पाण्डवों के वनवास की कथा | Pandavon Ka Vanwas | Mahabharat

“जीजाश्री को मनाओ भांजे!" शकुनि ने कहा– “इस बार शर्त यह रखो कि अगर युधिष्ठिर हार गए तो पाण्डव बारह वर्ष का वनवास भोगें। तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास करे

पाण्डवों का वनवास

पाण्डवों के जाने के बाद शकुनि ने दुर्योधन को भड़काया— “भांजे! तुम्हारी जीती राशि को जीजाश्री ने लौटाकर अच्छा नहीं किया। अब तुम देखना धनुर्धर अर्जुन और महाबली भीम, द्रोपदी के अपमान का बदला जरूर लेंगे।"

Pandavon Ka Vanwas | Mahabharat

"अब मैं क्या करूं मामा श्री!" दुर्योधन बौखलाया— “पिताश्री की तो मति मारी गई है।"

“अगर एक बार फिर तुम किसी तरह युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए बुला सको तो बाजी पलट सकती है।"

"क्या अब वे फिर से आएंगे? असंभव है?"

“जीजाश्री को मनाओ भांजे!" शकुनि ने कहा– “इस बार शर्त यह रखो कि अगर युधिष्ठिर हार गए तो पाण्डव बारह वर्ष का वनवास भोगें। तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास करें। उस तेरहवें वर्ष में यदि उनका पता चल गया तो वे फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगें।"

“क्या वे मान जाएंगे?"

"क्यों नहीं मानेंगे। युधिष्ठिर कभी भी जीजाश्री की आज्ञा नहीं टालेंगे। जुआ खेलना तो क्षत्रियों का धर्म है।"

मामाश्री की बात सुनकर दुर्योधन अपने पिताश्री के पास पहुंचा और उन्हें पाण्डवों का भय दिखाकर उपयुक्त शर्त पर युधिष्ठिर को बुलाने के लिए कहा।

धृतराष्ट्र अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए इतने चिंतित थे कि उन्होंने एक बार फिर युधिष्ठिर के पास जुआ खेलने का प्रस्ताव भेजा। पाण्डव चिन्तित हो उठे। युधिष्ठिर के सामने कोई बोल नहीं सका। पाण्डव फिर जुआ खेलने आए और बारह वर्ष के वनवास और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास की शर्त पर जुआ खेले। शकुनि ने अपनी कुटिल चालों से पाण्डवों को फिर पराजित कर दिया। नियति के वशीभूत होकर वे अपना सब कुछ हारकर बारह वर्ष के वनवास के लिए वन चले गए। उनके वनवास चले जाने से दुर्योधन भयमुक्त हो गया। धृतराष्ट्र मन-ही-मन प्रसन्न थे, परंतु सारा नगर दुराचारी दुर्योधन और धृतराष्ट्र के पुत्र-मोह पर थू-थू कर रहा था।

"भ्राताश्री! जिस प्रकार पाण्डवों से छल किया गया है, उसका प्रतिकार वे अवश्य लेंगे।" विदुर ने दुखी मन से धृतराष्ट्र से कहा- "कुरुवंश के विनाश को अब कोई नहीं बचा पाएगा।"

"तुम सदैव उनके हित की बात करते हो विदुर!" धृतराष्ट्र ने क्रोध में भरकर कहा- "अच्छा है, तुम भी उनके साथ चले जाओ।"

धृतराष्ट्र की बात सुनकर विदुर का मन आहत हो उठा। वे उसी समय हस्तिनापुर छोड़कर पाण्डवों के पास वन में चले गए। उनके जाने से दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, शकुनि और अन्य कौरव भयभीत हो गए। वे आचार्य द्रोण की शरण में गए और उनसे अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की।

आचार्य द्रोण त्रिकालदर्शी थे। अर्जुन के प्रति उनका बड़ा मोह था। वे बोले– “पुत्र दुर्योधन! तुम मेरी शरण में आए हो। मैं तुम्हारी हर विपदा में तुम्हारा साथ दूंगा, किंतु आज से चौदहवें वर्ष से तुम्हारे सामने घोर विपत्ति का समय होगा। तब तक तुम सुख का जी भरकर उपभोग करो।"

आचार्य द्रोण की भविष्यवाणी सुनकर धृतराष्ट्र चिंतित हो उठे। उन्होंने अपने मंत्री संजय को भेजकर अनुनय-विनय करके विदुर को पुनः अपने पास बुला लिया। विदुर ने उन्हें समझाया कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। पाण्डवों को वन से बुलवा लेना चाहिए, लेकिन दुर्योधन अपनी जिद पर अड़ा रहा। कर्ण की सलाह पर वह वन में असहाय पाण्डवों को मार डालने का स्वप्न देख रहा था।

उसी समय महर्षि व्यास हस्तिनापुर आए और धृतराष्ट्र से बोले– “राजन! तुम्हारा पुत्र दुर्योधन निरंतर पाण्डु पुत्रों पर अत्याचार कर रहा है और तुम चुप हो। तुम्हें पता है, तुम्हारा पुत्र, पाण्डवों का वध करने वन में जा रहा है।"

"वह अब मेरे वश में नहीं है महर्षि!” धृतराष्ट्र ने कहा– “मेरी समझ में नहीं ने आता कि मैं क्या करूं। कैसे उसे समझाऊं?"

“राजन! महर्षि मैत्रेय काम्यक वन में पाण्डवों से मिलकर इधर ही आ रहे हैं। उनकी बात ध्यान से सुनना। वे दुर्योधन को समझाएंगे। उनके साथ किसी तरह का भी अनुचित व्यवहार मत कर बैठना।"

चेतावनी देकर महर्षि व्यास चले गए।

उनके जाने के बाद ही महर्षि मैत्रेय ने धृतराष्ट्र की राजसभा में प्रवेश किया। सभी ने खड़े होकर आदर सहित उनका सत्कार किया। महर्षि मैत्रेय ने राजा धृतराष्ट्र को बताया कि वे तीर्थ यात्रा पर निकले हैं। अभी काम्यक वन में वे धर्मराज युधिष्ठिर से मिलकर आ रहे हैं।

"राजन! बड़े दुख की बात है कि गंगापुत्र भीष्म और महात्मा विदुर के रहते हुए भी आपने भाई-भाई को शत्रु बन जाने दिया।"

महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर भीष्म और विदुर ने सिर झुका लिया। बोले कुछ नहीं। धृतराष्ट्र का भी बोल नहीं फूटा, तब महर्षि मैत्रेय ने दुर्योधन की ओर देखा और बोले – 'दुर्योधन क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है। तुम कदापि पाण्डवों की बराबरी नहीं कर सकते।"

महर्षि मैत्रेय ने देखा, दुर्योधन मुस्करा रहा था और बार-बार अपनी जांघ पर हाथ मारकर महर्षि की बातों का उपहास उड़ा रहा था। महर्षि मैत्रेय की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उन्होंने आसन से उठकर जल का आचमन किया और बोले–“अरे अथम! तुझे अपनी शक्ति का इतना अहंकार है कि तू मेरी बात सुनने को भी तैयार नहीं है। नीच! तेरे कारण यहां घोर युद्ध होगा और जिस जंघा को तूने अभिमान से मेरे सामने ठोका है, उसी जंघा को अपनी गदा से भीमसेन तोड़ेगा। वही क्षण तेरी मृत्यु का होगा।"

धृतराष्ट्र कांपकर उठ खड़े हुए और बोले– “भगवन्! यह आपने कैसा शाप दे डाला। इस मूर्ख को क्षमा कर दीजिए।"

"राजन! यह नीच अभी भी वन में अकेला जाकर पाण्डवों से क्षमा मांगकर उन्हें मैत्री-भाव से यहां ले आए तो इसे मेरा शाप नहीं लगेगा।"

महर्षि मैत्रेय फिर एक पल भी वहां नहीं रुके और चले गए, परंतु काल के वशीभूत हुए दुर्योधन पर जैसे उस शाप का कोई असर नहीं हुआ। वह हंसता रहा।

उधर काम्यक वन में व्यासज़ी ने पाण्डवों से भेंट की। व्यासजी ने अर्जुन से कहा कि वह अपना समय नष्ट न करे। उसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। अर्जुन, व्यासजी की सलाह मानकर अपनी माता और भाइयों को वन में छोड़कर हिमालय पर तपस्या करने पहुंचे। वे इन्द्रलोक नामक पर्वत पर पहुंचे। वहां उनकी भेंट एक बूढ़े ब्राह्मण से हुई।

ब्राह्मण वेश में वे स्वयं इन्द्र थे। ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने उनसे पूछा कि वह तपोवन में क्या करने आया है। अर्जुन ने उन्हें बताया कि वह दिव्यास्त्रों की खोज में यहां आया है। देवराज इन्द्र ने उससे कहा- "पुत्र! महादेव की तपस्या करो, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी।" कहकर इन्द्र अंतर्धान हो गए।

अर्जुन ने महादेव की घोर तपस्या की। एक दिन एक धनुर्धारी किरात वहा अपनी पत्नी के साथ आया। उसने एक जंगली सूअर पर अपना बाण साधा। उसे देखकर अर्जुन ने भी अपना बाण धनुष पर चढ़ा लिया। दोनों के बाण एक साथ छूटे और सूअर के शरीर में जा धंसे।

अर्जुन ने किरात से कहा— “तुम कौन हो? तुमने मेरे शिकार पर बाण क्यों मारा? इस पर्वत पर अपनी पत्नी के साथ भटकने का तुम्हारा सोत्पर्य क्या है?

किरात ने मुंह बनाते हुए गुस्से से कहा- "अरे वाह! यह वन प्रदेश हमारा तुम तो वनवासी प्रतीत नहीं होते। पूछना तो मुझे चाहिए कि तुमने मेरा शिकार क्यों मारा? जबकि तीर पहले मेरा लगा था।"

“नहीं! तीर पहले मेरा लगा था।" अर्जुन ने भी थोड़ा आवेश में उत्तर दिया।

“नहीं भाई! तीर पहले मेरा ही लगा था। अच्छा यही है कि तुम मेरे से लड़कर निर्णय कर लो।" किरात बोला।

अर्जुन तैयार हो गया। किरात के कहने पर उसने ही पहले किरात पर बाण छोड़े। तरह-तरह के बाणों को छोड़ने पर भी किरात पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। एक भी बाण उसे नहीं लगा। उसकी स्त्री एक ओर खड़ी मुस्कराती रही। किरात भी मुस्कराता रहा। अर्जुन के सारे बाण समाप्त हो गए तो वह शंकित हो उठा। किरात ने आगे बढ़कर अर्जुन के हाथ से धनुष छीन लिया। अर्जुन का दर्प चूर-चूर हो गया। वह महादेव का ध्यान करके किरात के पैरों में गिर पड़ा। वह तत्काल समझ गया कि उसके सामने साक्षात् महादेव और पार्वती खड़े हैं।

अर्जुन ने आशुतोष महादेव से क्षमा मांगी। महादेव ने उसे क्षमा करके उसके सारे बाण और धनुष वापस कर दिए और उसे पाशुपत विद्या देकर आशीर्वाद दिया। महादेव ने अर्जुन से कहा- "वत्स! अब तुम देवलोक जाओ। वहां देवराज इन्द्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

महादेव अंतर्धान हो गए तो वह बूढ़ा फिर वहां आ गया। अर्जुन ने उसे देखा तो देवराज इन्द्र अपने असली रूप में आ गए। वे बोले– “पुत्र! तुम्हें देखकर मेरी आंखें तृप्त हो गईं। चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं।"

देवराज इन्द्र, अर्जुन को अपने विमान में बैठाकर देवलोक की ओर चले गए। वहां इन्द्र के कहने पर अर्जुन ने संगीत और नृत्य का अभ्यास किया।

उधर द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण को पाण्डवों की दशा का पता चला तो वे अपने भाई बलराम के साथ वन में पाण्डवों से मिलने आए। उनकी दशा देखकर श्रीकृष्ण और बलराम को बहुत दुख हुआ। दुर्योधन की करतूतों को सुनकर श्रीकृष्ण को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने द्रोपदी की पीड़ा को भी समझा और उसे सांत्वना दी कि समय आने पर द्रोपदी के अपमान का बदला अवश्य लिया जाएगा। दुर्योधन अब किसी भी तरह से बच नहीं पाएगा। उसके वंश का विनाश निश्चित है। श्रीकृष्ण के वचनों से द्रोपदी को सांत्वना मिली।

Read also

Post a Comment

© Samar Education All rights reserved. Distributed by SamarEducation