सम्प्रेषण का अर्थ, सिद्धान्त, तत्त्व, प्रकार एवं विशेषताएँ | Meaning, Principles, Elements, Types and Characteristics of Communication in hindi

सम्प्रेषण का सामान्य अर्थ होता है- एक स्थान से दूसरे स्थान तक किसी वस्तु, विचार को भेजना। किन्तु इसके विशिष्ट अर्थ के अन्तर्गत वे समस्त भाव तथा विचार

सम्प्रेषण का अर्थ (Meaning of Communication)

सम्प्रेषण का सामान्य अर्थ होता है- एक स्थान से दूसरे स्थान तक किसी वस्तु, विचार को भेजना। किन्तु इसके विशिष्ट अर्थ के अन्तर्गत वे समस्त भाव तथा विचार सम्मिलित किये जा सकते हैं, जिन्हें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाता है, सम्प्रेषित करता है। यह एक प्रक्रिया है, इस प्रक्रिया के माध्यम से ही भावों-विचारों का आदान-प्रदान होता है। यही सम्प्रेषण है। सम् = सम्येक प्रकारेण, प्रेषण प्रेषित भेजना। इस प्रकार इसका सामान्य और विशिष्ट अर्थ एक रूप में इस प्रकार हो सकता है "विशिष्ट विचारों को विशिष्ट विधि से विशिष्ट स्थान तक भेजना प्रदान करना।"

Meaning, Principles, Elements, Types and Characteristics of Communication in hindi

इस प्रक्रिया में जब कोई व्यक्ति अन्य किसी दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध स्थापित करता है तथा विचारों का आदान-प्रदान करता है तब वह 'संचार' कहलाता है। किन्तु एक ही व्यक्ति यदि अधिक-से-अधिक जन सम्पर्क में आने के लिए विचारों को प्रेषित करता है तब वह प्रक्रिया संचार की अपेक्षा जनसंचार की श्रेणी में आती है। इसमें बहुत से व्यक्तियों का समूह होने से व्यापक और विस्तृत प्रक्रिया बन जाती है। एक व्यक्ति आम जनता से सम्पर्क स्थापित करने में प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सकता। अतः वह दूरदर्शन अथवा रेडियो के माध्यम से सम्प्रेषण (संचार) करता है। अतः रेडियो तथा दूरदर्शन जनसंचार का सर्वोत्तम साधन है।

उदाहरण के लिए; रेडियो पर समाचार प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति तो एक ही होता है, किन्तु वह इसके माध्यम से सम्पूर्ण जनता में समाचारों को प्रसारित करता है। अतः यह जनसंचार का उपयुक्त साधन हुआ। इसी प्रकार देश के प्रधानमन्त्री का अभिभाषण दूरदर्शन पर प्रसारित (सम्प्रेषित) किया जाता है, तो सम्पूर्ण देशवासी उससे सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। अतः अप्रत्यक्ष रूप से ही यह सम्भव है। साक्षात् (आमने-सामने) जनसंचार अधिक व्यापक नहीं हो सकता है। संचार या सम्प्रेषण को इंग्लिश में 'Communication' कहते हैं, जिसकी व्याख्या निम्नलिखित प्रकार से कर सकते हैं-

लूगीस और वीगल के अनुसार, "संचार प्रक्रिया में सामाजिक व्यवस्था के द्वारा निर्णय सूचना एवं निर्देश दिए जाते हैं तथा इसमें जान, भाव-विचारों, अभिवृत्तियों को निर्मित किया जाता। है अथवा परिवर्तन करते हैं।"

सम्प्रेषण (संचार) के तत्त्व (Elements of Communication)

वैज्ञानिक संचार में विचारों का लेन-देन (आदान-प्रदान) किया जाता है, किन्तु इस प्रक्रिया के लिए निम्नलिखित तत्त्वों का होना आवश्यक है-

1. सम्प्रेषक (Source):– यह विचार प्रेषित करने वाला होता है। आज युग का वैज्ञानिक युग है। अतः इसमें यह आवश्यक नहीं है कि प्रेषक व्यक्ति ही हो। सम्प्रेषण पत्र, पत्रिका अथवा मशीन, किसी के द्वारा भी हो सकता है। अतः सम्प्रेषण (संचार) का 'सम्प्रेषक' प्रमुख तत्त्व है।

2. सन्देश (Message):- व्यक्ति द्वारा प्रसारित विचार ही सन्देश होता है। यह शाब्दिक तथा अशाब्दिक उभय रूप में हो सकता है, जैसे कक्षा में छात्र को अध्यापक, 'बैठ जाओ' यह कहकर भी बैठा सकता है और मौन स्वीकृति 'गर्दन हिलाकर' भी सन्देश दे सकता है।

3. सम्प्रेषण माध्यम या चैनल:- चैनल से अभिप्राय उस साधन से है जिसके द्वारा कोई सन्देश, सन्देशवाहक से सन्देश ग्राहक तक पहुंचाता है। यह वह पथ है जिसमें सन्देश भौतिक रूप से प्रेषित होता है, जैसे- टेलीग्राम। वह वायर जिस पर सन्देश भेजा है, रेडियो वार्ता में ये रेडियो स्टेशन तथा स्टूडियो है। इसी प्रकार किसी लेख के लिए समाचार पत्र या मैगजीन सम्प्रेषण माध्यम होते हैं।

4. सन्देश ग्राहक:– यह सन्देश प्राप्त करने वाला होता है। सन्देश प्राप्ति वह कई विधियों से कर सकता है, जैसे- समाचार सुनकर, समाचार पढ़कर अथवा देखकर। अतः सन्देश ग्राहक को 'ग्राहक सम्प्रेषक' भी कहते हैं।

इन तत्त्वों के अतिरिक्त शारीरिक क्रियाओं से भी भावों का आदान-प्रदान कर संचार कर सकते हैं, जैसे-आंगिक क्रिया द्वारा बालक को डराने के लिए शब्दों का प्रयोग न करके क्रोधों मुद्रा बना लेना। आँखों के इशारे से ही सन्देश ले और दे सकते हैं। जैसे कई बार बालक, अध्यापकों या परिवार के मध्य होता है तब वह बोलने से डरता है तो इशारों से ही अपने साथियो से बात कर लेता है। इस प्रकार सम्प्रेषण विधि छात्र अध्यापक के मध्य अन्तः क्रिया भी सम्पन्न करती है।

सम्प्रेषण की प्रक्रिया और संरचना (Structures and Process of Communication)

सम्प्रेषण प्रक्रिया की पूर्णता एवं सम्प्रेषण को संरचना के निर्माण की दृष्टि से कुछ ऐसे मूत तत्त्व है जिनकी उपस्थिति व ज्ञान, सम्प्रेषण के लिए आवश्यक हैं। इन मूल तत्त्वों का संक्षिण परिचय इस प्रकार है–

  1. सम्प्रेषणकर्ता को चाहिए कि वह सम्प्रेषण के अनुकूल वातावरण का निर्माण करें जिससे कि सम्प्रेषण का प्रभाव जनमत पर पड़ सका।
  2. सम्प्रेषण द्विमुखी प्रक्रिया है जिसमे कि बात कहने वाला (प्रसारक) और सुनने वाले (श्रोता) के बीच अनुक्रिया होती है।
  3. सम्प्रेषण करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि सम्प्रेषण का विषय जनता से सांस्कृतिक मूल्यों एवं सामाजिक आदर्शों के अनुकूल हो।
  4. सम्प्रेषण के स्तर पर भी इसकी सफलता निर्भर करती है।
  5. सम्प्रेषणकर्ता या प्रसारक के लिए आवश्यक है कि वह सम्प्रेषण करने के पूर्व भली-भाँति प्रसारक विषय का आयोजन कर ले जिससे कि किसी प्रकार का सन्देश उसे या श्रोता को उत्पन्न न हो।
  6. सम्प्रेषण की सफलता के लिए आवश्यक है कि उससे सम्बन्धित सभी विषयों को व्यवस्था सुचारू रूप से की जाए।
  7. प्रत्येक व्यक्ति सम्प्रेषण को अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार ग्रहण करता है।
  8. श्रोता-सहभागिता सम्प्रेषण को अधिक सफल बनाते हैं।
  9. सम्प्रेषण की सफलता के लिए उसका निरन्तर मूल्यांकन करना आवश्यक है।
  10. सम्प्रेषण में ऐसी भाषा, वस्तुओं और विचारों का उपयोग किया जाए जोकि स्पष्ट हो और जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार की भ्रान्ति उत्पन्न होने की सम्भावना न हो।

सम्प्रेषण के प्रकार (Types of Communication)

1. अनौपचारिक सम्प्रेषण:- जब एक समूह में किसी को किसी से भी बात करने की आजादी हो तो उसे ग्रेपवाइन सम्प्रेषण कहते हैं। ग्रेपवाइन सम्प्रेषण में कोई अनौपचारिक वैज्ञानिक तरीके से बात नहीं की जाती है। इसमें सभी आजाद होते हैं कोई किसी से भी बात कर सकते हैं। उदाहरण – जब स्कूल में अवकाश होता है तो सभी बच्चे आजाद होते हैं। अत: वे अब आपस में किसी से भी बात कर सकते हैं।

2. औपचारिक सम्प्रेषण:- जब बात करने का तरीका एक विधिवत् और वैज्ञानिक हो उसे औपचारिक सम्प्रेषण कहते हैं। औपचारिक सम्प्रेषण में काम करने का तरीका बहुत ही सुलझा हुआ होता है और सभी अपने-अपने कामों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। उदाहरण- किसी ऑफिस में जब कोई जूनियर अपने सीनियर से बात करता है।

3. एक तरफा/वन वे सम्प्रेषण:- जब संदेश एक तरफ से ही होता है तो वह एकल या वन वे सम्प्रेषण होता है। इसमें भेजने वाला संदेश भेज देता है और प्राप्तकर्ता उसे ग्रहण कर लेता है। उदाहरण-कक्षा में अध्यापक ने बच्चों को बोला कि वे खड़े हो जाएँ तो बच्चे खड़े हो जाते हैं तो वह वन वे सम्प्रेषण हुआ।

4. द्वितरफा/टू वे सम्प्रेषण:- जब दो व्यक्ति आपस में बातचीत करते हैं तो उनमें तर्क-वितर्क होता है अर्थात् प्राप्तकर्ता और भेजने वाला दोनों ही सम्मिलित होते हैं। उदाहरण- अध्यापक कक्षा में बच्चों से प्रश्न करता है तो बच्चे उसका उत्तर देते हैं तो वे टू वे सम्प्रेषण हुआ।

5. अन्तः वैयक्तिक सम्प्रेषण:- जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं के बारे में सोचता है तो उसे अन्तः वैयक्तिक सम्प्रेषण कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जो व्यक्ति खुद से प्रश्न करता है तो वह अंतः वैयक्तिक सम्प्रेषण कहलाता है। उदाहरण-परीक्षा- कक्ष में जाने से पहले विद्यार्थी खुद से बात करता है।

6. अंतर वैयक्तिक सम्प्रेषण:- जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच बातचीत होती है अर्थात् जब हम दूसरों की इच्छाओं के बारे में बात करते हैं तो वह सम्प्रेषण अन्तर वैयक्तिक सम्प्रेषण कहलाता है। उदाहरण—मनोवैज्ञानिक और परामर्शदाता हमेशा दूसरों के बारे में बताते हैं अतः यह अन्तर वैयक्तिक सम्प्रेषण हुआ।

7. शाब्दिक सम्प्रेषण:- शाब्दिक सम्प्रेषण में सदैव भाषा का प्रयोग किया जाता है। शाब्दिक सम्प्रेषण तब होता है जब मौखिक अभिव्यक्ति के द्वारा अपने शब्दों को प्रस्तुत किया जाता है। हम अपने दैनिक जीवन में सबसे ज्यादा शाब्दिक सम्प्रेषण का ही प्रयोग करते हैं।

8. अशाब्दिक सम्प्रेषण:- जब हम इशारों चिन्हों और कूट भाषा में बातचीत करते हैं तो वह अशाब्दिक सम्प्रेषण कहलाता है। उदाहरण- बहरे बच्चों से हम हाथों से इशारे करके बातचीत करते हैं।

9. बोलना-सुनना (Speaking-Listening):- इस प्रकार के सम्प्रेषण में अन्तःप्रक्रिया आमने-सामने होती है। शिक्षक के सामने छात्र बैठकर सुनते हैं। अनेक ऐसे अवसर भी आते हैं जब विचारों तथा भावनाओं के सम्प्रेषण में साझेदारी होती है। शिक्षक अपनी आँखों से कक्षा का नियन्त्रण करता है। अपने हाव-भाव से सम्प्रेषण को प्रभावी बनाता है। भावनाओं का सम्प्रेषण अशाब्दिक अन्तः प्रक्रिया से ही होता है कभी कभी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करता है। छात्र सुनने को क्रिया में श्रव्य इन्द्रिय तथा मानसिक एकाग्रता को सक्रिय रखता है। तभी सम्प्रेषण सार्थक हो सकता है। बोलने में विचार होते हैं उनकी अभिव्यक्ति करता है। सुनने में अभिव्यक्ति पहले जिसमे विचारों का बोध करता है। इसमें क्रियात्मक पक्ष होता है।

10. लिखना पढ़ना (Writing Reading):- यह समप्रेषण प्रवाह बोलने-सुनने के समान है। इसमें अन्तः प्रक्रिया अप्रत्यक्ष रूप में लेखक तथा पाठक में होती है। भाषा के संकेतों एव चिन्हों से पाठक को अनुभव प्रदान किये जाते हैं। भाषा के माध्यम से विचारों तथा भावनाओं को समझता है। पाठक पहले भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति होती है उसमें विचारों और भावों को समझता है। भाषा विचारों एवं भावनाओं के सम्प्रेषण का माध्यम है। इसमें ज्ञानात्मक पक्ष अधिक होता है।

11. दृश्य निरीक्षण (Visualizing-Observing):- एक निरीक्षक भौतिक रूप से उत्पादक से अलग होता है परन्तु उसमें विचार दर्शाया जाता है उसका सम्प्रेषण होता है। दूरदर्शन तथा फिल्म द्वारा इस प्रकार का सम्प्रेषण किया जाता है। नाटकीय विधि द्वारा भी विचार एवं भावनाओं का सम्प्रेषण किया जाता है। हाव-भाव से भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से की जाती है। इसमें भावात्मक पक्ष अधिक होता है। सम्प्रेषण को सहायक प्रणाली कहलाती है।

सम्प्रेषण के सिद्धान्त (Principles of Communication)

1. स्पष्टता का सिद्धान्त:- सम्प्रेषण करते समय हमारी भाषा बिल्कुल साफ होनी चाहिए। क्योंकि अगर भाषा स्पष्ट नहीं होगी तो प्राप्तकर्ता उसका गलत अर्थ समझ बैठेगे। इसलिए हमारी भाषा स्पष्ट होनी चाहिए।

2. समन्वय का सिद्धान्त:- प्रभावी सम्प्रेषण तभी हो सकता है जब संदेशों के बीच में समन्वय स्थापित हो। क्योंकि बिना समन्वय के पहले वाले संदेश का अर्थ नहीं निकल पाएगा। अतः बातचीत करते समय समन्वय होना बहुत जरूरी है।

3. संगतता का सिद्धान्त:- जब आप बातचीत करते हैं तो संदेशों के बीच में विरोधात्मक प्रवृत्ति न हो अर्थात् दोनों संदेश एक दूसरे के विपरीत न हों। सूचनाएँ उपक्रम की नीतियाँ, योजनाओं तथा उद्देश्यों के अनुरूप ही होनी चाहिए।

4. विशिष्टता का सिद्धान्त:- सम्प्रेषण में सूचनाएँ शिष्ट एवं शालीन होनी चाहिए। सम्प्रेषण के दौरान कठोर शब्द, अपशब्द और गाली-गलोच शब्द आदि प्रयुक्त नहीं करने चाहिए।

5. ध्यान आकर्षण का सिद्धान्त:- संदेश देते समय ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि अगर भेजने वाले का ध्यान नहीं है तो वह गलत संदेश भी भेज सकता है। अतः संदेश देते समय ध्यान आवश्यक है।

सम्प्रेषण के रूप (Forms of Communication)

सम्प्रेषण के निम्नलिखित रूप हैं-

1. मौखिक सम्प्रेषण:- अधिकतर सम्प्रेषण बोलकर ही किया जाता है। सुबह उठते ही बोलने की प्रक्रिया के साथ सम्प्रेषण शुरू होता है और रात में बिस्तर पर जाने तक बोलने का यह क्रम चलता रहता है।

2. आंगिक सम्प्रेषण:- मनुष्य केवल बोलकर ही अपनी बात सम्प्रेषित नहीं करता है। उसके सभी अंग, आँख, हाथ, पैर, कन्धे सम्प्रेषण में सहयोग देते हैं। यह आंगिक या अमौखिक सम्प्रेषण है।

आंगिक सम्प्रेषण की शुरुआत आपकी वेशभूषा और व्यक्तित्व से होती है। आप जैसे ही किसी अधिकारी के कमरे में प्रवेश करते हैं, वह आपकी वेशभूषा और व्यक्तित्व से आपके बारे में धारणा बनाने लगता है। आप उसके सामने कैसे खड़े रहते हैं, कैसे बैठते हैं, इसका भी काफी असर पड़ता है। आँखें आंगिक सम्प्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम है। जब कोई प्रसन्न होता है तो कहते हैं, उसकी आँखें हँस रही हैं। अपनी आँखों के द्वारा आप न केवल प्रसन्नता या अप्रसन्नता प्रकट करते हैं, वरन् दूसरे तक सम्प्रेषित करते हैं।

3. लिखित सम्प्रेषण:- व्यक्ति बोलकर और देखकर सम्प्रेषण करते ही हैं, लेकिन लिखकर भी अपनी बात दूसरों तक पहुँचाते हैं। लिखना एक कला है। योजनाबद्ध ढंग से लिखकर आप अपनी बात सही ढंग से सम्प्रेषित कर सकते हैं। किसी भी प्रकार का लेखन करने के लिए पाँच बातों का ध्यान रखना चाहिए-क्या, क्यों, कौन, कब और कैसे। इन पाँच बातों को ध्यान में रखकर लिखने से आप अपना सन्देश ठीक ढंग से प्राप्तकर्ता तक पहुँचा सकते हैं।

4. संचार माध्यम:- संचार माध्यम सम्प्रेषण का एक सशक्त माध्यम है। रेडियो, टेलीविजन, समाचार-पत्र, होर्डिंग, बिल, पैम्फलेट, इण्टरनेट आदि जनसंचार माध्यम अपनी माध्यमगत विशिष्टता के अनुसार सम्प्रेषण करते हैं। रेडियो आवाज के माध्यम से जन-जन तक पंचार का सम्प्रेषण करते हैं। टेलीविजन, कम्प्यूटर, फिल्म, वीडियो, इण्टरनेट जैसे दृश्य माध्यम भी सम्प्रेषण के सशक्त माध्यम हैं, इसके अलावा सड़क के किनारे लगी बड़ी-बड़ी कम्पनियों के होर्डिंग, समाचार पत्रों के छपे विज्ञापन, खतरे सम्बन्धी सूचनाएँ, यातायात संकेत, टेलीफोन पर होने वाली बातचीत आदि सम्प्रेषण के कई रूप हैं।

सम्प्रेषण की विशेषताएँ (Characteristics of Communication)

(Characteristics of Communication) सम्प्रेषण की प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं-

  1. परस्पर विचारों एवं भावनाओं का आदान-प्रदान करना।
  2. सम्प्रेषण से विचारों तथा भावनाओं की साझेदारी होती है।
  3. सम्प्रेषण में अन्त: निहित होती हैं दोनों पक्षों का विकास होता है। दोनों ही पक्ष क्रियाशील रहते हैं।
  4. विचारों एवं भावनाओं के आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाता है।
  5. इसमें आदान-प्रदान की प्रक्रिया को पृष्ठ पोषण दिया जाता है।
  6. सम्प्रेषण में अनुभवों की साझेदारी होती है।
  7. सम्प्रेषण की प्रक्रिया द्वि-मार्गों होती है। इसमें पृष्ठपोषण एवं अन्तः प्रक्रिया भी निहित होती है।
  8. सम्प्रेषण की प्रक्रिया से शुद्ध अनुभव प्रदान करने का प्रयास किया जाता है। 9. सम्प्रेषण मे ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को क्रियाशील रखने का प्रयास किया जाता है।
  9. शिक्षण की प्रक्रियाका सम्प्रेषण महत्त्वपूर्ण घटक है।
  10. कक्षागत अन्तः प्रक्रिया सम्प्रेषण से ही की जाती है।
  11. सम्प्रेषण में भाषा कौशलों की भूमिका अहम् होती है।

सम्प्रेषण की व्यूह रचनाओं का वर्गीकरण (Classification of Communication Arrays)

(1) श्रव्य सम्प्रेषण व्यूह रचना:- कक्षा सम्प्रेषण में सम्प्रेषण की पूरी प्रक्रिया श्रव्य माध्यम के जरिए ही चल सकती है। अध्यापक अपनी वाक कला के जरिए अपनी बातें शाब्दिक रूप से भाषण विधि का प्रयोग करके सम्प्रेषित करते रहते हैं और विद्यार्थी सुनकर सम्प्रेषित बातों को ग्रहण करने का प्रयत्न करते रहते हैं। सम्प्रेषणकर्ता और ग्राहक दोनों ही इस अवस्था में श्रव्य सम्प्रेषण प्रक्रिया को चालू रखते हैं। रेडियो, टेपरिकॉर्डर इत्यादि श्रव्य संसाधनों से सम्पन्न सम्प्रेषण भी इसी श्रेणी में आता है।

(2) दृश्य सम्प्रेषण व्यूह रचना:- कक्षा सम्प्रेषण में ऐसा ही सम्भव है कि जब सम्प्रेषण प्रक्रिया के लिए एकमात्र दृश्य माध्यमों (Visual medium) को काम में लाया जाता रहे। अध्यापक के द्वारा श्यामपट्ट पर लिखा जाए, चित्र, आकृति एवं ग्राफ बनाया जाए. मॉडल दिखाया जाए, प्रयोग आदि का प्रदर्शन किया जाए। इसके जरिए भी ऐसा बहुत कुछ प्रेषित किया जा सकता है जिसके माध्यम से विद्यार्थी, सम्प्रेषित सूचनाओं तथा ज्ञान को ग्रहण कर सके। विद्यार्थी किसी भी सम्प्रेषित सामग्री को पढ़कर तथा देखकर अपनी दृश्य इंद्रिय (आँखो) का प्रयोग करके कक्षा-सम्प्रेषण प्रक्रिया में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं। इस तरह चार्ट, चित्र, मानचित्र, ग्राफ आदि चित्रात्मक सामग्री, मॉडल, नमूने, प्रयोग आदि के रूप में दिखाई जाने वाली दृश्य सामग्र तथा फिल्म, समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा पुस्तकों के रूप में उपलब्ध सामग्री सम्प्रेषण में दृश्य सम्प्रेषण व्यूह रचना के रूप में काम में लाई जा सकती है।

(3) दृश्य-श्रव्य सम्प्रेषण व्यूह रचना:– केवल श्रव्य तथा दृश्य माध्यमों के जरिए भी सम्प्रेषण प्रक्रिया सम्पन्न हो सकती है, परन्तु सम्प्रेषण की प्रभावशीलता दोनों माध्यमों के उचित समन्वय के द्वारा काफी बढ़ सकती है, इस बात की सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। कक्षा सम्प्रेषण में भी बहुधा ऐसा ही होता रहता है जबकि अध्यापक और विद्यार्थी श्रव्य तथा दृश्य दोनो ही माध्यमों का प्रयोग करके सम्प्रेषण क्रिया में रत रहते हैं। जब एक अध्यापक श्यामपट्ट पर लिख रहा होता है तथा चित्रात्मक सामग्री का प्रयोग कर रहा होता है या प्रयोग और परीक्षणों तथा प्रदर्शन कर रहा होता है तो साथ में वह अपने सम्प्रेषण की प्रभावशीलता हेतु व्याख्या करने, वर्णन करने तथा स्पष्ट करने सम्बन्धी कौशलों या प्रयोग करते हुए भी देखा जा सकता है। इसी रूप में • केवल रेडियो, टेपरिकार्डर या फिल्म आदि श्रव्य या दृश्य साधनों का प्रयोग करते हुए सम्प्रेषण करने में टेलीविजन, वीडियों आदि दृश्य-श्रव्य साधनों से युक्त सम्प्रेषण व्यूह रचना का प्रयोग करना अधिक उपयुक्त सिद्ध हो सकता है।

4. बहु-इंद्रिय सम्प्रेषण व्यूह रचना:- ज्ञानेन्द्रियाँ सम्प्रेषण का अमूल्य साधन है। जितनी अधिक इंद्रियों के सहयोग से सम्प्रेषण क्रिया चालू रहेगी उतनी ही सफलता सम्प्रेषण के परिणामस्वरूप सम्प्रेषणकर्ता तथा ग्राहक को प्राप्त होती रहेगी। कक्षा सम्प्रेषण में भी अगर अध्यापक तथा विद्यार्थी द्वारा अधिक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा) का उपयोग करते हुए सम्प्रेषण प्रक्रिया चालू रखी जाए तो अधिक प्रभावशाली परिणाम सामने आ सकते हैं और इस तरह बहु-इंद्रिय सम्प्रेषण व्यूह रचना का उपयोग काफी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है।

(5) जनसम्पर्क सम्प्रेषण व्यूह रचना:- जब सम्प्रेषण प्रक्रिया में बहुत अधिक व्यक्तियों को शामिल करने का प्रश्न हो तो जन सम्पर्क माध्यम जैसे— रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, फिल्म, मुद्रित सामग्री, पुस्तक, पत्र-पत्रिकाएँ तथा इन्टरनेट और वेबसाइट पर आधारित अति आधुनिक माध्यमों की सहायता लेना आवश्यक सा हो जाता है। पत्राचार पाठ्यक्रम के जरिए जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया बहुत-से शिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा सम्पन्न की जाती है उसमें इस प्रकार के जनसम्पर्क माध्यमों की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई देने को मिल सकती है और इस तरह जन-सम्पर्क सम्प्रेषण व्यूह रचना दूर-दराज बैठे हुए विद्यार्थियों से सम्पर्क साधने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

(6) बहु- माध्यम सम्प्रेषण व्यूह रचना:- किसी भी सम्प्रेषण प्रक्रिया में जब विविध साधनों एवं माध्यमों का प्रयोग इस तरह व्यवस्थित एवं सुनियोजित ढंग से किया जाए कि उनके इस प्रकार के उपयोग द्वारा सम्प्रेषण को अधिक-से-अधिक प्रभावी बनाया जा सके तब यह माना जा सकता है कि उस सम्प्रेषण में बहु-माध्यम (Multi-media approach) से युक्त व्यूह रचना का प्रयोग किया जा रहा है। बहुत से मुक्त विश्वविद्यालयों (Open Universities) जैसे—इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) द्वारा आजकल अपने सुदूर स्थित विद्यार्थियों के साथ उचित सम्प्रेषण के लिए बहु-माध्यम उपागम का प्रयोग भली-भाँति किया जा रहा है। विदेशों में बहुत से ऐसे पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं जिनमें उन्नत किस्म के इलेक्ट्रॉनिक तथा कम्प्यूटरजनित सम्प्रेषण को लेकर बहु-माध्यम का उपयोग ऑन-लाइन एजूकेशन (On-line Education) देने के लिए सुविधापूर्वक किया जा रहा है।

इस प्रकार से एक शिक्षक को अपने शिक्षण का संगठन करने के दौरान जब यह निर्णय लेना होता कि किस प्रकार की सम्प्रेषण व्यूह रचनाओं का जयन और उपयोग किया जाए तब उसे सभी उपलब्ध व्यूह रचनाओं का विश्लेषण करके यह तय करना होता है कि कौन-सी एक विशेष सम्प्रेषण व्यूह रचना अथवा कुछ व्यूह रचनाओं का एक मिश्रित रूप उसे (i) उपलब्ध शिक्षण, परिस्थितियों में ज्यादा लाभदायक सिद्ध हो सकता है तथा (ii) किसके द्वारा निर्धारित शिक्षण-अधिगम उद्देश्यों की प्रभावपूर्ण ढंग से उपलब्धि सम्भव है। इन्हीं बातों पर विचार करके वह परिणामस्वरूप शाब्दिक, अशाब्दिक सम्प्रेषण व्यूह रचना का चुनाव करता है। इसी तरह वह दृश्य, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य, बहु-इंद्रीय (Multi-sensory) बहु-माध्यमीय (Multi-media) सम्प्रेषण व्यूह रचनाओं में से भी किसी एक या उनके मिश्रित रूप का चयन और उपयोग अपने शिक्षण हेतु कर सकता है।

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