतराष्ट्र से मिलने आया। धृतराष्ट्र ने अपने मन की इच्छा कर्णिक के सामने रखी। कर्णिक अत्यंत चतुर और नीति कुशल व्यक्ति था। जिस समय वह आया था, उसके कुछ देर बाद ही शकुनि भी हाल-चाल पूछने के बहाने वहां चला आया था। कर्णिक ब्राह्मण था और शकुनि का मंत्री था।

महाराज धृतराष्ट्र की बात सुनकर कर्णिक बोला— “राजन! इस संसार में जो शक्तिशाली हैं और ऐश्वर्यवान है, यह संसार उसी को श्रेष्ठ मानता है। पाण्डव आपके भतीजे ही नहीं, शक्ति-संपन्न भी हैं। यदि आपको अपने पुत्र दुर्योधन को युवराज बनाना है तो पाण्डु पुत्रों को उसके मार्ग से हटाना होगा। वरना आप पछताते रह जाएंगे।"

"जीजाश्री! कर्णिक ठीक ही तो कह रहा है।” शकुनि उतावलेपन में बोला– “राजनीति के जानकार लोगों का मत यही है कि एक राजा को सदैव अपने बल का प्रदर्शन करते रहना चाहिए। यदि भविष्य में कोई उसकी सत्ता के लिए चुनौती देने वाला हो तो उसका सिर उठने से पहले ही कुचल देना चाहिए।"

“गांधार युवराज शकुनि का मत उचित है राजन!” कर्णिक बोला– “राज-काज की इन बातों को सदैव गुप्त रखकर चुपचाप कार्य को अंजाम देना चाहिए। शत्रु की ताकत भले ही कम हो, उसे तत्काल कुचल डालने में ही भलाई है। कभी-कभी छोटी-सी चिंगारी भी सारे वन में आग लगा देती है।”

“जीजाश्री! वश में आए शत्रु का तत्काल वध कर देना चाहिए।” शकुनि ने धृतराष्ट्र को उकसाया।

“राजन! यदि आप अपने पुत्र दुर्योधन को युवराज बनाना चाहते हैं तो पाण्डु पुत्रों से आपको उसका बचाव करना ही होगा।”

“कैसे बचाव करूं कर्णिक? यही तो समस्या है?” धृतराष्ट्र ने अपनी चिंता प्रकट की।

“राजन! वारणावत में इस वर्ष भी भारी मेला लगने वाला है। उस मेले में हस्तिनापुर का युवराज सदैव से राजघराने का प्रतिनिधित्व करता है। आप युधिष्ठिर को ही युवराज बना दें और फिर उसे उसके भाइयों के साथ उस मेले में भेज दें।"

"इससे क्या होगा?”

"यह सब आप हम पर छोड़ दें।" शकुनि ने कहा-"वे यदि वहां जाएंगे तो फिर कभी लौटकर वापस नहीं आ पाएंगे।"

"ठीक है। जैसा चाहो, करो। मेरे ऊपर कोई आंच नहीं आनी चाहिए।"

"आपके ऊपर कोई आंच नहीं आएगी। आप निश्चिंत रहें।" शकुनि ने कर्णिक को संकेत से उठाया और दोनों राजा को प्रणाम करके चले गए।

अगले दिन, राजसभा में युधिष्ठिर को युवराज घोषित कर दिया गया। इतनी जल्दी युवराज बनाए जाने से विदुर सोच में पड़ गए। जल्दी ही उन्हें पता चल गया कि पाण्डयों को वारणावत के मेले में भेजा जा रहा है।

विदुर ने मन-ही-मन सोचा- 'इसमें जरूर कोई गहरी चाल है', पर किसी से कुछ कहा नहीं। राजभवन में सभी जगह विदुर के गुप्तचर लगे थे। एक दिन उनके एक विश्वासपात्र ने उन्हें बताया कि वारणावत में पाण्डवों के रहने के लिए पुरोचन द्वारा एक ऐसा 'लाक्षागृह' बनवाया जा रहा है, जो जरा-सी आग पकड़ते ही स्वाहा हो जाएगा।

विदुर चिंतित हो उठे। वे समझ गए कि दुर्योधन और शकुनि पाण्डवों को 'लाक्षागृह' में जलाकर मार डालना चाहते हैं। जिस समय से पाण्डवों ने वारणावत के मेले में जाने की स्वीकृति दी थी, उसी दिन से दुर्योधन बेहद खुश नजर आ रहा था।

उधर पुरोचन वारणावत में तेजी से सन, घी, मोम, तेल, लाख और चर्बी आदि की लुगदी से लाक्षागृह का निर्माण बड़ी तीव्रता से करा रहा था। विदुर पल-पल की खबर रख रहे थे। मेला प्रारंभ होने से पहले ही लाक्षागृह बनकर तैयार हो गया। इधर पांचों भाई अपनी माता कुंती के साथ वारणावत के मेले में हस्तिनापुर राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए, महाराज धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह और विदुर से आज्ञा लेकर चल पड़े।

चलते समय विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में कहा- “पुत्र! जो राजा अपनी राजनीतिक कुशलता से शत्रु की चाल को समझ लेता है, वही विपत्ति पर विजय प्राप्त कर पाता है। इस संसार में युद्ध में प्रयोग करने वाले कुछ ऐसे हथियार भी होते हैं, जो किसी धातु के बने नहीं होते। ऐसे हथियारों से अपन बचाव करने का उपाय जो समझ लेता है, उसे कोई शत्रु नहीं मार सकता, जो चीज ठंडक दूर करती है और जंगलों का विनाश कुछ देर में ही कर देती है, व बिल में रहने वाले चूहे को छू भी नहीं सकती। जैसे जानवर सुरंग खोदकर ऐस जंगली आग से अपना बचाव कर लेते हैं और बुद्धिमान लोग नक्षत्रों को देखक दिशाओं को पहचान लेते हैं।"

"तातश्री! मैं आपकी बात समझ गया।" युधिष्ठिर ने यह कहकर विदुर में विदा ली। मार्ग में युधिष्ठिर ने विदुर की बात का अर्थ अपने सभी भाइयों और माता कुंती को बता दिया। दुर्योधन की नीयत जानकर सभी को बड़ा क्रोध आया, किंतु युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया कि इस समय चुप रहने में ही भलाई है।

वारणावत में पुरोचन ने पाण्डवों का स्वागत किया और उन्हें बड़े प्रेम से लाक्षागृह में ठहराया। उस भवन का नाम 'शिवम्' रखा गया था, जिसका अर्थ कल्याणकारी होता है। पांचों पाण्डव उस लाक्षागृह में रहने लगे। उन्होंने पुरोचन को जरा भी यह भान नहीं होने दिया कि दुर्योधन के षड्यंत्र का भेद वे जान गए हैं।

जल्दी ही विदुर का एक आदमी पाण्डवों से आकर मिला। वह सुरंग खोदने वाला था। उसने विदुर का संदेश अकेले में पाण्डवों को दिया। पाण्डवों ने उसे लाक्षागृह में रख लिया। उसकी सहायता से रातों-रात उन्होंने भवन से बाहर जंगल की ओर पड़ने वाले सिरे तक एक सुरंग बना डाली। सारा काम इतने गुप्त रूप से हुआ था कि पुरोचन, जो उस भवन के आगे वाले कक्ष में टिका हुआ था, उसको भी इस बात का पता नहीं चल सका।

जिस दिन वारणावत में मेले का बड़ा उत्सव था, उस दिन युधिष्ठिर ने लाक्षागृह में सभी लोगों के लिए भोजन का प्रबंध कराया। खूब खा-पीकर लोग चले गए, लेकिन एक विधवा ब्राह्मण स्त्री अपने पांच बेटों के साथ भवन में थककर सो गई।

रात्रि में पुरोचन ने भवन में आग लगवा दी। लाक्षागृह धू-धू करके जलने लगा। इस बीच भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर अपनी माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते भवन से सुरक्षित बाहर निकल गए।

लाक्षागृह में लगी आग देखकर लोगों के झुंड-के-झुंड आग बुझाने के लिए आ जुटे। उनमें से किसी ने पुरोचन के हाथ में मशाल देखी तो वे अपने क्रोध पर काबू न पा सके। उन्होंने पुरोचन को उठाकर आग में झोंक दिया। दुर्योधन द्वारा पाण्डवों को जलाकर मार डालने का उन्हें गहरा दुख भी था और क्रोध भी कुछ ही देर में लाक्षागृह जलकर राख का ढेर बन गया।

हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र और दुर्योधन को पाण्डवों के जलकर मर जाने का समाचार मिला तो मन-ही-मन वे बहुत प्रसन्न हुए, परंतु ऊपर से विलाप करते रहे। शोक का पूरा दिखावा उन्होंने किया और गंगा के तट पर पाण्डवों की आत्मा की शांति के लिए उन्हें जलांजलि भी दी। विधवा ब्राह्मणी और उसके बेटो के कंकालों को ही पाण्डव समझ लिया गया। केवल विदुर ने दिखावा नहीं किया। वे उन्हें समझाते रहे कि मरना-जीना तो सभी के साथ लगा रहता है। यह सब तो प्रारब्ध की बात है।

उधर पाण्डव जब लाक्षागृह से सकुशल निकल आए तो वे गंगा के तट पर पहुंचे। वहां उन्हें विदुर द्वारा भेजी एक नाव मिली। वे उसी में सवार होकर गंगा के पार उतर गए। दूसरी ओर गहन वन था। रात-भर वे उसी वन में भटकते रहे। चलते-चलते वे बुरी तरह थक गए थे। प्यास से उनका गला खुश्क हो रहा था। चारों ओर भयानक जंगली जानवरों की आवाजें गूंज रही थीं, किंतु वे निडरता से आगे बढ़ते रहे। इसी तरह वे भूखे-प्यासे कई दिन तक जंगलों में भटकते रहे। कन्दमूल खाकर और सरोवरों का जल पीकर वे किसी तरह अपना समय काट रहे थे। चलते-चलते थक जाते तो विश्राम कर लेते और फिर चल पड़ते।

तभी एक दिन मार्ग में महर्षि व्यास से उनकी भेंट हुई। सभी ने उन्हें दण्डवत प्रणाम किया। व्यासजी ने उन्हें धीरज बंधाया और कहा— "वत्स! कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो सदैव धर्म पर ही चलता रहे और ऐसा भी कोई नहीं है जो सदैव पाप कर्म ही करता रहे। संसार में धर्म और पाप साथ-साथ चलते हैं, अतः विपत्ति को अपने कर्मों का फल समझकर स्वीकार कर लेना चाहिए और उसे सहन करना चाहिए। मेरी सलाह मानकर तुम ये राजसी वस्त्र उतार दो और साधारण तथा निर्धन ब्राह्मणों का वेश धारण करके एकचक्रा नगरी की ओर निकल जाओ। कुछ दिन वहीं छिपकर रहो।”

व्यासजी की सलाह पर पाण्डवों ने राजसी वस्त्र उतार दिए और मृगचर्म तथा वल्कल आदि धारण करके ब्राह्मण ब्रह्मचारियों के वेश में एकचक्रा नगरी में एक ब्राह्मण के घर जाकर रहने लगे। वे प्रतिदिन भिक्षा मांगकर लाते और अपना भरण-पोषण करते।

दूसरी ओर पाण्डवों के मर जाने के समाचार से भीष्म पितामह को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने अपने कक्ष में अपने आपको बंद कर लिया और सभी से मिलना-जुलना बंद कर दिया। महाराज धृतराष्ट्र ने बार-बार विदुर से यही कहा कि इस षड्यंत्र के बारे में उन्हें कुछ पता नहीं था, किंतु विदुर जानते थे कि पुत्र-मोह के कारण ही धृतराष्ट्र अपने अहंकारी पुत्र दुर्योधन की हर बात मान लेते हैं।

गांधारी ने किसी प्रकार भीष्म को समझाया कि वे ही इस राज्य के सर्वोपरि हैं और कुरुवंश के रक्षक हैं। यदि उन्होंने ही मुंह मोड़ लिया तो कुरुवंश समाप्त हो जाएगा। भीष्म को राजी करके दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया गया। विदुर के अलावा सभी ने यह विश्वास कर लिया कि पाण्डव अब जीवित नहीं रहे। भीष्म ने भी यह मानकर संतोष कर लिया कि परमात्मा को यही स्वीकार था।

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