संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा (स्वसंस्कृतिग्रहण एवं परसंस्कृतिग्रहण) | Meaning and Definition of Culture (Enculturation and Acculturation) in hindi

संस्कृति का अर्थ, संस्कृति की परिभाषा, सभ्यता और संस्कृति, संस्कृति के प्रकार, प्रकृति एवं विशेषताएं, संस्कृति का महत्त्व, शिक्षा एवं संस्कृति

▶संस्कृति का अर्थ (Meaning of Culture)

संस्कृत भाषा में "सम्" उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु में "ति" प्रत्यय के योग से संस्कृति शब्द उत्पन्न होता है। संस्कृति = सम + कृति अर्थात "अच्छी प्रकार से सोच समझकर किये गए कार्य"। व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृति शब्द ‘परिष्कृत कार्य’ अथवा उत्तम स्थिति का बोध कराता है, किन्तु इस शब्द का भावार्थ अत्यन्त व्यापक है। अंग्रेजी में वस्तुत: संस्कृति के लिए (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वस्तुत: संस्कृति शब्द मनुष्य की सहज प्रवृत्ति, नैसर्गिक शक्तियों और उनके परिष्कार का द्योतक है। किसी देश की संस्कृति अपने को विचार, धर्म, दर्शन काव्य संगीत, नृत्य कला आदि के रूप में अभिव्यक्त करती है। मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग करके इन क्षेत्रों में जो सृजन करता है और अपने सामूहिक जीवन को हितकर तथा सुखी बनाने हेतु जिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रथाओं को विकसित करता है उन सब का समावेश ही हम ‘संस्कृति’ में पाते हैं। इससे स्पष्ट होता है संस्कृति की प्रक्रिया एक साथ ही आदर्श को वास्तविक तथा वास्तविक को आदर्श बनाने की प्रक्रिया है।

Culture and Education : Enculturation and Acculturation

▶संस्कृति की परिभाषा (Definition of Culture)

संस्कृति समाज का मानव को श्रेष्ठतम वरदान है संस्कृति का अर्थ उस सब कुछ से होता है, जिसे मानव अपने सामाजिक जीवन में सीखता है या समझ पाता है. संस्कृति की कतिपय परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-

* क्यूबर (Cuber) के अनुसार- 'मानव विज्ञान के शब्दों में संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों और सिखे हुए व्यवहारों के परिणाम के सतत परिवर्तनशील रुप को कहते हैं. इन सीखे व्यवहारों में अभिवृत्ति, आदर्श, ज्ञान एवं भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं. जिन्हें समाज के सदस्य परस्पर एक दूसरे को प्रदान कर देते हैं."

* टायलर (Tylor) के अनुसार- "संस्कृति बहुत जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है."

* मैकाइवर (MacIver) के अनुसार- "संस्कृति हमारे जीवन के दैनिक व्यवहारों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन व आमोद-प्रमोद, रहन-सहन और विचार की विधियों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है."

* ओटावे (Ottaway) के अनुसार- "किसी समाज की संस्कृति का अर्थ समाज के संपूर्ण जीवन पद्धति से होता है."

* महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के अनुसार- "संस्कृति नींव है, प्रारंभिक वस्तु है, तुम्हारे सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यवहारों से इसे प्रकट होना चाहिए. "

प्रत्येक समाज ने अपनी-अपनी भाषाएं विकसित की हैं, अपने-अपने रहन-सहन एवं खानपान की विधियाँ, व्यवहार प्रतिमान, रीति-रिवाज, भाषा-साहित्य, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्य विकसित किए हुए हैं और यह एक-दूसरे से भिन्न हैं और यही इनकी अपनी अलग पहचान है. तब संस्कृति को निम्लिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए-

"किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उस समाज के व्यक्तियों के रहन-सहन एवं खानपान की विधियों, व्यवहार, प्रतिमानों, आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूलों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं."

▶सभ्यता और संस्कृति (Civilization and Culture)

सभ्यता और संस्कृति सर्वथा एक ही नहीं है लेकिन दोनों का अंतर इस प्रकार है कि बहुदा पर्यायवाची माने जाते हैं. प्रकृति ने हमको जो कुछ दिया है उसे काम में लेकर मनुष्य ने जो अधिभौतिक प्रगति की है उसको हम सभ्यता (Civilization) कहते हैं तथा बुद्धि का प्रयोग कर मनुष्य जो सर्जन करता है वह संस्कृति (Culture) है. संस्कृति का संबंध अतरंग से है और सभ्यता का बहिरंग से. संस्कृति आत्मा है और सभ्यता देह. संस्कृति आध्यात्मिक स्तर है और सभ्यता अधिभौतिक. संस्कृति का विकास निसर्ग द्वारा ना होकर मानव के द्वारा होता है अतः संस्कृति नैसर्गिक वस्तु ना होकर मानवकृत कृत्रिम चीज है. संस्कृति एक व्यक्ति के उद्योग का फल ना होकर सामूहिक फल है. सभ्यता और संस्कृति को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • सभ्यता का मूल्य निर्धारण किया जा सकता है लेकिन संस्कृति का नहीं.
  • सभ्यता की उन्नति दिखाई देती है लेकिन संस्कृति की नहीं.
  • सभ्यता में विस्तार की गति तीव्र होती है लेकिन संस्कृति के संबंध में बात नहीं कही जा सकती.
  • सभ्यता को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी द्वारा आसानी से अपनाया जाता है लेकिन संस्कृति को नहीं.

▶संस्कृति के प्रकार (Types of Culture)

समान्यतः संस्कृति को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है-

(1) भौतिक संस्कृति:- भौतिक संस्कृति के अंतर्गत संस्कृति का बाह्य रूप सम्मिलित होता है. समाज के व्यक्तियों की वेशभूषा, खान-पान, उद्योग-व्यवसाय, धन-संपत्ति आदि भौतिक संस्कृति के अंग होते हैं.

(2) अभौतिक संस्कृति:- अभौतिक संस्कृति का संबंध व्यक्ति के विचारों, विश्वासों, मूल्यों, धर्म, भाषा, साहित्य आदि से होता है. इस प्रकार भौतिक संस्कृति में मूर्त वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं जबकि अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती हैं.

▶संस्कृति की प्रकृति एवं विशेषताएं (Nature and Characteristics of Culture)

यद्यपि सैद्धांतिक रूप में संस्कृति के संप्रत्यय के संबंध में सभी विद्वान एकमत नहीं है परंतु उसके व्यावहारिक पक्ष के संबंध में सब एकमत हैं यहां हम उसी को उसकी प्रकृति एवं विशेषताओं के रूप में प्रस्तुत करेंगे-

  • संस्कृति मानव की विशेषता है
  • संस्कृति मानव समाज के युग-युग की साधना का परिणाम है
  • संस्कृति, सांस्कृतिक तत्वों का एक विशेष संगठन है.
  • भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ होती हैं.
  • संस्कृति समाज विशेष के लिए आदर्श होती है.
  • संस्कृति समाज के व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधती है.
  • संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करती है.
  • संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती है.
  • संस्कृति परिवर्तन एवं विकासशील होती है.
  • संस्कृति के प्रति प्रतिमान शिक्षात्मक होते हैं.
  • संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता हैं.

▶संस्कृति का महत्त्व (Importance of Culture)

संस्कृति के महत्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1). जीवन यापन की कला सीखने में सहायक- संस्कृति व्यक्ति के जीवन संघर्षों को कम करती है और उसमें वातावरण के प्रति समायोजित होने की क्षमता प्रदान करती है और इस प्रकार व्यक्ति सुख पूर्वक जीवन यापन करने में सफल होता है.

(2). सामाजिक व्यवहार की दिशा निर्धारित करने में सहायक-  अपनी संस्कृति से परिचित होने के उपरांत व्यक्ति सामाजिक आदर्शों, मान्यताओं, परंपराओं, मूल्यों, आदर्शों के अनुसार कार्य करना प्रारंभ कर देता है और इस प्रकार वह संस्कृति से सामाजिक व्यवहार करने की दिशा ग्रहण करता है.

(3). व्यक्तित्व निर्माण में सहायक-  बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे उसके समाज का क्षेत्र व्यापक होता जाता है. वह पहले परिवार, फिर पडोस, फिर गांव, नगर, प्रदेश, देश और विश्व के संपर्क में आता है. संपर्क बढ़ने के साथ-साथ उसे विशिष्ट अनुभव प्राप्त होते हैं जिन्हें वह अपने जीवन का अंग बना लेता है. यह अनुभव उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालते हैं और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है.

(4). समाजीकरण में सहायक-  एक समाज की संस्कृति उसके आचार-विचारों, व्यवहारों, मान्यताओं, परंपराओं और विश्वासों में निहित होती है जो समाजीकरण के भी आधार होते हैं. इस प्रकार संस्कृति व्यक्ति को सामाजिकृत करती है.

(5). अनुकूलन करने में सहायक-  भौगोलिक दशाएं, समाज की रचना आदि संस्कृति के निर्माण में बहुत योग देती हैं. व्यक्ति अपने सुख के लिए प्रकृति को अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करता है और इस प्रकार उसे इस वातावरण से अपने को व्यवस्थित करने में संस्कृति से बहुत सहायता मिलती है.

(6). राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सहायक-  सांस्कृतिक एकता राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में बहुत सहायक होती है. एक संस्कृति वाले समाज के सदस्य अपनी परंपराओं, विश्वासों, मूल्यों और आदर्शों आदि पर बहुत आस्था रखते हैं, उनसे उनका लगाव होता है और उनकी रक्षा करने तथा प्रचार और प्रसार करने में संलग्न में रहते हैं इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है.

(7). राष्ट्रभाषा का स्वरूप निर्धारित करने में सहायक-  संस्कृति का आधार भाषा होती है. मुस्लिम काल में इस्लामी संस्कृति के विकास के लिए अरबी, फारसी और उर्दू को महत्व दिया गया. उर्दू को काम-काज की भाषा बनाया गया अंग्रेजों द्वारा पाश्चात्य संस्कृति के विकास के लिए अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया गया. स्वतंत्र भारत में भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है.

(8). नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों के प्रति निष्ठावान बनाने में सहायक-  नई पीढ़ी के सदस्य अपने संस्कृति के विकास का अध्ययन करने के बाद यह जान जाते हैं की उनकी संस्कृति के विकास में उनके पूर्वजों ने क्या योगदान दिया है. इससे अपने पूर्वजों के प्रति उनके मन में श्रद्धा और निष्ठा पैदा होती है और वे पुरानी पीढ़ी द्वारा सौंपी गई विरासत को सुरक्षित रखते हैं तथा नई पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं.

▶शिक्षा एवं संस्कृति (Education and Culture)

शिक्षा और संस्कृति परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं. इस संबंध में ब्रामेल्ड (Brameld) कहते हैं, "संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और यही सामग्री शिक्षा को न केवल उसके स्वयं के उपकरण वरन उसके अस्तित्व का कारण भी प्रदान करती है."

शिक्षा अपने रूप-रेखा का निर्माण समाज की संस्कृति के अनुसार ही करती है और संस्कृति का निर्माण समाज के उपकरणों, विचार और मूल्यों के आधार पर ही होता है. यदि किसी समाज की संस्कृति में आध्यात्मिकता का प्रमुख स्थान है तो वहां की शिक्षा व्यवस्था में नैतिकता चारित्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर विशेष बल दिया जाता है. इसके साथ-साथ किसी समाज की संस्कृति का संरक्षण समाज के माध्यम से ही होता है. इस प्रकार संस्कृति शिक्षा को और शिक्षा संस्कृति को प्रभावित करते हैं-

▶संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Culture on Education)

आज किसी भी समाज की शिक्षा उसके धर्म-दर्शन, उसके स्वरूप, उसके शासनतंत्र, उसकी अर्थव्यवस्था, मनोवैज्ञानिक खोजों और वैज्ञानिक आविष्कारों पर निर्भर करती है. इन्हें ही दूसरे शब्दों में शिक्षा के दार्शनिक, समाजशास्त्रीय, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आधार कहते हैं. समाजशास्त्रीय आधारों में सबसे अधिक प्रभावशाली तत्व समाज विशेष की संस्कृति होती है. यह प्रभाव निम्न प्रकार है-

(1). शिक्षा के उद्देश्यों पर संस्कृति का प्रभाव-  संस्कृति के अंतर्गत समाज विशेष के रहन-सहन और खान-पान की विधियां, व्यवहार, रिती-रिवाज, परंपराएं, धार्मिक विश्वास, कला, कानून, नैतिकता, साहित्य, संगीत, भाषा, विचार, मान्यताएं, आदर्श और मूल्य आदि वह सब सम्मिलित हैं जिसे सामाजिक धरोहर का जाता है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसकी आवश्यकताएं तथा आकांक्षाये  समाज के संस्कृति के अनुसार ही होते हैं. जिस समाज की संस्कृति का आधार आध्यात्मिक होता है उस समाज के शिक्षा का उद्देश्य भी बालकों की आध्यात्मिक उन्नति और विकास करना होता है. इस प्रकार कीसी समाज की संस्कृति उस समाज के शिक्षा के उद्देश्यों को गहन रूप में प्रभावित करती है.

(2). शिक्षा के पाठ्यक्रम पर संस्कृति का प्रभाव-  शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षा के उद्देश्यों के अनुरूप ही किया जाता है जब शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति का अनुगमन करता है तो पाठ्यक्रम का निर्माण भी उसी संस्कृति के अनुसार होना स्वभाविक है. समाज विशेष की संस्कृति के प्रमुख तत्व समाज की शिक्षा के पाठ्यक्रम में पूर्ण रुप से समाहित होते हैं. समाज की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, वातावरण, रहन-सहन, कला, कौशल, संगीत, नृत्य-साहित्य, आदर्श-विचार, मूल्य सभी को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करके उनकी शिक्षकों बालकों को दी जाती है.

(3). शिक्षण विधियों पर संस्कृति का प्रभाव-  समाज की विचारधारा और संस्कृति के अनुसार शिक्षण विधियों का विकास होता है. जिस समाज की विचारधारा में एकाधिकार का अधिपत्य होता है वहां बालकों के रुचियां और इच्छाओं को विशेष महत्व नहीं दिया जाता और शिक्षण विधियां भी छात्र केंद्रित ना होकर अध्यापक केंद्रित होती हैं. लेकिन जिस समाज की विचारधारा आदर्श और मूल्य प्रजातांत्रिक होते हैं वहां शिक्षण विधियां छात्र केंद्रित होती हैं.

(4). अनुशासन पर संस्कृति का प्रभाव-  समाज की संस्कृति का अनुशासन पर भी प्रभाव पड़ता है व्यक्तियों के रहन-सहन कि शैली, आचार-विचार, आर्थिक स्थिति, नैतिक मूल्य और आदर्श आदि जो संस्कृति के अंग हैं, अनुशासन को प्रभावित करते हैं. धर्म प्रधान संस्कृति वाले समाज में आत्म अनुशासन होता है जबकि भौतिक प्रधान संस्कृति वाले समाज में बाह्य अनुशासन होता है.

(5). विद्यालय पर संस्कृति का प्रभाव- विद्यालय को समाज का लघु रूप कहा जाता है. अतः विद्यालय समाज विशेष की संस्कृति के केंद्र होते हैं. विद्यालय का भवन, विद्यालय की व्यवस्था, विद्यालय की क्रियाएँ और विद्यालय का संपूर्ण वातावरण वहां की संस्कृति के अनुसार ही होता है. उदाहरण के लिए जहां सोफिया, सेंट मेरिज आदि पब्लिक स्कूल ईसाई संस्कृति से प्रभावित हैं, वहां सरस्वती शिशु मंदिर, विवेकानंद विद्यालय, रामतीर्थ संस्थान, और गुरुकुल भारतीय संस्कृति का विकास करते हैं.

(6). शिक्षा पर संस्कृति के रूप में प्रभाव-  संस्कृति का रूप भी शिक्षा की व्यवस्था को प्रभावित करता है और भौतिक संस्कृति के अंतर्गत शिक्षा की व्यवस्था प्रेम, सहयोग, दया, सहानुभूति, करुणा, नैतिकता जैसे गुणों का विकास करने के लिए की जाएगी, जबकि भौतिक संस्कृति के अंतर्गत लोकिकता पर विशेष बल दिया जाएगा. उद्योग प्रधान संस्कृति में उद्योगों पर और कृषि प्रधान संस्कृति में कृषि पर अधिक महत्व दिया जाएगा.

▶शिक्षा का संस्कृति पर प्रभाव (Impact of Education on Culture)

यदि एक ओर यह बात सत्य है कि किसी समाज की संस्कृति का प्रभाव उसकी शिक्षा पर पड़ता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि किसी समाज की शिक्षा का प्रभाव उसकी संस्कृति पर पड़ता है. संस्कृति पर शिक्षा के प्रभाव को निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1). शिक्षा संस्कृति का संरक्षण करती है-  शिक्षा के माध्यम से ही किसी समाज की संस्कृति सुरक्षित और जीवित रहती है. किसी समाज की संस्कृति युग-युग की साधना का परिणाम होती है. इसलिए उस समाज का उससे बहुत लगा होता है और वह उसे सुरक्षित रखना चाहता है. और यह कार्य शिक्षा के द्वारा किया जाता है. औपचारिक, अनौपचारिक और निरौपचारिक साधनों के द्वारा शिक्षा संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है. वर्तमान पीढ़ी को अपनी संस्कृति की जानकारी शिक्षा के द्वारा ही होती है.

(2). शिक्षा संस्कृति का स्थानांतरण करती है-  शिक्षा संस्कृति का केवल संरक्षण ही नहीं करती अपितु नई पीढ़ी में उसका स्थानांतरण भी करती है. शिक्षा के कारण ही संस्कृति अपने अस्तित्व को बनाए रखती है. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संस्कृति का स्थानांतरण करके शिक्षा संस्कृति को अमरत्व प्रदान करती है.

(3). शिक्षा संस्कृति का विकास करती है- यद्यपि प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को उसी रूप में सुरक्षित रखना चाहता है जिस रूप में वह उसे प्राप्त करता है. परंतु समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं वह निरंतर विकास की ओर अग्रसर होता है. ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का कार्य है कि वह संस्कृति में वांछित परिवर्तन लाए और उसे विकास की ओर उन्मुख करें. युग और काल के अनुशासन, संस्कृति का विकास करना और उसको उपयोगी बनाना शिक्षा का उत्तरदायित्व है.

(4). शिक्षा संस्कृति का परिमार्जन करती है-  समय के साथ-साथ संस्कृति के अनेक तत्व अनुपयोगी और निरर्थक हो जाते हैं और अपनी उपयोगिता खो देते हैं. इसके अतिरिक्त अशिक्षा, व्यक्तिगत स्वार्थ और अंधविश्वासों आदि के कारण संस्कृति में अनेक बुराइयां पैदा हो जाती हैं. शिक्षा संस्कृति के इन अनुपयोगी और निरर्थक तत्वों तथा उसमें पैदा हुई बुराइयों का निष्क्रमण कर संस्कृति को परिमार्जित करती है और उसके रूप को निकाल कर उसे उपयोगी बनाती है.

(5). शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायता करती हैं- शिक्षा संस्कृति के अनुकूल बालक के व्यक्तित्व का विकास करती है. शिक्षा व्यक्तित्व के विभिन्न अंगों- बौद्धिक, नैतिक, चारित्रिक आदि के विकास के लिए सांस्कृतिक उपकरणों को प्रयोग में लाती है और नित्य-नवीन उपकरणों की रचना करती है. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास किया जाता है और ऐसे व्यक्तित्व समाज की संस्कृति को उन्नत करते हैं.

▶भारतीय संस्कृति विरासत (Indian Culture Heritage)

किसी भी देश की संस्कृति उस देश के व्यक्तियों की युग-युग की साधना का परिणाम होती है. यह मनुष्यों को अन्य जीवो से अलग करती है और ऊपर उठाती है. जहां तक हमारे देश भारत की संस्कृति का प्रश्न है, यहां अनेक संस्कृतियाँ विकसित हुई हैं परंतु जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य "भारतीय आर्य संस्कृति" से होता है जो वैदिक काल से अब तक अक्षुण्य रूप से चली आ रही है. भारतीय संस्कृति संसार की प्राचीनतम संस्कृति है और सबसे अधिक समृद्ध संस्कृति है. हमारी यह संस्कृति संपूर्ण मानव जाति के शुभ, मंगल, और कल्याण की संस्कृति है. इसने ही मनुष्य को सर्वप्रथम "वसुदेव कुटुंबकम" का पाठ पढ़ाया था. इस ने हीं हमे सर्वप्रथम "सर्वे भवंतु सुखिना" की ओर प्रवृत्त किया था. यह हमारी भारतीय संस्कृति ही है जो मनुष्य को स्वयं समाज एवं राष्ट्र के लिए नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के लिए जीना सिखाती है.

हमारी भारतीय संस्कृति प्रारंभ से ही अध्यात्म प्रधान एवं धर्म प्रधान रही है. हमारे रहन-सहन, खान-पान की विधियाँ, रीति-रिवाज, मूल्य और अचार-विचार सभी धर्म पर आधारित रहे हैं. हमारी यह संस्कृति चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की संस्कृति है, चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की संस्कृति है, पांच महाव्रत (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) की संस्कृति है, पांच दोष (काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद) से दूर रहने की संस्कृति है और 16 संस्कार (पुंसवन, सीमांतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदाआरंभ, समावर्तन, विवाह, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम सन्यासाश्रम और अन्येष्टि) की संस्कृति है. कभी हमारे देश में वही व्यक्ति सुसंस्कृत माना जाता था जो प्रथम 12 संस्कारों की श्रंखला से होकर गुजरता था. अतिथि सत्कार हमारी भारतीय संस्कृति की एक और बड़ी विशेषता है.

वैदिक काल में हमारी वर्ण व्यवस्था कर्म (व्यवसाय) पर आधारित थी जो व्यक्ति अध्ययन-अध्यापन करते थे उन्हें ब्राह्मण का जाता था. जो राज्य संचालन करते थे और सैनिकों के रूप में राज्य की रक्षा करते थे उन्हें क्षत्रिय कहा जाता था और जो कृषि एवं व्यापार करते थे उन्हें वैश्य कहा जाता था और जो समाज के इन वर्णो के व्यक्तियों की सेवा करते थे उन्हें शूद्र कहा जाता था. परंतु ब्राह्मण काल में यह व्यवस्था जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था में बदल गई. ब्राह्मण के यहां जन्म लेने वाले ब्राह्मण, क्षत्रियों के यहां जन्म लेने वाले क्षत्रिय, वैश्य के यहां जन्म लेने वाले वैश्य और शूद्रों के यहां जन्म लेने वाले शूद्र कहलाने लगे, भले ही वह कोई भी काम करते थे. मनु ने इस जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को इतना कठोर बना दिया कि यह व्यवस्था आज तक चली आ रही है. क्या हुआ यदि हमने शूद्रों को अनुसूचित जाति का नाम दे दिया भावना तो कुछ अर्थों में वही ब्राह्मण कालीन ही बनी हुई है आज आवश्यकता है किसी प्रकार की वर्ण व्यवस्था से ऊपर उठने की सबको मानव भर मानने की.

▶स्वसंस्कृतिग्रहण, परसंस्कृतिग्रहण और संस्कृतिकरण (Enculturation, Acculturation and Culturalization)

मनुष्य जिस समाज में रहता है वह समाज की क्रियाओं में भाग लेकर उस समाज की संस्कृति को सीखना और ग्रहण करता है. जब कोई मनुष्य अपने समाज की क्रियाओं में भाग लेते हुए अपनी संस्कृति को सीखना और ग्रहण करता है तो इस क्रिया को समाजशास्त्र की भाषा में स्वसंस्कृतिग्रहण (Enculturation) कहते हैं. इसके विपरीत जब एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों के संपर्क में आते हैं और जाने-अनजाने एक-दूसरे की संस्कृतियों के कुछ तत्व ग्रहण करते हैं तो इसे समाजशास्त्र की भाषा में परसंस्कृतिग्रहण (Acculturation) कहते हैं. परंतु जब कोई व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह अपनी संस्कृति के स्थान पर किसी दूसरी संस्कृति को ग्रहण करता है तो उसे समाजशास्त्र की भाषा में संस्कृतिकरण (Culturalization) कहते हैं. इसके उदाहरण भी हमारे देश में है जब इस देश के मुसलमान जाति के लोग आए और उन्होंने यहां अपना राज्य स्थापित किया तो यहां के कुछ ऐसे लोग जो यहाँ हीन भावना से दबे थे उन्होंने राज्य के लोगों की इस्लामी संस्कृति को अपनाकर अपने को उच्च वर्ग में स्थापित किया.

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