द्रोपदी चीर हरण | Draupadi Chir Haran | Mahabharat

द्रोपदी के इंकार करने पर दुःशासन ने द्रोपदी के केश पकड़ लिए और वह उसे जबरन घसीटता हुआ सभा मंडप में ले आया। घायल हिरनी-सी द्रोपदी आर्त स्वर में सभा में

द्यूत-क्रीड़ा का आयोजन और द्रोपदी चीर-हरण

हस्तिनापुर पहुंचने के बाद भी शकुनि की आंखों के सामने से युधिष्ठिर का राज-वैभव हट नहीं रहा था। दुर्योधन के कांतिहीन चेहरे को देखकर वह और भी अधिक चिंतित था। एक दिन अवसर देखकर उसने धृतराष्ट्र से कहा– “जीजाश्री! जब से दुर्योधन इन्द्रप्रस्थ से लौटा है, अत्यन्त चिंतित और दुखी दिखाई देता है। आपने क्या उससे पूछा कि ऐसा क्यों है?"

Draupadi Chir Haran | Mahabharat

"नहीं शकुनि! मैंने नहीं पूछा। नेत्रहीन होने के कारण मैं उसकी चिंता देख भी कैसे सकता हूं?" धृतराष्ट्र चिंतित हो उठे।

“भ्राताश्री! आप ही उससे पूछिए कि उसकी चिंता का कारण क्या है?" इस बार गांधारी ने शकुनि से कहा।

“नहीं बहन! यह मेरा काम नहीं है।" शकुनि ने उत्तर दिया। कुछ पल वह चुप रहा और बोला— “उसकी चिंता का कारण आपको ही पूछना चाहिए।”

“ठीक है। मैं उसे बुलाता हूं।" धृतराष्ट्र ने प्रतिहारी भेजकर दुर्योधन को बुलवाया और उससे उसकी चिंता का कारण पूछा, परंतु दुर्योधन बिना उत्तर दिए चुप खड़ा रहा।

धृतराष्ट्र और गांधारी व्याकुल हो उठे। गांधारी ने ही तब उससे पूछा– “पुत्र! क्या हस्तिनापुर का यह वैभव, यह सुख, यह स्वाधीनता, यह स्वच्छंदता, तुम्हें रास नहीं आ रही है, जो तुम चिंतित हो। क्या बात है, हमें बताओ?”

इस बार धृतराष्ट्र ने कहा- “पुत्र! तुम्हारे मामाश्री का कहना है कि तुम जबसे युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से लौटे हो, तभी से तुम व्याकुल हो। हमें बताओ, तुम्हारे पास किस चीज की कमी है?"

दुर्योधन इस बार फट पड़ा— “पिताश्री! युधिष्ठिर के वैभव के बारे में आपने केवल सुना ही है, उसे देखा नहीं। आप नहीं जानते, उस वैभव के सम्मुख हस्तिनापुर का वैभव कितना तुच्छ है। उसके वैभव और यश को देखकर मैं पागल हो गया हूं।"

"ऐसा नहीं कहते पुत्र!" गांधारी बोली- "युधिष्ठिर भी तो तुम्हारा भाई है।"

“माते! वह सब तो ठीक है, परंतु वहां पाण्डु कुमारों और उस द्रोपदी ने वैभव के मद में मेरा जो अपमान किया है, उसे मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। इससे तो अच्छा है कि मैं अपने जीवन का अन्त ही कर डालू।"

“इतना दुखी मत हो पुत्र!" धृतराष्ट्र बोले– “असंतोष की कोई सीमा नहीं होती। धैर्य धरो। जिसे तुम अपमान समझ रहे हो, वह उनका परिहास भी तो हो सकता है।"

“मैं उसी परिहास का बदला चाहता हूं पिताश्री!” दुर्योधन बोला– “आप युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिए यहां निमंत्रित कीजिए। मैं जुए में उनका सारा वैभव, सारी संपदा, सारा राज्य उनसे जीत लूंगा।"

“नहीं पुत्र! जुए का परिणाम कभी भी हितकर नहीं होता।" गांधारी शीघ्रता से बोली।

“बहन! जुआ दुर्योधन नहीं, मैं खेलूंगा इसकी ओर से।" बहुत देर से चुप बैठा शकुनि बोला– “तुम देखना, पाण्डव मेरे से जीत नहीं पाएंगे।"

“नहीं-नहीं! मैं द्यूत-क्रीड़ा के लिए पाण्डवों को आमंत्रित नहीं कर सकता।” धृतराष्ट्र बोले– “जुए का खेल शत्रुता उत्पन्न करता है। इस खेल से मामूली अनबन भी कभी-कभी विकराल रूप धारण कर लेती है। पाण्डव अब शक्तिशाली हैं। उनसे वैर करना ठीक नहीं होगा।"

“पिताश्री! मैं भ्राताश्री युधिष्ठिर से किसी शत्रुता के लिए इस द्यूत-क्रीड़ा का आयोजन नहीं कर रहा हूं।" दुर्योधन ने कूटनीतिक चाल चलते हुए कहा- "इससे हमारा संबंध प्रगाढ़ भी हो सकता है। इस पर भी यदि आपने युधिष्ठिर को द्यूत-क्रीड़ा के लिए निमंत्रण नहीं भेजा तो मैं इसी समय अपने प्राण त्याग दूंगा।"

धृतराष्ट्र और गांधारी का मन आशंका से कांप उठा। पुत्र प्रेम के सामने वे कमजोर पड़ गए। बोले—“ठीक है। मैं विदुर से बात करके संदेश भेज दूंगा। तुम सभा-मंडप तैयार कराओ।”

अपने पुत्र मोह में धृतराष्ट्र ने चौसर खेलने की अनुमति दे दी और सभा मंडप बनाने की आज्ञा दे डाली, किंतु विदुर से सलाह करना वे नहीं भूले।

विदुर ने राजा धृतराष्ट्र को समझाया— “भ्राताश्री! आपने दुर्योधन की बात मानकर उचित नहीं किया। इस द्यूत-क्रीड़ा से कुरुवंश के लोगों में मनमुटाव बढ़ेगा और व्यर्थ में झगड़े-फसाद होंगे। अच्छा तो यही है कि आप इस कुचाल को न होने दें।”

“विदुर! प्रारब्ध यदि अनुकूल हो तो इस खेल का भय नहीं मानना चाहिए। यदि भाग्य ही खोटा हो तो बात दूसरी है। अब तुम युधिष्ठिर के पास जाकर मेरी ओर से निमंत्रण दे आओ।”

विदुर ने फिर कुछ नहीं कहा और प्रणाम करके निकल गए। विदुर द्रुतगामी रथ पर सवार होकर इन्द्रप्रस्थ पहुंचे। वहां युधिष्ठिर ने विदुर का यथोचित सत्कार किया। विदुर से कुशल मंगल पूछने के बाद युधिष्ठिर ने उनके आने का कारण पूछा तो विदुर ने कहा- "पुत्र! भ्राता श्री धृतराष्ट्र ने तुम्हें चौसर खेलने के लिए। निमंत्रित किया है। अपने भाइयों के साथ जाओ और वहां चौसर खेलो।"

"काकाश्री! चौसर का खेल अनर्थ की जड़ है, फिर भी आप मुझसे इसे खेलने के लिए कह रहे हैं?" युधिष्ठिर ने पूछा।

“जानता हूं पुत्र, किंतु मैं राजाज्ञा से बंधा हूं। इसीलिए आना पड़ा। अब तुम्हारी इच्छा है, जाओ न जाओ।"

“काकाश्री! मैं तातश्री की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा।” युधिष्ठिर ने कहा— “इससे उनका अपमान होगा। मैं सपरिवार द्यूत-क्रीड़ा के लिए आऊंगा।"

विदुर युधिष्ठिर का उत्तर लेकर चले आए। उचित समय पर युधिष्ठिर अपने परिवार के साथ चौसर खेलने हस्तिनापुर जा पहुंचे। दूसरे दिन सभा-मंडप में चौसर का खेल प्रारंभ हुआ।

युधिष्ठिर ने सोचा था कि दुर्योधन उसके साथ खेलेगा, लेकिन जब उसने कहा कि उसकी जगह शकुनि खेलेगा तो युधिष्ठिर हिचकिचाए। इस पर शकुनि मुस्कराया— “क्या बात है युधिष्ठिर! मेरे साथ खेलने में तुम्हें पराजित हो जाने का डर लग रहा है?”

“नहीं। ऐसी कोई बात नहीं है मामाश्री। मैं आपके साथ खेलूंगा।” युधिष्ठिर ने तत्काल उत्तर दिया।

खेल शुरू हुआ। सारा मंडप दर्शकों से खचाखच भरा था। द्रोण, भीष्म, कृपाचार्य, विदुर, धृतराष्ट्र और अन्य वयोवृद्ध नगरवासी वहां उपस्थित थे।

पहले रत्नों की बाजी लगी, फिर सोने-चांदी के खजानों की। उसके बाद रथों, हाथियों और घोड़ों की। तीनों दांव युधिष्ठिर हार गए। युधिष्ठिर ने अपने सेवकों को दांव पर लगाया, उन्हें भी वे हार गए। एक-एक करके युधिष्ठिर अपना सारा राज्य ही हार गए। वे हारते जाते थे और फिर पुनः जीतने की लालसा से कुछ-न-कुछ दांव पर लगाते जाते थे। कौरव राजकुमार खुश हो रहे थे, जबकि पाण्डव मन मारकर बैठे थे। उसके बाद युधिष्ठिर ने एक-एक करके अपने चारों भाइयों और स्वयं अपने आपको भी दांव पर लगा दिया और हार गए।

“अब आपके पास क्या है, जिसे दांव पर लगाएंगे?" शकुनि ने हंसते हुए पूछा।

शकुनि की इस बात पर सभा में कोलाहल मचने लगा। शकुनि उठकर खड़ा हो गया और सबको संबोधित करके बोला—“शांत हो जाएं आप लोग। यह तो चौसर का खेल है। इसमें एक जीतता है तो दूसरा हारता है। ये पाण्डव अब कौरवों के युवराज दुर्योधन के गुलाम हो गए हैं। फिर भी एक चीज शेष है, जिसे युधिष्ठिर दांव पर लगाकर एक ही झटके में अपना अब तक का हारा हुआ सारा साम्राज्य, अपने भाई, अपनी दौलत वापस जीत सकते हैं।"

'वह क्या चीज है?' मंडप में शोर उठा।

"द्रोपदी!" शकुनि ने उच्च स्वर में कहा।

सारी सभा को जैसे सांप सूंघ गया। सभी के सिर नीचे झुक गए। कोई कुछ नहीं बोला। शकुनि ने मुस्कराकर युधिष्ठिर की ओर देखा। युधिष्ठिर एकाएक उत्तेजित होकर बोल पड़े— “ठीक है। मैं द्रोपदी को दांव पर लगाता हूं।"

धर्मात्मा युधिष्ठिर की बात पर सारी सभा में हाहाकार मच गया। भीम और अर्जुन की क्रोध में भुजाएं फड़कने लगीं। चारों ओर से धिक्कार की आवाजें आने लग— 'छि, यह घोर पाप है।'

इस शोर के बीच ही शकुनि ने पांसा फेंका और जोर से चिल्लाया— “लो, यह बाजी भी दुर्योधन ने जीत ली।”

सभा में सन्नाटा छा गया। युधिष्ठिर ने लज्जा से अपना सिर झुका लिया, तभी दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और विदुर की ओर देखकर बोला– “काकाश्री! आप रनवास में जाएं और द्रोपदी को यहां ले आएं।”

“मूर्ख! व्यर्थ में क्यों मृत्यु को न्योता दे रहा है?” विदुर क्रोध में भरकर उठ खड़े हुए। उन्होंने सारी सभा की ओर देखा और उच्च स्वर से बोले– “अपने आपको हार जाने के बाद युधिष्ठिर को कोई अधिकार नहीं था कि वह पांचाली को दांव पर लगाए। ऐसा लगता है कि कौरवों का अन्त समीप आ गया है।"

विदुर की बातों से दुर्योधन बौखला उठा- “काकाश्री! आप हमसे ईर्ष्या रखते हैं। हमारी जीत पर आपको कष्ट हो रहा है तो यहां से चले जाइए।"

विदुर गहरे अपमान बोध से त्रस्त होकर वहां से चले गए। दुर्योधन ने अपने सारथी प्रतिकामी को पुकारा– “प्रतिकामी! जाओ, द्रोपदी को रनवास से लेकर आओ।"

प्रतिकामी दुर्योधन की आज्ञा पाकर रनवास में गया और द्रोपदी से बोला— “महारानी! चौसर के खेल में युधिष्ठिर अपने भाइयों और अपने साम्राज्य के साथ आपको भी दांव पर लगाकर हार गए हैं। अब आप युवराज दुर्योधन के अधीन हो गई हैं। उनकी आज्ञा है कि मैं आपको लेकर सभा-मंडप में पहुंचूं।"

प्रतिकामी की बात सुनकर द्रोपदी भौचक्की रह गई। उसे लगा कि उसका कलेजा फट जाएगा। उसने प्रतिकामी से कहा- “सारथी! जाकर उस हारने वाले खिलाड़ी से पूछो कि पहले वह अपने आपको हारा था या मुझे? सारी सभा से यह प्रश्न पूछकर मुझे बताना, तभी मैं वहां चलूंगी।"

प्रतिकामी ने सभा में आकर द्रोपदी की बात दोहराई तो युधिष्ठिर से उत्तर देते नहीं बना। सारी सभा भी चुप रही। दुर्योधन ने प्रतिकामी से कहा– “उससे जाकर कहो, वह स्वयं यहां आकर क्यों नहीं पूछ लेती?"

द्रोपदी ने इस बार भी प्रतिकामी को वापस भेज दिया और सभा मंडप में आने से साफ इंकार कर दिया।

इस पर दुर्योधन क्रोध में भरकर चिल्लाया- "दुःशासन! उस घमंडी औरत को बालों से खींचकर यहां ले आओ।"

दुरात्मा दुःशासन तत्काल रनवास जा पहुंचा और द्रोपदी से बोला— “चलो सुंदरी! भ्राताश्री ने तुम्हें जुए में जीत लिया है। वे तुम्हें बुला रहे हैं।”

द्रोपदी के इंकार करने पर दुःशासन ने द्रोपदी के केश पकड़ लिए और वह उसे जबरन घसीटता हुआ सभा मंडप में ले आया। घायल हिरनी-सी द्रोपदी आर्त स्वर में सभा में उपस्थित वृद्धजन की ओर देखकर बोली- “आप लोग मेरा अपमान होते देखकर भी चुप बैठे हैं। जिसने जुए में हारकर अपनी स्वाधीनता में खो दी है, वह अपनी पत्नी को दांव पर कैसे लगा सकता है?”

बहुत देर से चुप बैठे भीष्म से चुप न रहा गया। वे उठकर खड़े हो गए और बोले– “महाराज धृतराष्ट्र! अपने पुत्रों को रोको, काल उनके सिर पर मंडरा रहा है।"

“पितामह! जो काल मेरे सिर पर मंडरा रहा है, उसे मैं स्वयं देख लूंगा।" दुर्योधन ने उच्च स्वर में कहा—“आप शांत होकर बैठ जाएं या फिर अपनी आंखें बंद कर लें। मैं कोई अन्याय नहीं कर रहा हूं। मैंने द्रोपदी को जीता है। अब मेरा जैसे मन चाहेगा, मैं इसके साथ व्यवहार करूंगा।"

भीष्म को पहली बार लगा कि कौरवों की सभा अब उनकी बात का कोई वजन नहीं है। वे अपमान का घूंट भरकर बैठ गए, तभी दुर्योधन के एक भाई विकर्ण ने कहा– “यह अन्याय है। द्रोपदी पांचों पाण्डवों की पत्नी है। उसे एक भाई दांव पर नहीं लगा सकता।"

“विकर्ण! तुम अभी बच्चे हो ।” कर्ण ने उसे टोका— “जिस समय युधिष्ठिर अपनी सारी संपत्ति हार गया, उसी समय द्रोपदी भी हारी हुई मानी जाएगी। इसके सारे आभूषण अब दुर्योधन के हैं।"

“हां! मित्र कर्ण ठीक कहता है।" दुर्योधन हंसा- "इसके सारे आभूषण और वस्त्र उतार लो दुःशासन!"

दुःशासन आगे बढ़ा, तभी भीम उठकर चिल्लाया- “दुःशासन! तूने जिन हाथों से द्रोपदी के केश पकड़े हैं, मैं इन्हें जड़ से उखाड़ डालूंगा।"

भीम को क्रोधित होते देख युधिष्ठिर ने उसे रोका– “शांत हो जाओ भीम यदि इस समय हमने क्रोध किया तो हमारा धर्म नष्ट हो जाएगा।"

युधिष्ठिर ने समझा-बुझाकर अपने भाइयों को शांत रहने के लिए कहा, तभी दुःशासन ने द्रोपदी की साड़ी का छोर पकड़कर खींचना शुरू कर दिया। द्रोपदी ने आर्त-वाणी से परमात्मा को पुकारा– “हे जगदीश! हे परमात्मा! मेरी रक्षा करो!”

तभी सारी सभा ने एक अद्भुत चमत्कार देखा। दुःशासन द्रोपदी के वस्त्र पकड़कर खींच रहा था। वह ज्यों-ज्यों वस्त्र खींचता जाता, त्यों-त्यों वस्त्र बढ़ता जाता। सभा-मंडप में वस्त्रों का ढेर लग गया, पर साड़ी की लम्बाई कम नहीं हुई। खींचते-खींचते दुःशासन पसीने-पसीने हो गया।

दैवी चमत्कार देखकर सारी सभा सन्न रह गई, तभी भीम एक बार फिर उठ खड़े हुए और क्रोध में भरकर बोले– “यहां उपस्थित सभी लोग सुनें। मैं शपथ खाकर कहता हूं कि जब तक भरतवंश पर बट्टा लगाने वाले इस पापी दुःशासन की छाती चीरकर मैं इसके गर्म रक्त से अपनी प्यास नहीं बुझा लूंगा, तब तक इस संसार को छोड़कर नहीं जाऊंगा।”

भीम की प्रतिज्ञा से सारी सभा कांप उठी। धृतराष्ट्र ने स्थिति को संभालने के लिए द्रोपदी को बड़े प्रेम से अपने पास बुलाया और सांत्वना दी– “पुत्री! मेरे पुत्रों की धृष्टता को क्षमा कर दे। युधिष्ठिर तो अजातशत्रु है। उदार हृदय है। दुर्योधन की कुचाल को वह क्षमा कर देगा। तुम अपना राज्य, संपत्ति सब अपने पास रखो और इन्द्रप्रस्थ लौट जाओ। सुख से रहो। जाओ।"

धृतराष्ट्र की मीठी बातें सुनकर पाण्डवों का क्रोध शांत हो गया। वे सभी विदा लेकर इन्द्रप्रस्थ लौट आए। दुर्योधन ने अपने अपमान का बदला एक तरह से ले लिया था। इसीलिए वह चुप रहा।

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