शिक्षा के दार्शनिक आधार का अर्थ | Meaning of Philosophical Basis of Education in hindi

दर्शन का अर्थ, शिक्षा का दार्शनिक आधार, दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध, दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव, शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव, दर्शन का भारतीय संप्रत्यय

▶दर्शन का अर्थ (Meaning of Philosophy)

दर्शन शब्द संस्कृत के दृश धातु से बना है- "दृश्यते यथार्थ  तत्वमनेन" अर्थात जिसके द्वारा यथार्थ तत्व की अनुभूति हो वही दर्शन है. अंग्रेजी के शब्द फिलासफी का शाब्दिक अर्थ ज्ञान के प्रति अनुराग होता है. भारतीय व्याख्या अधिक गहराई तक पैठ बनाती है, क्योंकि भारतीय अवधारणा के अनुसार दर्शन का क्षेत्र केवल ज्ञान तक सीमित न रहकर समग्र व्यक्तित्व को अपने आप में समाहित करता है. दर्शन चिंतन का विषय ना होकर अनुभूति का विषय माना जाता है. दर्शन के द्वारा बौद्धिक तृप्ति का आभास होकर समग्र व्यक्तित्व बदल जाता है. यदि आत्मवादी भारतीय दर्शन की भाषा में यह कहा जाए तो यह सत्य है कि दर्शन द्वारा केवल आत्मज्ञान ही आत्मानुभूति कराता है.

Philosophical Basis of Education

▶शिक्षा का दार्शनिक आधार (Philosophical Basis of Education)

दर्शन शिक्षा का प्रमुख आधार है. दर्शन के द्वारा ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि, अनुशासन, विद्यालय व्यवस्था आदि को एक निश्चित रूप प्रदान किया जाता है. बटलर (Butler) ने कहा है कि "दर्शन शिक्षा के प्रयोगों के लिए एक पथ प्रदर्शक है". जेंटाइल (Gentile) का कहना है कि "दर्शन की सहायता के बिना शिक्षा की प्रक्रिया सही मार्ग पर नहीं बढ़ सकती". रस्क (Rusk) का मत है कि "शैक्षिक समस्याओं के प्रत्येक दृष्टिकोण से शिक्षा के दार्शनिक आधार की मांग उठती है". शिक्षा के लिए दर्शन बहुत आवश्यक है क्योंकि जीवन के लिए शिक्षा आवश्यक है और दर्शन भी आवश्यक है. इसलिए दर्शन की आवश्यकता शिक्षा के लिए स्वभाविक है दर्शन को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि दर्शन ही शिक्षा को जीवन से संबंधित करता है और शिक्षा की प्रक्रिया को एक निश्चित दिशा का और लक्ष्य प्रदान करता है.

▶दर्शन और शिक्षा में सम्बन्ध (Relation between Philosophy and Education)

दर्शन और शिक्षा में अन्योन्याश्रित एवं अविच्छित संबंध है. प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री रोस (Ross) ने कहा है कि "दर्शन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं जो एक ही वस्तु के विभिन्न दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वे एक-दूसरे में अंतर्निहित हैं. दर्शन जीवन का विचारात्मक पक्ष है और शिक्षा क्रियात्मक पक्ष".

दर्शन और शिक्षा एक दूसरे के पूरक हैं. शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षा की व्यवस्था तथा संगठन और शिक्षण विधियों के विकास आदि को समझने के लिए दार्शनिक विचार धाराओं का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है. तभी तो फिक्टे (Fichte) ने कहा है कि, "शिक्षा दर्शन की सहायता के बिना पूर्णता और स्पष्टता को प्राप्त नहीं कर सकती".

शिक्षा मानव जीवन के विकास का साधन है. परिस्थितियों के निर्माण में शिक्षा का विशेष हाथ है. दर्शन लक्ष्य का निर्माण करता है और शिक्षा इस लक्ष्य की पूर्ति के साधन के रूप में कार्य करती है. इसलिए दर्शन और शिक्षा का घनिष्ठ संबंध है. ऐडम्स (Adams) ने कहा है कि, "शिक्षा, दर्शन का क्रियाशील पक्ष है. यही दार्शनिक चिंतन का सक्रिय पक्ष और जीवन के आदर्शों को प्राप्त करने का प्रयोगात्मक साधन है".

दर्शन और शिक्षा के संबंध में रस्क (Rusk) ने लिखा है कि, "शिक्षा समस्या के प्रत्येक कोण से इस प्रकार विषय के एक दार्शनिक आधार की मांग आती है". जीवन तथा शिक्षा के दर्शन से कोई छुटकारा नहीं है. जो दर्शन की उपेक्षा करने पर गर्व दिखलाते हैं उनका भी एक दर्शन है, यद्यपि एक बिल्कुल अपर्याप्त दर्शन है, जैसा कि शापनहावर कहते हैं, "प्रत्येक व्यक्ति जन्म से दार्शनिक होता है".

दर्शन और शिक्षा के संबंध को बटलर (Butler) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, "दर्शन शैक्षिक प्रक्रिया के लिए एक पथ-प्रदर्शक का कार्य करता है, जबकि शिक्षा एक अनुसंधान का क्षेत्र होने के कारण कुछ इस प्रकार की प्रदत्त सामग्री को प्रस्तुत करती है जो दार्शनिक निर्णयों का आधार होती है".

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि दर्शन और शिक्षा में घनिष्ठ संबंध है. प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री ड्यूवी (Dewey) ने इस संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है, "दर्शन को शिक्षा का सामान्य सिद्धांत कहा जा सकता है". जेंटल (Gentile) का कहना है, "जो लोग इस बात में विश्वास रखते हैं कि दर्शन से संबंध बनाए बिना शिक्षा प्रक्रिया उत्तम रीति से चल सकती है, वे  शिक्षा के विशुद्ध स्वरूप को समझने में असमर्थता प्रकट करते हैं".

दर्शन और शिक्षा के परस्पर संबंध को निम्नलिखित दो रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1). दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव
(2). शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव

▶दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Philosophy on Education)

लिखित कारणों से दर्शन शिक्षा को प्रभावित करता है-
(i). शिक्षा दर्शन का व्यवहारिक पक्ष है.
(ii). महान शिक्षा शास्त्री महान दार्शनिक रहे हैं.
(iii). शिक्षा दर्शन पर आधारित है.
(iv). शिक्षा के विभिन्न अंगों पर दर्शन का गहरा प्रभाव है.

▶शिक्षा का दर्शन पर प्रभाव (Impact of Education on Philosophy)

निम्नलिखित कारणों से शिक्षा दर्शन को प्रभावित करती है-
(i). शिक्षा दर्शन की आधारशिला है
(ii). शिक्षा दर्शन के निर्माण का साधन है
(iii). शिक्षा दर्शन को जन्म देती है.
(iv). शिक्षा दर्शन का विकास करती है.
(v). शिक्षा दर्शन को जीवित रखती है.
(vi). शिक्षा दर्शन को गतिशील बनाए रखती है.
(vii). शिक्षा दर्शन को चिंतन सामग्री प्रदान करती है.

▶दर्शन का भारतीय संप्रत्यय (Indian Concept of Philosophy)

प्राचीन भारत में किसी प्रकार के चिंतन को दर्शन कहा जाता था परंतु जैसे-जैसे ज्ञान के क्षेत्र में विकास हुआ तो वैसे-वैसे हमने उसे भिन्न-भिन्न अनुशासनों में विभाजित करना प्रारंभ किया; जैसे मानवशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और चिकित्साशास्त्र आदि. ज्ञान की उस शाखा को जिसमें इस ब्रह्मांड के अंतिम सत्य की खोज की जाती है हमने उसे दर्शनशास्त्र की संज्ञा दी. उपनिषद काल में दर्शन को इसी रूप में स्वीकार किया जाता था. तब दर्शन की परिभाषा थी- "जिसे देखा जाए अर्थात सत्य के दर्शन किए जाएं वह दर्शन है". ( दृश्यते अनेन इति दर्शनम)

अंतिम सत्य की खोज में हमें ब्रह्मांड के स्वरूप एवं इसके कर्ता तथा अपादान कारण पर बरबस विचार करना पड़ा. दार्शनिकों ने सबसे अधिक विचार किया मनुष्य के स्वयं के वास्तविक स्वरूप पर और उस संदर्भ में आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-ज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने के साधन और मनुष्य के करणीय तथा अकरणीय कर्मों पर खूब विचार हुआ. आगे चलकर यही सब दर्शनशास्त्र की विषय सामग्री बना. हमारे देश में दर्शन को आज भी अंतिम सत्य की खोज करने वाले शास्त्र के रूप में स्वीकार किया जाता है. डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में- "दर्शन सत्य के स्वरूप की तार्किक विवेचना है".

▶दर्शन का पाश्चात्य संप्रत्यय (Western Concept of Philosophy)

पाश्चात्य जगत में दर्शन का सर्वप्रथम विकास यूनान देश में हुआ. प्रारंभ में तो वहां भी दर्शन का क्षेत्र बड़ा व्यापक था परंतु जैसे-जैसे ज्ञान के क्षेत्र में विकास हुआ, दर्शन एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में सीमित होता चला गया. दर्शन के लिए अंग्रेजी में फिलासफी शब्द का प्रयोग होता है जो दो ग्रीक शब्दों फिलॉस तथा सोफिया से मिलकर बना है फिलॉस का अर्थ है प्रेम और सोफिया का अर्थ है ज्ञान, इसलिए फिलोसोफी का अर्थ होता है ज्ञान से प्रेम. यह दर्शन का विस्तृत अर्थ है. यूनानी दार्शनिक प्लूटो दर्शन को इसी अर्थ में स्वीकार करते थे. उनके शब्दों में- वह व्यक्ति जो सही प्रकार से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखता है और सीखने के लिए सदैव उत्सुक्त रहता है और कभी भी संतोष करके रुकता नहीं है, वास्तव में दार्शनिक है.

▶दर्शन का वास्तविक संप्रत्यय (Real Concept of Philosophy)

ऊपर की चर्चा से यह स्पष्ट है कि दर्शन के बारे में भारतीय दृष्टिकोण और पाश्चात्य दृष्टिकोण में थोड़ा अंतर है और वह यह कि अधिकतर भारतीय दर्शन में आज भी सर्वप्रथम सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान एवं मनुष्य जीवन के अंतिम उद्देश्य और उसे प्राप्त करने के उपायों पर विचार किया जाता है और फिर इस ज्ञान को तर्क का आधार मानकर मनुष्य के समस्त ज्ञान-विज्ञान एवं उसकी समस्त भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों की तार्किक विवेचना की जाती है. जबकि अधिकतर पाश्चात्य दर्शनों में सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत आदि पर विचार करे बिना मन माने तर्क करने की प्रवृत्ति अधिक है.

मानव जीवन के रहस्य को समझे बिना उसके लिए क्या उपयोगी है, यह कैसे निश्चित किया जा सकता है! हम भारतीयों को पाश्चात्य दार्शनिकों का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए. हमारे महर्षियों ने हमें सच्चा तत्वज्ञान दिया है, उसके आधार पर हम किसी भी वस्तु अथवा क्रिया की सच्ची व्याख्या कर सकते हैं. हमारी दृष्टि से बिना तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा के दर्शन का कोई अस्तित्व ही नहीं. हम तो आज भी इस ब्रह्मांड के प्रति जी हमारा दृश्टिकोण होता है उसे तर्क का आधार बनाकर, संसार की समस्त वस्तुओं, क्रियाओं और ज्ञान-विज्ञान की विवेचना करते हैं. हमारी दृष्टि से दर्शन को निम्नलिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए-

"दर्शन शास्त्र ज्ञान की वह शाखा है जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड के अंतिम सत्य एवं मानव के वास्तविक स्वरुप सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने की विधियों और मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य तथा उसे प्राप्त करने के साधनों के तार्किक विवेचना की जाती है".

▶दर्शन का अध्ययन क्षेत्र (Scope of Philosophy)

भारतीय चिंतक दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त करते हैं- तत्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान मीमांसा (Epistemology), और आचार मीमांसा (Ethics) दूसरी और पाश्चात्य चिंतक दर्शन के अध्ययन क्षेत्र को मुख्य रूप से पांच भागों में व्यक्त करते हैं- तत्व मीमांसा (Metaphysics), ज्ञान मीमांसा (Epistemology), मूल्य मीमांसा (Axiology), तर्कशास्त्र (Logic) और सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics). यहां इन तीनों के अध्ययन सामग्री का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है.

(1). तत्व मीमांसा (Metaphysics)- दर्शन में तत्व मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है. इसमें सृष्टि संबंधित तत्व ज्ञान अर्थात सृष्टिशास्त्र, सृष्टि विज्ञान एवं सत्ता विज्ञान आते हैं और आत्मा संबंधित तत्व ज्ञान एवं ईश्वर संबंधित तत्व ज्ञान आते हैं. इसमें सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा एवं जीव-जगत के साथ-साथ मानव जीवन की व्याख्या और वास्तविक सौंदर्य की विवेचना भी की जाती है. वास्तविक सौंदर्य की विवेचना को अब सौंदर्यशास्त्र कहते हैं. इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा बिचारा जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसकी विषय सामग्री है.

(2). ज्ञान एवं तर्क मीमांसा (Epistemology and Logic)- ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में मानव बुद्धि, ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान की सीमा, ज्ञान की प्रमाणिकता, ज्ञान प्राप्त करने के साधन, ज्ञान प्राप्त करने की विधियां, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच में संबंध, तर्क की विधियां, सत्य-असत्य प्रमाण और भ्रम की व्याख्या आती है. इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा बिचारा जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसके विषय सामग्री है.

(3). मूल्य एवं आचार मीमांसा (Axiology and Ethics)- मूल्य एवं अचार मीमांसा के क्षेत्र में मानव जीवन के आदर्श एवं मूल्यों की विवेचना आती है, मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त करने के साधनों की विवेचना आती है और मानव के करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना आती है. करणीय तथा अकरणीय कर्मों की विवेचना को ही नीतिशास्त्र (Ethics) कहते हैं. हम जानते हैं कि कोई भी आदर्श मूल्य का रूप तभी धारण करता है जब वह हमारे आचरण में परिलक्षित होता है, हमारे आचरण का अंश बन जाता है. इसमें इस शब्द की व्याख्या के साथ-साथ जीवन की वास्तविक सौन्दर्य को प्राप्त करने की विधियां भी आती हैं. इस क्षेत्र में अब तक जो कुछ सोचा बिचारा जा चुका है उसकी तार्किक विवेचना इसकी विषय सामग्री है.

▶शिक्षा के दार्शनिक आधार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background of Philosophical Basis of Education)

संसार का इतिहास बताता है कि शिक्षा संस्था का विकास सर्वप्रथम हमारे देश भारत में हुआ था और वैदिक काल (2500-500 ई. पू.) में यहां एक समृद्ध शिक्षा प्रणाली का विकास हो चुका था. उस समय शिक्षा वैदिक धर्म दर्शन पर आधारित थी. वैदिक धर्म के बाद इस देश में 500 ईसा पूर्व से 1200 ई. पू. तक बौद्ध धर्म का वर्चस्व रहा. इसे बौद्ध काल कहते हैं. बौद्ध काल में यहां एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जो बौद्ध धर्म-दर्शन पर आधारित थी और वैदिक शिक्षा प्रणाली से कहीं बहुत अधिक समृद्ध एवं सुदृढ़ थी. परंतु दार्शनिक चिंतन के आधार पर शिक्षा पर सर्वांगीण रूप से विचार सर्वप्रथम ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने प्रस्तुत किया और उन्हें अपने विचारों के आधार पर अकैडमी की स्थापना भी की. प्लेटों के बाद उनके शिष्य अरस्तु ने भी अपने दार्शनिक चिंतन के साथ उसके अनुकूलन शिक्षा की व्यवस्था पर विचार किए. इसके बाद तो पाश्चात्य देशों में दार्शनिक चिंतन के साथ शैक्षिक चिंतन का दौर शुरू हो गया.

▶भारतीय शिक्षा पर दार्शनिक आधार का प्रभाव (Impact of Philosophical Basis on Indian Education)

आज संसार का शायद ही कोई देश हो जो अपने शिक्षा के स्वरूप निर्धारण में अपने जीवन दर्शन को सामने ना रखता हो. हमारे देश में तो प्रारंभ से ही शिक्षा धर्म और दर्शन पर आधारित रही है. परंतु अंग्रेजों के आने से पहले वह केवल भारत की किसी धर्म एवं दर्शन विशेष पर आधारित रही थी. अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में हमें पाश्चात्य दर्शनों- आदर्शवाद (Idealism), यथार्थवाद (Realism), प्रकृतिवाद (Naturalism) और प्रयोजनवाद (Pragmatism) से परिचित कराया और उनके दार्शनिक चिंतन के साथ उनकी शैक्षिक चिंतन से परिचित कराया और साथ में उनके अनुप्रयोग की शुरुआत की.

वर्तमान युग वैश्वीकरण का युग है. आज कोई भी देश अपने शिक्षा के स्वरूप निर्धारण में देश-विदेश के शैक्षिक चिंतकों के विचारों और देश विदेश की शिक्षा प्रणालियों से उपयोगी तत्व को ग्रहण करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता, वह उनसे पूरा-पूरा लाभ उठाता है. हमारा देश भारत तो इस क्षेत्र में सबसे आगे है.

इस बीच हमारे देश की शिक्षा में अनुशासन के स्वरूप में भारी परिवर्तन हुआ है. कभी हमारे देश में शिक्षकों के आदेशों के पालन को ही अनुशासन माना जाता था और भूल होने पर प्रायश्चित का प्रावधान था. इसके बाद अनुशासन की स्थापना के लिए कठोर दंड व्यवस्था का विधान शुरू हुआ और यह विधान बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक जारी रहा. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अमेरिकी दार्शनिक ड्यूबी (Dewey) ने अनुशासन को मनुष्य की एक ऐसी आंतरिक शक्ति के रूप में परिभाषित किया जो मनुष्य को समाज सम्मत सोचने और व्यवहार करने की ओर प्रवृत्त करती है. ड्यूबी के अनुसार मनुष्य में शक्ति का विकास सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने से स्वतः होता है. ड्यूबी के अनुसार इस अनुशासन के विकास के लिए विद्यालयों में प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण पर्यावरण होना चाहिए.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में किसी भी देश की शिक्षा के निर्माण में दार्शनिक, समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक सुधारों की भूमिका रहती है और इनमें दार्शनिक आधार की भूमिका नींव के पत्थर के रूप में होती है, विशेषकर हमारे देश भारत की शिक्षा में.

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