महाभारत में इन्द्रप्रस्थ नगरी का निर्माण | Indraprastha Nagari ka Nirman | Mahabharat

उचित समय पर पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का यथाविधि राज्याभिषेक किया और हस्तिनापुर का आधा राज्य पाण्डवों को दे दिया।

राज्य विभाजन और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण

द्रोपदी स्वयंवर में अर्जुन विजय का समाचार हस्तिनापुर में सबसे पहले विदुर को मिला। विदुर अत्यन्त प्रसन्न होकर महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचे।

Indraprastha Nagari ka Nirman | Mahabharat

“भ्राताश्री! हमारा कुरुवंश अब और भी शक्तिशाली हो गया है। राजा द्रुपद की पुत्री द्रोपदी हमारी बहू बन गई है।"

विदुर की बात सुनकर महाराज धृतराष्ट्र ने समझा कि उनके पुत्र दुर्योधन ने स्वयंवर जीत लिया है। इसी से वे अत्यधिक प्रसन्न होकर बोल पड़े- "विदुर आज का दिन बड़ा शुभ  है। पांचालराज की बेटी का स्वागत खूब धूमधाम से होना चाहिए।"

"भ्राताश्री! एक प्रसन्नता की बात और है। हमारे पाण्डु पुत्र और मामीश्री कुंती जीवित हैं।"

"क्या!" धृतराष्ट्र चौंक पड़े– “क्या यह सत्य है विदुर?"

“हां भ्राताश्री! सत्य है और यह भी सत्य है कि द्रोपदी स्वयंवर में अर्जुन ने द्रोपदी को विजित किया है। वहां पांचों भाइयों ने द्रोपदी के साथ विधिवत् विवाह किया है और वे देवी कुंती के साथ पांचालराज के अतिथि हैं।”

विदुर की बात सुनकर धृतराष्ट्र का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया, किंतु तत्काल हर्ष का प्रदर्शन करते हुए धृतराष्ट्र बोले– “विदुर! यह तो और भी बड़ा शुभ समाचार है। हमारा अहोभाग्य, जो हमारे पाण्डु पुत्र जीवित हैं और अब पांचाल राज की कन्या द्रोपदी हमारी बहू बन गई है। उन्हें यहां बुलाने का प्रबंध करो।"

“जी भ्राताश्री!” विदुर प्रसन्न मन वहां से चला गया।

दूसरी ओर दुर्योधन अपने मामा शकुनि के सम्मुख क्रोध और विवशता में मुंह लटकाए आंसू बहा रहा था— “मामाश्री! यह तो मेरा घोर अपमान है। निकम्मे पुरोचन ने हमारी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। अब आप ही बताएं कि हम क्या करें?"

"जरा धैर्य रखो दुर्योधन!” शकुनि ने कहा- “मुझे तो अब यह चिंता खाए जा रही है कि युधिष्ठिर के वापस हस्तिनापुर आने से तुम्हारा युवराज पद न छिन जाए! हमें कुछ करना होगा।"

"जो करना है जल्दी कीजिए मामाश्री! वर्ना में किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगा। इससे तो अच्छा होगा कि मैं आत्महत्या ही कर लूं।"

"हां, यह ठीक रहेगा।"

"क्या?" दुर्योधन चौंका।

“भांजे! चौंको मत। तुम इसी समय जीजाश्री महाराज धृतराष्ट्र के पास जाओ और उनसे यही बात कहो।"

"कौन-सी बात?”

“यही कि अगर युधिष्ठिर को फिर से युवराज पद दिया गया और यह पद तुमसे छीना गया तो तुम आत्महत्या कर लोगे। तुम्हारी यह धमकी ज़रूर काम कर जाएगी।" शकुनि ने दुर्योधन को समझाया।

दुर्योधन तत्काल अपने पिताश्री महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचा और उसने वैसा ही कहा जैसा कि शकुनि ने उसे समझाया था। दुर्योधन की बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र-मोह में व्याकुल होकर सहम से गए।

किसी ने सत्य ही कहा है कि अपनी संतान के आगे अच्छे-से-अच्छे व्यक्ति का सिर भी झुक जाता है।

धृतराष्ट्र ने उसे समझाया— “ऐसा नहीं कहते पुत्र! कोई तेरा पद नहीं छीनेगा। मैं कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही लूंगा। अभी तुम शांत रहो।”

धृतराष्ट्र ने पितामह भीष्म और विदुर के सामने यह समस्या रखी कि एक ही राज्य में दो-दो युवराज कैसे रह सकते हैं। दुर्योधन अपना पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं है और युधिष्ठिर पहले से ही युवराज है। अगर उसकी मृत्यु की खबर न आती तो दुर्योधन को कदापि युवराज न घोषित किया जाता।

इधर भीष्म काफी देर तक विचार मग्न चुप बैठे रहे। जब उनसे बार-बार आग्रह करके पूछा गया तो उन्होंने कहा– "पुत्र! अब यही उचित है कि पाण्डवों को स्नेहपूर्वक हस्तिनापुर साम्राज्य का आधा भाग दे दिया जाए। इससे कुरुवंश की मान-मर्यादा भी बचेगी और प्रजा भी नाराज नहीं होगी तथा दोनों युवराजों की समस्या भी हल हो जाएगी।"

भीष्म पितामह की सलाह सबको अच्छी लगी। किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया। धृतराष्ट्र ने अपना दूत भेजकर पांचाल देश से पाण्डवों को बुलवा लिया। विदुर के आश्वासन पर पांचों पाण्डव और कुंती हस्तिनापुर पहुंचे। उनका बड़े प्रेम से आदर-सत्कार किया गया।

उचित समय पर पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार महाराज धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का यथाविधि राज्याभिषेक किया और हस्तिनापुर का आधा राज्य पाण्डवों को दे दिया।

इस अवसर पर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए कहा – “पुत्र युधिष्ठिर! मैं जानता हूं कि मेरे पुत्र बड़े दुरात्मा हैं और तुम सभी धर्म का आचरण करने वाले हो। मैंने तुम्हें खाण्डवप्रस्थ का राज्य इसलिए दिया है कि तुम अपने शौर्य और प्रताप से उस उजाड़ प्रदेश को फिर से बसा लोगे। इससे मेरे बेटों के साथ तुम्हारी शत्रुता होने की संभावना भी नष्ट हो जाएगी। खाण्डव प्रस्थ को फिर से बसाने का श्रेय तुम्हें ही प्राप्त होगा।"

धृतराष्ट्र के स्नेह भरे वचनों को सुनकर युधिष्ठिर ने अपना शीश नवाया और बोला— “तातश्री! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। हम भी नहीं चाहते हैं कि भ्राता दुर्योधन को हमारी ओर से कोई कष्ट पहुंचे।"

पाण्डव, खाण्डव वन के बीहड़ क्षेत्र में चले आए। श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डवों ने खाण्डवप्रस्थ के खण्डहरों पर नए-नए भवन, नगर और गांव बसाए। भयानक वनों को जलाकर साफ किया गया। नई-नई सड़कें बनाई गई। कुछ ही समय में पाण्डवों ने इन्द्रपुरी के समान भव्य और रमणीय नगर बसा लिया। इस नए नगर का नाम ‘इन्द्रप्रस्थ’ रखा गया। स्वच्छ चौड़ी सड़कें, फलदार वृक्ष, सुंदर उद्यान नगर की शोभा बढ़ाने लगे। इस नगर की चर्चा सुनकर दूर-दूर से बड़े-बड़े सेठ, साहूकार, कारीगर और बुद्धिजीवि विद्वान यहां आकर रहने लगे। धृतराष्ट्र ने सोचा था कि पाण्डव जीवन-भर खाण्डव वन को साफ करने में ही लगे रहेंगे और वहीं मर खप जाएंगे। उनके पुत्र दुर्योधन को उनकी ओर से कोई भय नहीं रहेगा, परंतु उनकी सारी सोच को पाण्डवों ने अपने अटूट परिश्रम से धूल में मिला दिया। पाण्डवों को यहां तक पहुंचने में तेरह वर्ष लगे।

पाण्डवों का नया इन्द्रप्रस्थ राज्य स्थायित्व पा गया तो उन्होंने कुछ दिन बाद राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया। धर्मराज युधिष्ठिर की सत्य निष्ठा, प्रजा पालन के प्रति गहरा अनुराग और शत्रु-विजय से सुरक्षित हुआ राज्य, धर्म पालन में लगा हुआ था। युधिष्ठिर ने सभी दिशाओं में राजसूय यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण भेज दिए। भीष्म, धृतराष्ट्र और विदुर आदि को बुलाने के लिए स्वयं नकुल हस्तिनापुर गए।

जब धृतराष्ट्र ने सुना कि युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे हैं तो धृतराष्ट्र को अति प्रसन्नता हुई, परंतु दुर्योधन चिंतित हो उठा। फिर भी हस्तिनापुर से सभी परिजन राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आए। स्वयं दुर्योधन भी आया। इन्द्रप्रस्थ में आकर दुर्योधन ने जब पाण्डवों की संपन्नता को देखा तो वह ईर्ष्या से जल उठा। कर्ण और मामा शकुनि ने उसकी ईर्ष्या की अग्नि में घी डालने का काम किया।

दुर्योधन और शकुनि दोनों भौचक्के से सभा भवन के वैभव को निहार रहे थे। दुर्योधन ने कहा– “मामाश्री! ऐसे दिव्य दृश्य तो हस्तिनापुर में भी देखने को नहीं मिलते।”

"देखते चलो भांजे! यह नगरी तो माया नगरी के समान दिखाई पड़ रही है।" दुर्योधन आगे बढ़ा तो मामा शकुनि ने टोका– “भांजे ! वस्त्र ऊपर कर लो, सामने पानी है।"

दुर्योधन ने वस्त्र ऊपर कर लिए, लेकिन वहां पानी नहीं था। पानी का भ्रम था। दुर्योधन मन-ही-मन लज्जित हुआ और उसने अपने उठाए वस्त्र नीचे कर लिए। वह आगे बढ़ा। वह पूरे आत्मविश्वास से चलने लगा, तभी उसकी दृष्टि मणियों से बने सुंदर कमल पर पड़ी। एक दम सजीव पानी में खिले कमल के समान। दुर्योधन को लगा कि यह भी भ्रम है। उसने कदम आगे बढ़ाया तो वह छपाक से जल में गिर पड़ा।

दुर्योधन की दशा देखकर पाण्डु कुमार हंसने लगे। इसी हंसी के बीच द्रोपदी का स्वर सुनाई दिया—“अंधों के घर अंधे ही पैदा होंगे।”

दुर्योधन अपने इस उपहास को सहन नहीं कर सका। उसने द्रोपदी की ओर देखा। गवाक्ष (छोटी खिड़की का झरोखा) में खड़ी द्रोपदी हंस रही थी। वह बौखला गया। शीघ्रता से वह पानी से बाहर आया। लज्जावश उसने सामने दिखाई पड़ रहे एक दरवाजे में प्रवेश करना चाहा, किंतु हड़बड़ी और तेजी में आगे बढ़ने का परिणाम यह हुआ कि वह एक पत्थर की दीवार से जा टकराया। वह दरवाजा नहीं था। दरवाजे का चित्र था। स्फटिक के बने उस दरवाजे के चित्र से टकराकर दुर्योधन चक्कर खाकर नीचे बैठ गया।

दुर्योधन की दशा देखकर सभी उस पर हंस रहे थे। दुर्योधन क्रोध में भरकर यह भी भूल गया कि वह कहां है। गहरे अपमान से उसका माथा फटा जा रहा था। वह शकुनि से बोला— “मामाश्री! ऐसे अपमान से तो मर जाना अच्छा है। आप चलिए यहां से।”

“धीरज रखो भांजे!” शकुनि ने उसे समझाया— “यह समय ईर्ष्या और क्रोध का नहीं है। पाण्डव सदैव अपने भाग्य का ही प्राप्त करते रहे हैं। जिसके सहायक श्रीकृष्ण हैं। उसका देवता तथा असुर कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। फिर भी तुम्हें विचलित होने की जरूरत नहीं है। महान धनुर्धर और पराक्रमी द्रोणाचार्य, उनका पुत्र अश्वत्थामा, महारथी कर्ण, मंत्रसिद्ध कृपाचार्य, राजा भूरिश्रवा जैसा वीर और राजनीतिक की कुटिल चालों में माहिर तुम्हारा यह मामा शकुनि, तुम्हारे साथ है। समय की प्रतीक्षा करो भांजे! राजनीति में कुछ भी असम्भव नहीं है। पाण्डवों पर विजय पाने के लिए केवल युद्ध ही नहीं, जीत के लिए और भी उपाय हैं।”

कैसा उपाय मामाश्री?" दुर्योधन ने बेचैनी से पूछा।

"बताता हूँ। पहले डेरे पर चलकर यह पीले वस्त्र बदल डालो। वहीं पर मैं तुम्हें उनमें से एक उपाय बताऊंगा। वह ऐसा उपाय है, जिसमें शकुनि ने आज तक किसी से हार नहीं मानी।"

दोनों अपने डेरे पर आए। दुर्योधन जब तक वस्त्र बदलकर आया, शकुनि चौसर के अपने पासों से खेलता रहा और गम्भीर बना रहा। दुर्योधन आया तो शकुनि से अपने पासे फर्श पर लुढ़काए। दुर्योधन का ध्यान पासों की ओर चला गया।

"ये तो चौसर के पासे है मामाश्री!"

"हां दुर्योधन!” शकुनि पासों को हथेली में बंद करके बोला— “भांजे! महाराज युधिष्ठिर को जुए का बहुत शौक है, लेकिन वे स्वयं इतने अच्छे खिलाड़ी नहीं हैं। तुम उन्हें जुए के लिए आमंत्रित करो। मैं इन्हीं पासों से उसका सारा वैभव और सुख-संपन्नता छीन लूंगा।"

“यदि द्यूत-क्रीड़ा के लिए उन्होंने मना कर दिया तो?"दुर्योधन ने धीरे से पूछा।

"युधिष्ठिर द्यूत-क्रीड़ा के लिए कभी मना नहीं करेगा।" शकुनि ने उसे समझाया— अपने पिताश्री महाराज धृतराष्ट्र को तुम्हें समझाना होगा और हर हाल में उन्हें द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) के लिए बुलाना ही होगा। तुम उन्हें समझाओ कि मामाश्री से बड़ा चौसर का खिलाड़ी तीनों लोकों में दूसरा नहीं है।"

"अगर पिताश्री नहीं माने तो?"

"फिर तुम अनशन करने बैठ जाना।" शकुनि ने उसे उकसाया— “तुम उनसे कहना कि अगर आप पाण्डवों को नहीं बुलाएंगे तो मैं अनशन करके अपनी जान दे दूंगा"

"ठीक है। मैं उनसे बात करूंगा।"

“उनसे यह भी कहना भांजे कि तुम्हारी जगह चौसर की बाजी पाण्डवों से मैं खेलूंगा।"

"ऐसा ही कहूंगा।" दुर्योधन उठ खड़ा हुआ।

बाद में शांति के साथ दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और अन्य बन्धु-बांधव युधिष्ठिर का राजसूय देखकर वापस लौट आए, परंतु मामा शकुनि और दुर्योधन के मन में ईर्ष्या और अपमान का बदला लेने का भाव बना ही रहा। वे इस बात से तो प्रसन्न थे कि सारा राजसूय यज्ञ पितामह भीष्म की देख-रेख में संपन्न हुआ था, परंतु इस बात से दुखी थे कि राजसूय यज्ञ में पितामह भीष्म के कहने पर द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की अग्रपूजा की गई थी। इसके अतिरिक्त सभी राजाओं ने युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट मान लिया था और उन्हें अमूल्य उपहार भेंट किए थे।

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