शिक्षा दर्शन का अर्थ, प्रकृति, उपयोगिता एवं क्षेत्र | Philosophy of Education in hindi
▶शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Education)
शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा के शिक्ष धातु में अ प्रत्यय लगने से बना है जिसका अर्थ है सीखना, सिखाना या अभ्यास करना। इस प्रकार शिक्षा का अर्थ हुआ- सीखने और सिखाने कि प्रक्रिया. हिंदी का शिक्षा शब्द अंग्रेजी भाषा के Education शब्द का पर्याय है। अंग्रेजी भाषा के Education शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के Educatum शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है शिक्षित करना, पढ़ाना या सिखाने की क्रिया। Educatum शब्द (E) और (Duco) दो शब्दों से मिलकर बना है। (E) का अर्थ है 'अन्दर से' और (Duco) का अर्थ है 'आगे बढ़ना'। जानने में मुख्य रूप से दो बातें सम्मिलित हैं-
- बाहर से आरोपित ज्ञान को जानना अर्थात शिक्षक बालक को जो ज्ञान दे रहा है, वह उसको जाने, उसको समझे,
- जो ज्ञान बालक के अन्दर स्थित है, उसे वह जाने, पहचाने और समझे। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों की यही विचारधारा थी कि आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है।
इस प्रकार व्युत्पत्ति के आधार पर शिक्षा का अर्थ बालक की आंतरिक शक्तियों या गुणों को विकसित करके उसका सर्वांगीण विकास करने कि क्रिया से है। एडीशन के शब्दों में," शिक्षा द्वारा मनुष्य की उन अंतर्निहित शक्तियों या गुणों का दिग्दर्शन होता है, जिनका प्रकट होना शिक्षा के बिना असंभव है।"
अंग्रेजी भाषा के Education का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है-
- E - Expert (निपुण)
- D - Discipline (अनुशासन)
- U - Useful (उपयोगी)
- C - Creativity (सृजनात्मक)
- A - Awareness (जागृति)
- T - Truth (सत्य)
- I - Intelligence (बौद्धिक)
- O - Obedient (आज्ञाकारी)
- N - Nobility (सज्जनता)
▶शिक्षा का संकुचित अर्थ (Narrower Meaning of Education)
संकुचित अर्थ में शिक्षा का अर्थ उस शिक्षा से है जो बालक को विद्यालय की चारदीवारी में शिक्षक के द्वारा पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार प्रदान कि जाती है। यह शिक्षा विद्यालय की चारदीवारी तक सीमित रहती है और जीवन के कुछ ही वर्षों तक प्राप्त की जाती है। इसमें पाठ्यक्रम पुर्वनिर्धारित होता है, शिक्षण विधियां निश्चित होती हैं, पुस्तकों का बाहुल्य होता है और शिक्षक का स्थान प्रमुख होता है। जे0 एस0 मैकेंज़ी (J. S. Machenzie) ने शिक्षा के संकुचित अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है, "संकुचित अर्थ में शिक्षा का अभिप्राय हमारी शक्तियों के विकास और उन्नति के लिए चेतनापूर्वक किये गए प्रयासों से लिया जाता है।"
संकुचित अर्थ में शिक्षा बालक का सर्वांगीण विकास करने में असमर्थ रहती है। इससे बालक को व्यवहारिक ज्ञान नहीं होता, वह तोते की तरह विषयों को रट लेता है लेकिन उसमें व्यवहारिक कुशलता नहीं आ पाती। इसमें शिक्षक बालकों को कुछ सूचनाएं देता है या उन्हें पुस्तकीय ज्ञान देता है इसलिए संकुचित अर्थ में शिक्षा के लिए अध्यापन या निर्देशन शब्द का प्रयोग किया जाता है।
▶शिक्षा का व्यापक अर्थ (Wider meaning of Education)
व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य उस शिक्षा से है जो बालक को जीवन पर्यंत अपने माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, शिक्षक, पड़ोसी और समाज के अन्य लोगों से प्राप्त होती है। यह शिक्षा विद्यालय की चारदीवारी तक सीमित न रहकर परिवार, विद्यालय, दुकान, दफ्तर, खेल के मैदान, पार्क, सिनेमा हॉल आदि सब जगह प्राप्त होती रहती है। इसमें कोई पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम नहीं होता, निश्चित शिक्षण विधियां नहीं होती और पुस्तकों का कोई स्थान नहीं होता। जे0 एस0 मैकेंज़ी (J. S. Machenzie) ने शिक्षा का व्यापक अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है, "व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन - प्रयन्त चलती है और जीवन के प्रत्येक अनुभव से उसमें वृद्धि होती है।"
▶शिक्षा की परिभाषाएं (Definition of Education)
शिक्षा की कुछ प्रमुख एवं महत्वपूर्ण परिभाषाएं इस प्रकार हैं-
(1). सुकरात (Socrates) के अनुसार, "शिक्षा का अर्थ प्रत्येक मानव मस्तिष्क में अदृश्य रूप से विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाश में लाना है।"
(2). प्लेटो (Plato) के अनुसार, "शिक्षा विद्यार्थी के शरीर और आत्मा में उस सब सौंदर्य और पूर्णता का विकास करती है जिसके योग्य वह है।"
(3). अरस्तु Aristotle) के अनुसार, "शिक्षा मानवीय शक्ति का विशेष रूप से मानसिक शक्ति का विकास करती है जिससे मानव परम सत्य, शिव और सुंदर का चिंतन करने के योग्य बन सके।"
(4). पेस्टालोजी (Pastalogzzi) के अनुसार, "शिक्षा मानव के जन्मजात शक्तियों का स्वभाविक समरूप और प्रगतिशील विकास है।"
(5). ड्यूवी (Dewey) के अनुसार, "शिक्षा व्यक्ति की उन समस्त शक्तियों का विकास है जिनसे वह अपने पर्यावरण पर नियंत्रण रख सके और अपने संभावनाओं को पूर्ण कर सके।"
(6). विवेकानंद (Vivekanand) के अनुसार, "शिक्षा उस परिपूर्णता का प्रदर्शन है जो मनुष्य के अंदर पहले से ही है।"
(7). टैगोर (Tagor) के अनुसार, "उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती वरन हमारे जीवन को प्रत्येक अस्तित्व के अनुकूल बनाती है।"
(8). महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के अनुसार, "शिक्षा से मेरा भी अभिप्राय बालक तथा पप्रौढ़ के शरीर, मन तथा आत्मा में अंतर्निहित शक्तियों का सर्वांगीण प्रकटीकरण से है।"
(9). डॉक्टर राधाकृष्णन (Dr. Radhakrishnan) के अनुसार, "शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए।"
▶शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)
शिक्षा की प्रकृति के संबंध में मूल रूप से दार्शनिकों, समाज शास्त्रियों, राजनीति शास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों ने विचार किया है। इन सब के दृष्टिकोण से शिक्षा की प्रकृति के विषय में निम्नलिखित तत्व उजागर होते हैं-
(1). शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है- इसके मुख्य रूप से तीन अंग होते हैं सिखाने वाला, सीखने वाला और सीखने सिखाने की विषय सामग्री अथवा क्रिया। यह बात दूसरी है कि सिखाने वाला सीखने वालों के सामने प्रत्यक्ष रुप से उपस्थित रहता है या पर्दे के पीछे कार्य करता है।
(2). शिक्षा एक उद्देश्य पूर्ण और सचेतन प्रक्रिया है- शिक्षा का कुछ ना कुछ उद्देश्य होता है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बहुत सोच विचार कर व जानबूझकर प्रयत्न किए जाते हैं। अर्थात शिक्षा की प्रक्रिया योजनाबद्ध ढंग से संचालित की जाती है।
(3). शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली अनवरत प्रक्रिया है- बालक शिक्षा को केवल विद्यालय में शिक्षकों से ही प्राप्त नहीं करता वरन अपने संपूर्ण जीवन में समाज के सदस्यों, प्राकृतिक वातावरण, पशु-पक्षी, जीवन जंतु आदि से जो कुछ भी अनुभव के रूप में ग्रहण करता है वह सब शिक्षा है।
(4). शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है- शिक्षा की प्रक्रिया स्थिर ना होकर गतिशील है। यह व्यक्ति के जन्म से प्रारंभ होकर मृत्यु तक चलती रहती है। यह व्यक्ति को सक्रिय बनाकर जीवन में उन्नति और विकास करने के लिए प्रेरित करती है।
(5). शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है- शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिसके दो अंग हैं- एक शिक्षक और दूसरा विद्यार्थी। शिक्षण की प्रक्रिया में यह दोनों ही अंग सक्रिय रहते हैं। दोनों में से एक अंग के निष्क्रिय रहने पर शिक्षा की प्रक्रिया नहीं हो सकती।
(6). शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है- ड्युई (Dewey) आदि शिक्षा शास्त्रियो का कहना है कि शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है और उसके तीन अंग हैं- एक शिक्षक, दूसरा बालक और तीसरा पाठ्यक्रम. शिक्षक और बालक के साथ-साथ पाठ्यक्रम भी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है।
(7). शिक्षा विकास की प्रक्रिया है- प्रत्येक बालक कुछ वंशानुगत शक्तियों को लेकर पैदा होता है। सामाजिक वातावरण में बालक के इन शक्तियों का विकास होता है। वातावरण में रहते हुए बालक अनेक क्रियाएं करता है जिससे उसे नए-नए अनुभव प्राप्त होते हैं।
▶शिक्षा का विषय विस्तार या क्षेत्र (Scope of Education)
शिक्षा का संबंध जीवन से है, इसलिए शिक्षा के विषय विस्तार के अंतर्गत जीवन की क्रियाएं और समस्याएं आती हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को उसके पूर्वजों के द्वारा संग्रहित धरोहर, उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत और उनके संचित अनुभवों का ऐसा ज्ञान दिया जाता है जिससे उसको उसके जीवन की समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है, लेकिन ये अनुभव, ये विरासत, ये धरोहर इतनी व्यापक है कि व्यक्ति अपने संपूर्ण जीवन में भी उनको पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकता।
शिक्षा के संबंध में विचार करने वाला विषय शिक्षा शास्त्र है। प्रारंभ में शिक्षा शास्त्र को केवल शिक्षण की कुशलता का विषय माना गया था जिसके द्वारा विविध विषयों की शिक्षण पद्धतियों का ज्ञान कराया जाता था। आज भी शिक्षा शास्त्र को शिक्षकों के प्रशिक्षण का मुख्य आधार माना जाता है लेकिन आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन हुआ है और हो रहा है। शिक्षा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं. विज्ञान और तकनीकी के विकास के कारण आज मानव की आवश्यकताएं, इच्छाएं, और आकांक्षाएं बदल रही है इसलिए शिक्षा का स्वरूप भी निरंतर बदल रहा है। आज शिक्षा बाल केंद्रित है, शिक्षण की पद्धतियों में अत्यधिक परिवर्तन हो रहा है। इसके विषय क्षेत्र में समानतः निम्नलिखित विषय आते हैं-
(1). शिक्षा दर्शन- शिक्षा दर्शन के अंतर्गत शिक्षा के समस्त कार्यों समस्याओं और विधियों पर दार्शनिक की दृष्टि से विचार किया जाता है। शिक्षा दर्शन शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, अनुशासन, शिक्षा व्यवस्था आदि का निर्धारण करता है।
(2). शैक्षिक समाजशास्त्र- मनुष्य का समाज से बहुत गहरा संबंध है। वह जो कुछ भी सीखता है समाज के द्वारा ही सीखता है और समाज के बीच रहकर ही सीखता है इसलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। समाज और शिक्षा का संबंध शैक्षिक समाजशास्त्र का विषय है।
(3). शिक्षा मनोविज्ञान- आज शिक्षा बाल केंद्रित है। अतः बालक को जानना समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। बालक की प्रकृति, उसकी विकास प्रक्रिया, उसकी बुद्धि, योग्यता, क्षमता, रुचि, अभिरुचि, अभियोग्यता, चिंतन, स्मृति, कल्पना आदि का ज्ञान शिक्षा मनोविज्ञान से प्राप्त होता है।
(4). शिक्षा का इतिहास- आज का अर्थात वर्तमान का निर्माण करने के लिए अतीत का अर्थात इतिहास का ज्ञान प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक होता है। क्योंकि वर्तमान की रचना अतीत की उपलब्धियों पर ही की जा सकती है। अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा का भी अपना इतिहास है जिसके द्वारा हम आदिकाल से लेकर अब तक की शिक्षा के स्वरूप, शिक्षा की व्यवस्था, शिक्षा की संरचना, शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, अनुशासन व्यवस्था आदि का अध्ययन करते हैं।
(5). शैक्षिक समस्याएं- विभिन्न शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन इसके अंतर्गत किया जाता है। समाज में होने वाले परिवर्तन से मनुष्य का जीवन जटिल होता जा रहा है। जीवन के हर क्षेत्र में उसके सामने नई नई चुनौतियां आ रही हैं शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है।
(6). शैक्षिक प्रशासन- इसके अंतर्गत विद्यालय संगठन, विद्यालय भवन, समय सारणी, पाठ्यक्रम संबंधी क्रियाएं, प्रधानाचार्य, शिक्षकों और शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की नियुक्तियां, कार्य दशाएं व वेतन आदि की सुविधाएं और उनके पारस्परिक संबंध, बालकों की स्वास्थ्य रक्षा, मूल्यांकन व्यवस्था, शैक्षिक और व्यवसायिक निर्देशन तथा निरीक्षण व पर्यावरण से संबंधित विषय आते हैं।
(7). शिक्षण कला एवं तकनीकी- शिक्षण की सफलता बहुत कुछ शिक्षण कला और शिक्षक तकनीकी पर भी निर्भर करती है। यद्यपि ज्ञान प्राप्त करने की विधियों में बहुत कुछ समानता होती है लेकिन विषयों की बहुलता और उनकी विषय वस्तु में भिन्नता होने के कारण सभी विषयों के लिए एक शिक्षण विधियां नहीं अपनाई जा सकतीं।
(8). तुलनात्मक शिक्षा- प्रत्येक देश की अपनी शिक्षा व्यवस्था होती है। विभिन्न देशों की शिक्षा व्यवस्थाओं का ज्ञान हमको तुलनात्मक शिक्षा के अध्ययन से प्राप्त होता है।
(9). अध्ययन के विशेष क्षेत्र- विश्व में होने वाले क्रांतिकारी परिवर्तनों के फल स्वरुप शिक्षा के क्षेत्र में नए नए विषयों का विकास हो रहा है जैसे मौलिक अनुसंधान, क्रियात्मक अनुसंधान, सांख्यिकी, मापन, एवं मूल्यांकन, निर्देशन और परामर्श, बाल विकास एवं बाल मनोविज्ञान, शैक्षिक वित्त, पुस्तकालय संगठन, अध्यापक शिक्षा, पर्यावरण शिक्षा, कंप्यूटर शिक्षा आदि।
▶दर्शन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Philosophy)
दर्शन शब्द अत्यंत गुढ़ और गहन है। इस शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। दर्शन के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए इसके शाब्दिक, विशिष्ट और व्यापक अर्थ तथा विद्वानों द्वारा की गई परिभाषाओं पर विचार करना आवश्यक होगा।
▶ I- दर्शन का शाब्दिक अर्थ (Etymological Meaning of Philosophy)
दर्शन शब्द दृश धातु से बना हैं जिसका अर्थ हैं देखना। दृश्यते अनेन इति दर्शनं अर्थात जिसके द्वारा देखा जाए अथवा जिसके द्वारा सत्य के दर्शन किए जाए, वह दर्शन है। दर्शन शब्द की इस व्युत्पत्ति के आधार पर जीवन, जगत और जगदीश्वर संबंधित प्रश्नों का सही और सत्य उत्तर प्राप्त करने का प्रयास, ज्ञान की जिस शाखा में किया जाता है, वह दर्शन है। हिंदी का दर्शन शब्द अंग्रेजी भाषा के Philosophy शब्द का पर्याय है। अंग्रेजी भाषा के Philosophy शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों से फिलॉस (Philos) तथा सोफिया (Sophia) से हुई है। फिलॉस का अर्थ है प्रेम या अनुराग (Love) और सोफिया का अर्थ है विद्या या ज्ञान। इस प्रकार फिलोसोफी शब्द का अर्थ हुआ "विज्ञान के प्रति प्रेम"।
िलासफी शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर ज्ञान की खोज करने और उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कला को दर्शन कहते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो (Plato) ने दर्शन को इसी रूप में स्वीकार किया है। उसके शब्दों में- "जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नई-नई बातों को जानने के लिए रुचि प्रकट करता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता, उसे दार्शनिक कहा जाता है"। सुकरात ने भी कहा था कि, "जो ज्ञान की प्यास रखते हैं, वे सब दार्शनिक है"।
▶ II- दर्शन का विशिष्ट अर्थ (Specific Meaning of Philosophy)
विशिष्ट रूप से दर्शन का अर्थ उस अमूर्त चिंतन से है जिसके द्वारा आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, जन्म-मृत्यु तथा प्रकृति आदि का रहस्य मालूम किया जाता है। मनुष्य क्या है? जीवन क्या है? जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? जगत क्या है? जगत की उत्पत्ति कैसे हुई? जगत की नियामक शक्ति क्या है? सूर्य चंद्र और नक्षत्र आदि का उद्गम स्थान कौन सा है? क्या मृत्यु जीवन का अंत है? क्या मृत्यु के बाद कोई और जन्म होता है? क्या मानव जीवन और प्रकृति पर कोई और लोक है? इन प्रश्नों और इस प्रकार के अन्य प्रश्नों पर चिंतन करके चिंतन सत्य का उद्घाटन करना ही दर्शन का मुख्य विषय हैं। वस्तुतः इन प्रश्नों के अध्ययन को ही दर्शन कहते हैं। रॉस का कहना है कि वे सब व्यक्ति जो सत्यता एवं साहस के साथ उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करते हैं, दार्शनिक है- चाहे वे भौतिकवादी हों या अध्यात्मवादी हों।
▶ III- दर्शन का व्यापक अर्थ (Wider Meaning of Philosophy)
व्यापक अर्थ में दर्शन का अर्थ केवल आत्मा-परमात्मामा, जीव-जगत और प्रकृति के स्वरूप की व्याख्या करने तक ही सीमित नहीं है, वरन इसके अंतर्गत मानव जाति, इसके द्वारा विकसित ज्ञान-विज्ञान, उसकी समस्याएं और उसकी भौतिक और अभौतिक उपलब्धियों के तर्कपूर्ण एवं क्रमबद्ध विवेचना सम्मिलित है। अब दर्शन कोई ऐसा विषय नहीं है जो केवल बुद्धिवादियों तक ही सीमित है। व्यापक अर्थ में प्रकृति और मानव जीवन से किसी भी रुप में संबंध वस्तुओं के संबंध में तर्क पूर्ण विधि, सम्मत और क्रमिक रूप से विचार करने की कला का नाम ही दर्शन है और वे सभी दार्शनिक हैं, जो किसी कार्य को करने से पूर्व भली प्रकार से चिंतन और मनन कर लेते हैं। हक्सले (Huxley) का कहना है कि- "मनुष्य अपने जीवन-दर्शन तथा संसार के विषय में अपनी धारणाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। यह बात अधिक से अधिक विचाराहीन व्यक्तियों के विषय में भी सत्य है। बिना दर्शन के जीवन को व्यतीत करना असंभव है"।
▶दर्शन की परिभाषाएं (Definition of Philosophy)
दर्शन की परिभाषा कतिपय विद्वानों द्वारा दी गई हैं इनमें से कुछ परिभाषाएं इस प्रकार हैं-
(1). बरट्रेंड रसेल (Bertrand Russel)- "दर्शन एक ऐसा प्रयत्न है जो चिरंतन प्रश्नों का आलोचनात्मक उत्तर ढूंढने के लिए उन सब बातों के संबंध में अनुसंधान करता है जो उन प्रश्नों को भ्रम पूर्ण बना देते हैं और हमारे सामान्य विचारों की व्यवस्था के संबंध में सम्यक जानकारी प्राप्त करता है".
(2). कोम्टे (Comte)- "दर्शन विज्ञानों का विज्ञान है".
(3). जॉन ड्यूबी (John Dewey)- "जब कभी दर्शन को गंभीरता से लिया गया है तब सदैव यह धारणा रही है कि इसका अर्थ ज्ञान प्राप्त कर लेना है जो जीवन के मार्ग को प्रभावित करता है".
(4). प्लेटो (Plato)- " पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है".
(5). अरस्तु (Aristotle)- "दर्शन एक ऐसा विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जांच करता है".
(6). हरबर्ट स्पेंसर (Herbert Spencer)- "दर्शन विज्ञानों का समन्वय अथवा सार्वभौम विज्ञान है".
(7). राधाकृष्णन (Radhakrishanan)- "दर्शन वास्तविकता के स्वरूप की तर्कपूर्ण खोज है".
▶दर्शन का विषय क्षेत्र (Scope of Philosophy)
दर्शन का विषय क्षेत्र बहुत व्यापक है. इसमें संपूर्ण जगत और उसकी समस्त वस्तुओं और क्रियाओं के वास्तविक स्वरूप की खोज की जाती है. दर्शन के व्यापक क्षेत्र को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
▶ I- तत्वज्ञान (Metaphysics)
इसके अंतर्गत यथार्थ की प्रकृति का अध्ययन किया जाता है. इसमें जगत और व्यक्ति के अस्तित्व के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है. इसमें दर्शन के ने निम्नलिखित पांच विभाग आते हैं-
(1). आत्मा संबंधित तत्व ज्ञान (Metaphysics of the Soul)- इसके अंतर्गत आत्मा और जीव से संबंधित प्रश्नों पर विचार किया जाता है; जैसे आत्मा क्या है? जीव क्या है? आत्मा का जीव से क्या संबंध है? आदि आदि.
(2). ईश्वर संबंधित तत्व का ज्ञान (Theology)- इसके अंतर्गत ईश्वर के अस्तित्व, उसके स्वरूप, उसकी एकरूपता अथवा अनेकरूपता आदि प्रश्नों पर विचार किया जाता है; जैसे ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं आदि आदि.
(3). सृष्टि संबंधित तत्व ज्ञान (Cosmology)- इसके अंतर्गत सृष्टि की रचना और विकास से संबंधित प्रश्नों पर विचार किया जाता है; जैसे सृष्टि से क्या अभिप्राय है? क्या सृष्टि की रचना भौतिक तत्वों से हुई है? क्या सृष्टि की रचना आध्यात्मिक तत्वों से हुई है? आदि आदि.
(4). सत्ता संबंधित तत्व ज्ञान (Onotology)- इसके अंतर्गत सत्ता के स्वरूप से संबंधित प्रश्नों पर विचार किया जाता है; जैसे सृष्टि के नश्वर तत्व कौन-कौन से हैं? सृष्टि के अनुसार तत्व कौन-कौन से हैं? आदि आदि.
(5). सृष्टि उत्पत्ति संबंधित तत्व ज्ञान (Cosmogony)- इसके अंतर्गत सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विचार किया जाता है; जैसे सृष्टि अथवा जगत की उत्पत्ति किस प्रकार हुई? क्या सृष्टि की रचना हुई है? यदि सृष्टि की रचना हुई है तो यह रचना किसने की है? आदि आदि.
▶ II-ज्ञानशास्त्र (Epistemology)
इसके अंतर्गत ज्ञान की उत्पत्ति, उसकी संरचना, उसकी प्रकृति और उसकी सीमाओं के विषय में अध्ययन किया जाता है; जैसे क्या मानव बुद्धि वास्तविक ज्ञान को प्राप्त कर सकती है? मनुष्य किस सीमा तक परम सत्य का ज्ञान प्राप्त कर सकता है? ज्ञान प्राप्त करने के साधन क्या है? सत्य क्या है? भ्रम क्या है? आदि आदि.
▶ III- मूल्यशास्त्र (Axilogy)
इसके अंतर्गत व्यक्ति जीवन के मूल्यों, आदर्शों और लक्ष्यों पर विचार किया जाता है. इसमें दर्शन के लिए लिखित तीन विभाग आते हैं-
(1). नीतिशास्त्र (Ethics)- इसके अंतर्गत मनुष्य के आचरण संबंधी विषयों पर विचार किया जाता है. इसमें व्यक्ति के आचरण से संबंधित समस्याओं जैसे कर्म-अकर्म, शुभ-अशुभ, भद्र-अभद्र आदि का विचार करके यह विश्लेषण किया जाता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इसमें जिन प्रश्नों पर विचार किया जाता है वह भद्र क्या है? अभद्र क्या है? भद्र आचरण के लक्षण क्या हैं? हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? आदि आदि.
(2). सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics)- इसके अंतर्गत सौंदर्य संबंधी विभिन्न समस्याओं पर विचार किया जाता है; जैसे सौंदर्य क्या है? सौंदर्य के लक्षण क्या हैं? सौंदर्य के मानदंड क्या हो सकते हैं? आदि आदि.
(3). तर्कशास्त्र (Logic)- इसके अंतर्गत तर्कपूर्ण चिंतन, कल्पना अथवा अनुमान, उसके लक्षण, तर्क की पद्धति, आदि के विषय पर विचार किया जाता है; जैसे तार्किक चिंतन का स्वरूप क्या है? आदि आदि.
▶शिक्षा दर्शन की प्रकृति (Nature of Philosophy of Education)
- शिक्षा दर्शन का आविर्भाव दर्शनशास्त्र और शिक्षाशास्त्र के संयुक्त चिंतन से हुआ है.
- शिक्षा दर्शन अंतरविषयक आयाम है जो शैक्षिक समस्याओं के दार्शनिक समाधान की खोज में रत है.
- शिक्षा दर्शन तर्क-प्रधान विषय है. इसके अंतर्गत शैक्षिक समस्याओं का तार्किक चिंतन करके समाधान प्रस्तुत किया जाता है.
- शिक्षा दर्शन व्यक्तिपरक है, वस्तुपरक नहीं.
- शिक्षा दर्शन निर्देशात्मक शास्त्र है. इसका कार्य निर्देशन या दिशा प्रदान करना है.
- शिक्षा दर्शन की प्रकृति दार्शनिक तथा वैज्ञानिक दोनों ही है, क्योंकि शिक्षा की प्रक्रिया को कला और विज्ञान दोनों माना जाता है.
- शिक्षा दर्शन शैक्षिक समस्याओं का संभावित समाधान ही खोजता है.
- शिक्षा दर्शन, शिक्षा तथा जीवन की समीक्षात्मक अध्ययन है.