शिक्षक एक परिवर्तन के एजेंट के रूप में | Teacher as an Agent of Change in hindi

परिवर्तन प्रकृति का नियम है क्योंकि यदि परिवर्तन नहीं होगा तो जीवन एवं सृष्टि की गति अवरुद्ध हो जाएगी. परिवर्तन व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक

परिवर्तन क्या है? (What is Change?)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है क्योंकि यदि परिवर्तन नहीं होगा तो जीवन एवं सृष्टि की गति अवरुद्ध हो जाएगी. परिवर्तन व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में होता है, जिसके परिणाम स्वरूप नवीन व्यवस्था जन्म लेती है. परिवर्तन का सामान्य तात्पर्य है, किसी के क्रिया या वस्तु के पहले की स्थिति में बदलाव आ जाना. परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए फिशर लिखते हैं, "संक्षेप में, परिवर्तन पहले की अवस्था या अस्तित्व के प्रकार में अंतर को कहते हैं."

Teacher as an Agent of Change in hindi

परिवर्तन का संबंध प्रमुख रूप से तीन बातों से होता है-

  • (1). वस्तु
  • (2). समय तथा
  • (3). भिन्नता

(1). वस्तु (Object):- परिवर्तन का संबंध किसी ना किसी विषय या वस्तु से होता है. जब हम यह कहते हैं कि परिवर्तन आ रहा है तब हमें यह भी स्पष्ट करना होता है कि परिवर्तन किस वस्तु या विषय में आ रहा है. बगैर वस्तु को बताए हम परिवर्तन का अध्ययन नहीं कर सकते हैं.

(2). समय (Time):- परिवर्तन का समय से घनिष्ट संबंध होता है. परिवर्तन को प्रकट करने के लिए हमारे पास कम से कम दो समय होने चाहिए. एक ही समय में परिवर्तन की चर्चा नहीं की जा सकती है. उदाहरण के लिए- यदि हम कहते हैं कि वैदिक काल की तुलना में वर्तमान समय में भारत बहुत परिवर्तित हो गया है. समय के संदर्भ में ही परिवर्तन ज्ञात होता है. समय की अवधारणा को सम्मिलित किए बगैर किसी भी परिवर्तन के विषय में सोचा नहीं जा सकता है.

(3). भिन्नता (Variation):- विभिन्न समयों में यदि किसी वस्तु में भिन्नता नहीं आए तो परिवर्तन नहीं कहलाएगा. वस्तु के स्वरूप में यदि समय के साथ अंतर ना आए तो हम यही कहेंगे कि परिवर्तन नहीं हुआ है, अतः वस्तु के रंग-रूप, आकार–प्रकार, संरचना, कार्य या अन्य पक्षों में भिन्नता प्रकट होने पर ही हम परिवर्तन का अध्ययन कर सकते हैं.

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु में दो समय में दिखाई देने वाली भिन्नता ही परिवर्तन है. परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो सभी कालों एवं स्थानों में घटित होती रहती है. परिवर्तन के कारण किसी वस्तु के समस्त ढांचे में परिवर्तन आ सकता है या उसका कोई एक पक्ष ही बदल सकता है. परिवर्तन किसी भी दिशा में हो सकता है. परिवर्तन स्वतः आ सकता है या जानबूझकर योजनाबद्ध रूप से भी लाया जा सकता है.

परिवर्तन में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher in Change)

शिक्षक एवं शिक्षार्थी संपूर्ण शिक्षा प्रणाली के आधार स्तंभ है किंतु परिवर्तन के शैक्षिक कारक में शिक्षक का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है. शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, शिक्षण उद्देश्यों एवं पाठ्यसहगामी क्रियाओं आदि के द्वारा शिक्षक परिवर्तन में अपनी भूमिका का निर्वहन करता है. अतः परिवर्तन अभिकर्ता के रूप में शिक्षक अपनी भूमिका का निर्वहन निम्न प्रकार से कर सकता है-

(1). लैंगिक निरपेक्ष भाषा का विकास:- प्रायः पुरुष शिक्षक अपनी अंतः क्रिया के दौरान और स्त्रीलिंग से संबंधित शब्दों या वाक्यों का प्रयोग करता है, इसके बजाय दोनों लिंग से संबंधित शब्दों को समान रूप से प्रयोग करने की आदत का विकास करना चाहिए.

(2). दोनों ही लिंग से संबंधित उदाहरण देना चाहिए:- शिक्षकों को लैंगिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से समान रूप से दोनों लिंगों से संबंधित उदाहरणों का प्रयोग करना चाहिए. उन पुरुष भूमिकाओं को बदलकर महिलाओं की भूमिका दी जानी चाहिए जो लैंगिक असमानता को समाप्त करने में मददगार साबित हो सकते हैं. जैसे- बस के ड्राइवर के रूप में सिर्फ पुरुष नाम ही ना हो बल्कि महिला नाम का भी प्रयोग करना चाहिए. इससे मनोवैज्ञानिक रूप से लैंगिक समानता की तरफ अग्रसर होने का फायदा मिलेगा.

(3). अलग-अलग बैठने की व्यवस्था करने की बजाय एक साथ बैठने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए:- हमारे समाज में लड़के–लड़कियों को शुरू से ही अलग-अलग बिठाने की व्यवस्था की जाती है जिस कारण इन दोनों लिंगों में काफी गहरा अंतराल पैदा हो जाता है और अलग अलग ही रहते हैं तथा काम करते हैं. एक साथ बैठने से वे दूसरे की सोच को प्रभावित कर सकेंगे जो लैंगिक समानता की तरफ अग्रसर होने में मदद कर सकेगा.

(4). कक्षागत गतिविधियों में समान भागीदारी सुनिश्चित करना:- कक्षागत परिस्थितितों में कई प्रकार की प्रतियोगिता और क्रियाविधियों का आयोजन किया जाता है. इन सभी में लड़के और लड़कियों को समान रूप से भाग लेने का अवसर देना चाहिए.

(5). लड़कों-लड़कियों को एक दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाना:- शिक्षकों का यह भी दायित्व है कि लड़के लड़कियों दोनों को एक दूसरे के प्रति संवेदनशील बनाएं. लड़कियों को छेड़ना आदि समस्या के प्रति लड़कों को संवेदनशील बनाने का प्रयत्न करना चाहिए साथ ही साथ एक दूसरे के प्रति सम्मान देने की बात सिखानी चाहिए. अनुसंधानों में यह बात निकलकर सामने आई है कि विद्यालय में शिक्षक लड़कों पर ज्यादा ध्यान देते हैं लेकिन कुछ अनुसंधान में यह बात भी सामने आई है कि सेकंडरी स्तर पर शिक्षक लड़कों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. लड़कियों को सेकेंडरी स्तर पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है. अनुशासनात्मक कार्यवाहियों में लड़कों का प्रतिशत लड़कियों की तुलना में ज्यादा होता है.

(6). छात्र गतिविधि का अवलोकन:- अध्यापक को बालक तथा बालिकाओं के विद्यालयी गतिविधियों का अवलोकन करना चाहिए. अध्यापक को जहां पर भी लैंगिक असमानता की स्थिति अनुभव हो तो उसे समाप्त करना चाहिए. जैसे- यदि किसी छात्र की ऐसी सोच है कि नृत्य में भाग लेना मात्र बालिकाओं का ही काम है बालकों का नहीं तो इस प्रकार की सोच को शीघ्र ही समाप्त करना चाहिए. इस प्रकार के सार्थक अवलोकन से लैंगिक समानता का विकास होगा.

(7). योग्यता तथा रूचि के अनुसार उत्तरदायित्व प्रदान करना:- अध्यापक द्वारा बालक एवं बालिकाओं को उत्तरदायित्व प्रदान करते समय यह नहीं देखना चाहिए यह बालक है इसलिए इसका अलग उत्तरदायित्व है तथा यह बालिका है इसलिए इसका अलग दायित्व है वरन उत्तरदायित्व प्रदान करते समय बालक-बालिका की रूचि व योग्यता देखनी चाहिए.

(8). अध्यापक की सकारात्मक सोच:- एक सकारात्मक सोच वाला अध्यापक ही अपने बालकों में सकारात्मक सोच विकसित कर सकता है. यदि एक अध्यापक अपने छात्र-छात्राओं को अपने पाल्य के समान समझता है तथा उसी रूप में प्रेम करता है तो इससे बालकों में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है.

(9). अभिभावकों को उचित परामर्श:- शिक्षक-अभिभावक संघ तथा विद्यालय प्रबंधन समिति की बैठक में अध्यापक एवं अभिभावकों का संपर्क होता है. इन परिस्थितियों में विद्यालयी लैंगिक समानता पर चर्चा करते समय परिवार तथा समाज में भी लैंगिक समानता विकसित करने पर चर्चा की जाए तो विद्यालय तथा समाज दोनों में ही लैंगिक समानता का वातावरण विकसित हो सकेगा.

(10). अध्यापक छात्र के सर्वोत्तम संबंध:- अध्यापक तथा छात्र के मध्य संबंध होने चाहिए. अतः छात्रों के द्वारा अध्यापक के प्रत्येक तथ्य को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए. इस स्थिति में अध्यापक द्वारा लैंगिक असमानता दूर करने संबंधी प्रयासों को छात्रों द्वारा सहर्ष स्वीकार किया जाएगा. इससे विद्यालयी तथा सामाजिक स्तर पर लैंगिक समानता उत्पन्न होगी.

(11). अध्यापक का दर्शन:- यदि अध्यापक का चिंतन तथा दर्शन समानता का पक्षधर है तो उसके प्रत्येक प्रयास भी इसी से संबंधित होंगे. उसके द्वारा बालक एवं बालिकाओं में विद्यालयी स्तर या सामाजिक स्तर पर कोई भी विभेद नहीं किया जाएगा. लैंगिक समानता का भाव रखने वाला अध्यापक बालक व बालिकाओं का विकास समान रूप से करने में सक्षम होगा.

परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में शिक्षक के समक्ष बाधाएं (Barriers in Front of Teacher as an Agent of Change)

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और यह परिवर्तन किसी न किसी माध्यम से ही होता है. शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन का माध्यम शिक्षक होता है. जैसा कि परिसर सर्वविदित है परिवर्तन में अनेक बाधाएं आती हैं. अतः शिक्षक द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन लाने में उसे अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है. परिवर्तन में बाधा पहुंचाने वाले कुछ प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-

(1). अशिक्षा (Illiteracy):- अशिक्षा किसी भी देश, समाज की प्रगति का सबसे बड़ा बाधक तत्व है. हमारे राष्ट्र में अशिक्षितों की संख्या अधिक है. जिस कारण वे अपना योगदान राष्ट्र की प्रगति एवं परिवर्तन में नहीं कर पाते हैं. वे परिवर्तन का महत्व नहीं समझते हैं और परिवर्तन को अपनाने में डरते हैं. जिस कारण शिक्षकों को उनके विरोध का सामना भी करना पड़ता है.

(2). अंधविश्वास (Superstition):- अशिक्षा के कारण लोगों में अंधविश्वास की भावना भी जल्दी विकसित हो जाती है. जो शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करता है. सामान्यतः लोगों में लड़का-लड़की को लेकर जाति, धर्म, विज्ञान को लेकर अनेक विश्वास होते हैं और जब कोई व्यक्ति या शिक्षक उनके अंधविश्वास को बदलना चाहता है तो वे उसे स्वीकार नहीं करते हैं और यह सोचते हैं कि व्यक्ति उन्हें, उनके समाज को, उनके बच्चे आदि का पथभ्रष्ट कर रहा है. इन्हीं अंधविश्वासों के कारण शिक्षकों को कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है.

(3). रूढ़िवादी समाज (Stereotyped Society):- रूढ़िवादी समाज भी परिवर्तन में सबसे बड़ा बाधक तत्व है क्योंकि ऐसे समाज के लोग अपने पुराने विचारों, मान्यताओं, आदर्शों आदि को सबसे अधिक मानते हैं वे आसानी से नए मूल्यों, सिद्धांतों, आदर्शों आदि को स्वीकार नहीं करते हैं.

(4). संकीर्ण सोच (Narrow-Mined Thinking):- संकीर्ण सोच के अंतर्गत उन व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो अपने धर्म, जाति, भाषा और संस्कृति को ही श्रेष्ठ मानते हैं. ऐसे व्यक्तियों में विचार-विमर्श करने, उन्हें अन्य धर्म, जाति आदि की महता समझाने में शिक्षक को परेशानी का सामना करना पड़ता है. इसी कारण शिक्षक परिवर्तन में अपनी भूमिका का उचित रूप से निर्वहन नहीं कर पाते हैं.

(5). धार्मिक एवं राजनीतिक कारण (Religious and Political Factors):- परिवर्तन चाहे समाज का हो, राष्ट्र का हो या फिर शिक्षा के क्षेत्र में सभी ये राजनीतिक एवं धार्मिक कारक काफी सीमा तक इन को प्रभावित करते हैं. वर्तमान में धर्म को राजनीतिक मुद्दा बनाकर लोगों में जाति, धर्म के नाम पर भेदभाव उत्पन्न किया जा रहा है. ऐसे में शिक्षक द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए सभी प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि अभी भी कुछ जगहों पर लोगों के लिए शिक्षा में सर्वोच्च धर्म है.

(6). स्वार्थपरता (Selfishness):- समाज विभिन्न संप्रदायों, वर्गों आदि में विभाजित है. जिसके अपने-अपने स्वार्थ हैं, जिस कारण से परिवर्तन के प्रति अपना विस्तृत दृष्टिकोण नहीं रखते जिससे परिवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है.

(7). सांस्कृतिक अलगाव (Cultural Isolation):- भारत विविधताओं का देश है यहां अनेकों धर्म तथा संप्रदाय के लोग रहते हैं जिनकी अपनी अलग-अलग संस्कृतियों हैं. शिक्षक को इन सभी संस्कृतियों में सामंजस्य स्थापित करके शिक्षा प्रदान करनी होती है. जोकि अत्यंत कठिन कार्य है, यह परेशानियां शिक्षक को परिवर्तन लाते समय बाधक बनाती हैं.

(8). इच्छा शक्ति की कमी (Lake of Will Power):- मानव की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अपना कार्य दूसरों के भरोसे छोड़ देता है वह यह मानता है कि उसके कार्य न करने से उस कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. यही कारण है कि शिक्षा में परिवर्तन का कार्य सरकार एवं शिक्षक के भरोसे छोड़ दिया गया है. लोगों में इच्छाशक्ति के अभाव के कारण ही वे केवल अपने कर्तव्यों के निर्वहन के स्थान पर उनके पालन की खानापूर्ति करते हैं.

परिवर्तन की बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव (Suggestions for Removing Barriers of Change)

उपरोक्त वर्णित बाधाओं को दूर करने हेतु सुझाव निम्नलिखित हैं-

  1. लोगों को सामाजिक कुरीतियों एवं संकीर्णताओं के प्रति जागरूक करना चाहिए. उन्हें इन कुरीतियों से होने वाले दुष्परिणामों से अवगत कराना चाहिए.

  2. शसक्त शिक्षकों के निर्माण के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए.

  3. शिक्षा का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करना और इसके लिए पत्राचार पाठ्यक्रम, दूरस्थ शिक्षा एवं व्यस्क शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए.

  4. लोगों में एक-दूसरे की संस्कृति के प्रति आदर, प्रेम की भावना विकसित करने हेतु विद्यालय में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए जो सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्व के क्रियाकलापों, पर्वों उत्सवों एवं दिवसों के महत्व पर आधारित हों.

  5. छात्रों, उनके माता-पिता तथा समाज के लोगों को धर्मनिरपेक्षता के महत्व से अवगत कराना.

  6. परिवर्तन हेतु औपचारिक तथा अनौपचारिक अभिकारणों के मध्य अंतर क्रिया तथा सामंजस्य स्थापित करना.

  7. छात्रों एवं समाज को नई तकनीकों से अवगत कराना तथा उनके महत्व को समझना चाहिए. इसके लिए विद्यालय में प्रदर्शनी का आयोजन किया जा सकता है.

  8. शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों के माध्यम से कई बाधाओं को दूर किया जा सकता है. जिसमें सर्वप्रथम शिक्षा एवं अंधविश्वास है.

  9. स्त्री शिक्षा एवं पिछड़े वर्गों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए.

  10. धार्मिक एवं राजनीतिक कारकों को परिवर्तन में सक्रिय भागीदारी निभाने के लिए प्रेरित करना चाहिए.

  11. रूढ़िबद्धता को समाप्त करने हेतु लोगों को आधुनिकीकरण तथा आर्थिक विकास के महत्व को समझना तथा भविष्य में होने वाले लाभों से परिचित कराना चाहिए.

  12. सामाजिक परिवर्तन हेतु समाज-सुधारकों की सहायता प्राप्त करनी चाहिए. शिक्षक एवं समाज सुधारकों के साथ कार्य करने से परिवर्तन लाने में तो सहायता प्राप्त होगी साथ-साथ लोगों में साथ मिलकर कार्य करने की भावना भी विकसित होगी.

निष्कर्ष (Conclusion)

परिवर्तन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक तथा शैक्षिक सभी क्षेत्रों में आना आवश्यक होता है, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। दिन के बाद रात और ऋतुओं में परिवर्तन आता है, ठीक उसी प्रकार काल की अविराम गति भी परिवर्तनों को लेकर आती है। परन्तु सभी परिवर्तन समाजोपयोगी और सकारात्मक नहीं होते, उनके दुष्परिणाम भी झेलने पड़ते है।

अतः शिक्षक जो भविष्य का निर्माता है, उसका यह उत्तरदायित्व बनता है कि वह परिवर्तन की गति तीव्र करने के लिए सशक्त भूमिका निभाये और जो परिवर्तन नकारात्मक तथा अनुपयोगी हैं, उनके प्रति सचेत भी करे। परिवर्तन से तात्पर्य प्राचीन मान्यताओं, रीति-रिवाजों और व्यवस्था के प्रति विद्रोह न होकर उसे नवीन कलेवर में प्रस्तुत करने से है। परिवर्तन को विरोधी न समझकर इसके पहिये के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए। तभी व्यक्ति और राष्ट्र उन्नति कर सकता है।

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1 comment

  1. Sir
    aap ye konsi template use karte hai
    Or quiz kese banate hai
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