निर्णयन का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Decision Making in hindi

एक प्रबन्धक का महत्त्वपूर्ण कार्य निर्णय लेना है। पीटर ड्रकर के अनुसार- "प्रबन्धक जो कुछ भी करता है, निर्णयों के द्वारा ही करता है।" प्रशासन में

एक प्रबन्धक का महत्त्वपूर्ण कार्य निर्णय लेना है। पीटर ड्रकर के अनुसार- "प्रबन्धक जो कुछ भी करता है, निर्णयों के द्वारा ही करता है।" प्रशासन में निर्णय निश्चित 'प्रक्रिया' के परिणाम होते हैं। निर्णय करने की प्रक्रिया की तीन विशेषताएँ होती है— पहली, कोई भी निर्णय लक्ष्योन्मुख होता है. निर्णय सामान्यतः किसी प्रयोजन या लक्ष्य को पूरा करने के लिए किए जाते हैं। दूसरी निर्णयों की एक क्रमिक शृंखला होती है, कोई भी निर्णय अकेला नहीं होता, वह अपने पहले के और बाद के निर्णयों से किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता है और तीसरी, कोई भी निर्णय किसी विशिष्ट अवधि में होता है जिससे सहगामी घटनाएँ परिणाम को प्रभावित करती रहती हैं। निर्णय करना एक प्रक्रिया है और वह एक समय पर होती है इसलिए अपने चारों ओर का परिवेश और साथ-साथ घटने वाली घटनाएँ परिणाम को प्रभावित करेंगी ही।

Meaning and Definitions of Decision Making in hindi

निर्णयन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

'निर्णयन' का शाब्दिक अर्थ अन्तिम परिणाम तक पहुंचने से लगाया जाता है, जबकि व्यावहारिक दृष्टिकोण से इसका आशय निष्कर्ष पर पहुँचने से है।

1. वेस्टर शब्दकोश के अनुसार- "निर्णय लेने से आशय अपने मस्तिष्क से सम्मति अथवा कार्यवाही के तरीके के निर्धारण से है।"

2. डॉ० जे०सी० ग्लोवर के अनुसार-"चुने हुए विकल्पों में से किसी एक के सम्बन्ध में निर्णय करना ही निर्णयन है।"

3. रे ए० किलियन्स के अनुसार- "निर्णयन विभिन्न विकल्पों के चुनाव की एक सरलतम विधि है।"

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निर्णयन से आशय निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपलब्ध विकल्पों मे से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने से है।

निर्णय प्रक्रिया के सोपान

निर्णय लेते समय हमें विभिन्न चरणों से गुजरना पड़ता है। निर्णय लेने के प्रत्येक चरण का अपना महत्व है। विभिन्न चरणों की संक्षिप्त व्याख्या निम्नवत् की जा रही है-

1. विद्यालय की नीतियाँ:- प्रत्येक विद्यालय में कार्य करने की दिशा निर्धारित करने के लिए कुछ न कुछ निर्देशिकाएँ, सीमाएँ, रीतियाँ, परम्पराएँ एवं नियम होते हैं जो विद्यालय की नीति निर्धारण करने में सहायक होते हैं। हमें नोति निर्धारण करते समय इनका प्रयोग अनौपचारिक रूप से करना चाहिए क्योंकि निर्णय लेते समय औपचारिकताओं को दूर रखकर व्यावहारिक ढंग जो उचित और उपयोगी हो उसे ही लागू करना चाहिए।

2. विद्यालय के उद्देश्य:- विद्यालय के उद्देश्य निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं। विद्यालय के उद्देश्य संस्था के मूल्यों एवं मान्यताओं पर अधिक आश्रित होते हैं। अतः निर्णय लेते समय न केवल नीतियों को दृष्टिगत रखना होता है वरन् विद्यालय के उद्देश्यों एवं मूल्यों को भी दृष्टिगत रखना है। जो निर्णय विद्यालय के उद्देश्यों से तालमेल नहीं खाते हैं वह विद्यालय के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

3. विद्यालय की समस्याओं की खोज:- ऐसा देखने में आता है कि जब विद्यालय के निर्धारित उद्देश्यों की उपेक्षा होने लगती है तो समस्याएँ स्वतः उत्पन्न होने लगती हैं। सामान्य स्थिति में जब कार्य के प्रति उदासीनता अथवा अरुचि दिखाई जाती है तब भी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। अतः इन्हीं समस्याओं का समाधान खोजने के लिए हमें निर्णय लेने पड़ते हैं। स्पष्ट है कि विद्यालय के प्रधानाचार्य को निर्णय लेने की तभी आवश्यकता होती है जब उसके समक्ष समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इस दृष्टि से निर्णय लेना एवं समस्या होना एक-दूसरे से गहन रूप से सम्बन्धित है।

4. समस्या का परिभाषीकरण:– निर्णय लेने के चरणों में समस्या के परिभाषीकरण का चरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जब तक समस्या को भली-भाँति समझा नहीं जाएगा, उसके प्रत्येक पक्ष का विश्लेषण नहीं किया जाएगा, उसके कारणों का पता नहीं लगाया जाएगा तब तक हम समस्या का कोई समाधान ढूँढ़कर निर्णय तक नहीं पहुँच सकते हैं। प्रधानाचार्य को चाहिए कि वह समस्या के प्रत्येक पहलू को परिभाषित करें और उनके पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करे तभी वह किसी ठोस परिणाम पर पहुँचकर निर्णय लेने की स्थिति में आ सकेगा।

5. समस्या से सम्बन्धित वातावरण का पता लगाना:– समस्या का विश्लेषण करने एवं उसके कारणों का पता लगाने के पश्चात् हमें समस्याओं से सम्बन्धित स्थितियों या वातावरण के विषय में जानकारी एकत्रित करनी चाहिए। यदि प्रधानाचार्य को बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेना है तो उसके लिए वातावरण से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन करना आवश्यक है। इस क्रिया के माध्यम से प्रधानाचार्य निदानात्मक तरीके से विचार कर सकता है और ऐसा निर्णय ले सकता है जिससे वर्तमान एवं भविष्य में सामने आने वाली समस्याओं को रोका जा सकता है।

6. समस्या के समाधान के लिए विभिन्न विकल्पों का संकलन करना:- जब समस्या के विभिन्न कारणों का पता चल जाता है तो प्रशासक के समक्ष कारणों के आधार पर अनेक विकल्प समाधान के रूप में स्वतः आने लगते हैं। विकल्पों का आना प्रधानाचार्य विशेष की बुद्धि, विचार-शक्ति, योग्यता, अनुभव एवं उसकी विश्लेषण शक्ति पर अधिक निर्भर है। निर्णय लेने की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात एक उचित, अनुकूल एवं कार्यशील समाधान की खोज करना है।

7. श्रेष्ठ विकल्प का चयन करना:- निर्णय लेने का यह चरण उपर्युक्त चरण पर पूर्ण रूप से निर्भर है। जब तक हम समस्या के समाधान हेतु विभिन्न विकल्पों को प्राप्त नहीं कर पाते हैं तब तक श्रेष्ठ विकला का चयन करना हमारे लिए अत्यन्त कठिन है। एक योग्य प्रधानाचार्य विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन

निर्णय प्रक्रिया के चरण

निर्णय लेने की प्रक्रिया के निम्नलिखित तीन चरण है-

1. बौद्धिक क्रिया:- बौद्धिक क्रिया में निर्णय लेने के अवसर खोजना सम्मिलित है। इसके लिए कार्यकारी द्वारा संगठनात्मक वातावरण को समझना तथा उसका विश्लेषण करना आवश्यक है। वह उन दशाओं की भी जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है जिनमें निर्णय लेने की आवश्यकता है।

2. संरचना क्रिया:– दूसरा चरण संरचना क्रिया है जिसमें कार्य विशेष को करने के विभिन्न विकल्पों का विकास सम्मिलित है। कार्यकारी के प्रत्येक विकल्प के गुण-दोषों एवं उनमें निहित समस्याओं की पहचान करनी पड़ती है।

3. चयन क्रिया:- अन्तिम चरण चयन किया है। इसमें निर्णयकर्त्ता को संगठन के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर विभिन्न विकल्पों में से एक विकल्प का चयन करना होता है।

साइमन के मतानुसार उचित विकल्प का चयन व्यक्ति के कार्य-निष्पादनों से सम्बद्ध होता है। इसका सम्बन्ध मूल्यों के प्रश्नों से होता है। मूल्य वरीयता की अभिव्यक्ति होती है, इसलिए यह तथ्य पर आधारित नहीं होता है। दूसरी तरफ तथ्य सच्चाई की अभिव्यक्ति है, इन्हें दर्शनीय साधनों के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। विकल्प अथवा निर्णय में तथ्य तथा मूल्य दोनों सम्मिलित होते हैं, ये किसी निर्णय में सम्मिलित नैतिक तथा तथ्यपरक शब्दों के विश्लेषण की कसौटियों को स्पष्ट करते हैं।

वुड के घोषणा-पत्र के अनुसार, "एक उपयुक्त निरीक्षण पद्धति भविष्य के लिए हमारी शिक्षा पद्धति का आवश्यक अंग हो जाएगी और हमारी इच्छा है कि पर्याप्त मात्रा में योग्य निरीक्षकों की नियुक्ति की जाए जो कि समय-समय पर सरकार द्वारा संचालित एवं सहायता प्राप्त विद्यालय एवं कॉलेज की प्रचलित स्थिति के विषय में रिपोर्ट देंगे- वे इन संस्थाओं के छात्रों की परीक्षा का संचालन या सहायता प्रदान करेंगे।"

इस प्रकार निरीक्षण का लक्ष्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना तथा अनियमितताओं को उजागर करना होता है।

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