भारत में प्राथमिक शिक्षा का अर्थ, विकास एवं उद्देश्य | Meaning, Development and Objectives of Primary Education in India in hindi

राथमिक शिक्षा के अर्थ के स्पष्टीकरण से पूर्व यह जानना अपेक्षित है कि यह शिक्षा औपचारिक अर्थात् विद्यालय और अनौपचारिक अभिकरण परिवार, समाज इत्यादि के

प्राथमिक शिक्षा का अर्थ (Meaning of Primary Education)

प्राथमिक शिक्षा के अर्थ के स्पष्टीकरण से पूर्व यह जानना अपेक्षित है कि यह शिक्षा औपचारिक अर्थात् विद्यालय और अनौपचारिक अभिकरण परिवार, समाज इत्यादि के द्वारा होती है। औपचारिक अर्थों में प्राथमिक शिक्षा का प्रारम्भ पूर्व प्राथमिक शिक्षा के पश्चात् होता है। प्राथमिक शब्द का अर्थ है- प्राथमिक अथवा मुख्य। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा का अर्थ- प्राथमिक शिक्षा या मुख्य शिक्षा। प्राथमिक शिक्षा को इस हेतु कहा जाता है कि यह बच्चों को प्रारम्भ से दी जाती है और मुख्य इसलिए कहते हैं कि यह आगे की शिक्षा की नींव है।

Meaning, Development and Objectives of Primary Education in India in hindi

यह शिक्षा सामान्यतः कथा 1 से 5 तक की शिक्षा कहलाती है, जिसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है और इसके अन्तर्गत पढ़ना, लिखना अथवा अंकगणित की शिक्षा प्रदान करना है। अनौपचारिक रूप से प्राथमिक शिक्षा बालकों को परिवार में प्राप्त होती है। दैनिक जीवन के व्यवहार इत्यादि से अवगत कराकर प्राथमिक शिक्षा की नींव पर ही शिक्षा का विशाल प्रासाद खड़ा होता है।

विकास (Development)

प्राथमिक शिक्षा के विकास को विभिन्न कालों में विभक्त कर अध्ययन की सुविधानुसार इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है—

1. वैदिक काल – वैदिक काल के अन्तर्गत पूर्व-वैदिक काल में प्राथमिक शिक्षा का औपचारिक रूप से प्रचलन न होकर परिवार में ही अनौपचारिक रूप से प्राथमिक शिक्षा के प्रचलन का संकेत प्राप्त होता है। संयुक्त परिवारों का प्रचलन था, जिसमें बालकों को व्यवहार ज्ञान और पढ़ने, लिखने तथा अंकगणित की शिक्षा प्रदान की जाती थी। उत्तर- वैदिक काल के अन्तर्गत बौद्ध तथा जैनकालीन शिक्षाएं आती हैं, जहां मठों, विहारों में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जाती थी।

2. मध्य काल – सल्तनत काल, मुस्लिम काल आदि के नाम से भी इस काल को जाना जाता था और इस शिक्षा का प्रारम्भ 'कुरानखानी' नामक संस्कार जो 4 वर्ष 4 माह तथा 4 दिन में सम्पन्न कराया जाता था, से होता था। यह शिक्षा मकतबों में प्रदान की जाती थी और बालक-बालिकायें प्राय: यह शिक्षा साथ-साथ ग्रहण करते थे। इस शिक्षा के अन्तर्गत कहानियों कविताओं, कुरान की आयतों का कंठस्थीकरण कराया जाता था, साथ ही व्यावहारिक ज्ञान भी प्रदान किया जाता था।

3. आधुनिक काल – भारत में जो प्राथमिक शिक्षा का स्वरूप हमें प्राप्त होता है वह ब्रिटिश काल की देन है। 1510 में ही पुर्तगाली व्यापारियों ने गोवा, कोचीन इत्यादि में प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना की, परन्तु ब्रिटिश ईसाइयों और अंग्रेजी सरकार ने इस क्षेत्र में सराहनीय तथा स्थायी प्रयास किया। 1857 में स्वतन्त्रता के लिए प्रथम क्रान्ति हुई, जिसके कारण 1858 में सीधे भारत में ब्रिटेन की महारानी का शासन हो गया। 1857 में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा प्रारम्भ की तथा 1882 में भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर आयोग) की नियुक्ति की गयी, जिसके सुझावों के आधार पर प्राथमिक शिक्षा का भार स्थानीय निकायों को सौंप दिया गया, जिसके पश्चात् प्राथमिक शिक्षा का विकास हुआ।

ब्रिटिश काल में प्राथमिक शिक्षा का विकास (Development of Primary Education During the British period)

15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और स्वतन्त्र भारत में शिक्षा चुनौतीपूर्ण विषयों में से एक थी, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम और निस्यंद आदि के सिद्धान्तों से भारतीय शिक्षा का मार्ग अवरुद्ध हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के विषय में धारा 45 में स्पष्ट निर्देश है कि "राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से दस वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा।" इस हेतु 1951 से पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा प्राथमिक शिक्षा के उन्नयन हेतु कार्य किये गये। 1957 में केन्द्र में 'अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षा परिषद् (All India Council for Elementary Education (AICEE) की स्थापना की गयी।

कोठारी आयोग (1964-66) में शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल, अपव्यय तथा अवरोधन में कमी हेतु सुझाव, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 द्वारा ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड का शुभारम्भ किया गया। प्राथमिक शिक्षा की प्रगति हेतु आश्रम विद्यालय, मध्यान्ह भोजन योजना, सर्व शिक्षा अभियान, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, शिक्षा गारण्टी योजना, छात्रवृत्ति, मुफ्त पोशाक एवं पुस्तकें तथा अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किये जा रहे हैं, जिससे प्राथमिक शिक्षा में वृद्धि होती है। आगे दी गई तालिका द्वारा स्वतन्त्र भारत में प्राथमिक शिक्षा की प्रगति दृष्टव्य है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा की समस्याएँ (Problems of Primary Education in India)

स्वतन्त्र भारत में प्राथमिक शिक्षा के मार्ग में कई समस्याएँ तथा अवरोध हैं और ये अवरोध शहरी, ग्रामीण, बालक तथा बालिकाओं से भी सम्बन्धित हैं। प्राथमिक शिक्षा को अवरुद्ध करने में पारिवारिक आर्थिक स्थिति, राष्ट्रीय राजनीति, ग्राम एवं शहरी क्षेत्र तथा लैंगिकता आदि की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्राथमिक शिक्षा की समस्याएँ सम्मिलित रूप से भारतीय सन्दर्भ में निम्न प्रकार हैं-

  1. दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली, पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियाँ आदि।
  2. शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव।
  3. निर्धनता।
  4. प्राथमिक शिक्षा को गम्भीरता से न लेना।
  5. योग्य एवं प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव।
  6. विद्यालयों का दूर होना एवं असमान वितरण।
  7. जाति-पांति तथा ऊँच-नीच का भेदभाव।
  8. लैंगिक भेदभाव।
  9. सह-शिक्षा के प्रति समुचित दृष्टिकोण का अभाव।
  10. माध्यम की समस्या।
  11. वित्तीय एवं संसाधनों की समस्या।
  12. राजनैतिक कारक।
  13. घरेलू कार्यों में संलग्नता।
  14. पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि।
  15. भौगोलिक विषमताये।
  16. अपव्यय तथा अवरोधन।

उद्देश्य (Objective)

प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए, इस विषय में सर्वप्रथम भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर आयोग) ने जनशिक्षा का प्रसार तथा व्यवहारिक जीवन की शिक्षा, इन दो उद्देश्यों का निर्धारण किया। सन् 2000 में 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्' (NCERT) ने विद्यालयी शिक्षा विषयों पर अपनी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में विद्यालयी शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किया, जिसमें से कुछ प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

  1. बच्चों के स्वास्थ्य विषयी नियमों का ज्ञान कराना तथा स्वास्थ्यवर्द्धक क्रियाओं का प्रशिक्षण।
  2. बच्चों को उनकी मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा) तथा उनके प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण का ज्ञान कराना।
  3. बच्चों में सामूहिकता की भावना विकसित करना, उन्हें वर्गभेद से ऊपर उठाना तथा जीवन कला हेतु प्रशिक्षण।
  4. बच्चों को सांस्कृतिक क्रियाओं-उत्सव, लोकगीत, लोकनृत्य आदि में भाग लेने की ओर अग्रसर करना तथा उनमें सहिष्णुता का विकास करना।
  5. बच्चों में सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय मूल्यों का विकास करना, उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना।
  6. बच्चों को शारीरिक श्रम के अवसर प्रदान करना, उनमें शारीरिक श्रम के प्रति आदर का भाव विकसित करना तथा उनकी सृजनात्मक शक्तियों को सचेष्ट करना।
  7. बच्चों को एक दूसरे का सम्मान करने की और प्रवृत्त करना और उन्हें प्रेम, सहानुभूति तथा सहयोग से कार्य करने की ओर उन्मुख करना ।
  8. बच्चों को पर्यावरण प्रदूषण के प्रति सचेत करना, उनमे वैज्ञानिक प्रवृत्ति का विकास करना।
  9. बच्चों को विभिन्न धर्मों के पैगम्बरों और उनकी शिक्षाओं से परिचित कराकर सर्व धर्म सद्भाव विकसित करना।

प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्यों को सामान्य रूप से निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत वर्णित किया जा सकता है-

  1. व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करना।
  2. 3Rs का ज्ञान प्रदान करना।
  3. खेल-खेल में सिखाना।
  4. प्रेम तथा सहयोग के साथ कार्य करना।
  5. श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण का विकास करना।
  6. चारित्रिक एवं नैतिक विकास करना।
  7. सामाजिक चरित्र का विकास करना।
  8. बड़ों का सम्मान एवं सभी का आदर करना।
  9. सभी धर्मों के प्रति आस्था का विकास।
  10. स्वास्थ्य विषयी ज्ञान प्रदान करना।
  11. बालक एवं बालिकाओं में अभेदपूर्ण व्यवहार।
  12. देश-प्रेम तथा एकता की भावना का विकास।
  13. पर्यावरण तथा आस-पास के वातावरण के प्रति जागरूकता का विकास करना।

प्राथमिक शिक्षा का महत्व, कार्य एवं आवश्यकता (Importance, function and need of primary education)

प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता, महत्व तथा कार्यों का आंकलन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत दृष्टव्य है-

  1. प्राथमिक शिक्षा नीव स्वरूप
  2. व्यक्तित्व निर्माण का आधार
  3. व्यावहारिक जीवन की शिक्षा
  4. जनशिक्षा है
  5. जागरूकता हेतु शिक्षा है
  6. पूर्ण शिक्षा के रूप में
  7. प्रेम तथा सहयोग की नींव के रूप में
  8. देश-प्रेम की भावना के विकास में सहायक
  9. अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा
  10. श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण
  11. सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक आदि विकास
  12. स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोणों में सहायक

1. प्राथमिक शिक्षा नींव स्वरूप:- प्राथमिक शिक्षा सभी शिक्षाओं की नींव है। इसे निम्न प्रकार से देखा जा सकता है-

प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ही व्यक्ति माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर होते हैं। प्राथमिक शिक्षा की नींव यदि कमजोर हुई तो माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा भी कमजोर होगी। किसी भी स्वस्थ समाज के निर्माण में प्राथमिक शिक्षा की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योकि इस आयु में जो संस्कार बच्चों में पड़ जाते हैं वे आजीवक आधारस्वरूप चलते रहते हैं। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा का एक कार्य आगे की शिक्षा की नींव तैयार करने और भावी नागरिकों के निर्माण हेतु महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

2. व्यक्तित्व निर्माण का आधार:- प्राथमिक शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का आधार होती है। मनोवैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण उसके शिशु काल में ही सर्वाधिक हो जाता है, उसे जो कुछ बनना होता है, उसका तीन-चौथाई वह शैशवावस्था में ही बन जाता है। इस प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण का आधार यह अवस्था और प्राथमिक शिक्षा होने के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

3. व्यावहारिक जीवन की शिक्षा:- प्राथमिक स्तर की शिक्षा का एक कार्य व्यावहारिक जीवन की शिक्षा प्रदान करना है। इसलिए भी प्राथमिक शिक्षा आवश्यक और महत्वपूर्ण होती है। व्यावहारिक जीवन की शिक्षा के अन्तर्गत पढ़ना, लिखना, अंकगणित, परिवार, समाज तथा विद्यालय में किस प्रकार व्यवहार किया जाना चाहिए, किस प्रकार अपने दैनिक क्रियाकलापों का सम्पादन किया जाना चाहिए आदि ये सभी शिक्षाएँ प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत प्रदान की जाती है।

4. जनशिक्षा है:- प्राथमिक शिक्षा का महत्व तथा आवश्यकता इस हेतु भी अत्यधिक है क्योंकि यही जनशिक्षा के विस्तार में सहायक है। प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता तथा इसके महत्व का आंकलन इस बात से भी लगाया जा सकता है कि संविधान की धारा 45 के द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क बना दिया गया है। प्राथमिक शिक्षा के बिना जनशिक्षा की संकल्पना कदापि साकार नहीं हो सकती है। इस प्रकार जनशिक्षा के कार्य का सम्पादन करने की दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा महत्वपूर्ण है।

5. जागरूकता हेतु शिक्षा है:- प्राथमिक शिक्षा के द्वारा लोगों को जागरूक बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। इसीलिए लोगों को जागरूक बनाने के लिए प्राथमिक शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्राथमिक शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है।

6. पूर्ण शिक्षा के रूप में:- प्राथमिक शिक्षा पूर्ण शिक्षा के रूप में महत्वपूर्ण तथा आवश्यक होती है, क्योंकि अभी भी अधिकांश लोग प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् शिक्षा छोड़ देते हैं। अत: यह शिक्षा उन व्यक्तियों के लिए पूर्ण शिक्षा है और इसी शिक्षा के आधार पर ही वे अपने भावी जीवन का संचालन करते हैं। अत: यह प्राथमिक शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है।

7. प्रेम तथा सहयोग की नींव के रूप में:- प्राथमिक स्तर पर बालकों में प्रेम तथा सहयोग की नींव डाली जाती है। शैशवावस्था में बालकों में सामूहिकता की भावना का विकास होता है, विद्यालयी गतिविधियों के द्वारा प्रेम तथा सहयोग की भावना का विकास होता है। प्राथमिक स्तर पर बच्चों को खेल-खेल के द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है जिसके द्वारा वे प्रेम तथा सहयोग के कार्य करना सीखते हैं। इस स्तर पर बच्चे अपने सामान, खिलौनों तथा विचारों इत्यादि का आदान-प्रदान करते हैं और अपने भावी जीवन में भी वे प्रेम तथा सहयोगपूर्वक कार्य करते हैं।

8. देश-प्रेम की भावना के विकास में सहायक:- प्राथमिक स्तर पर देश-प्रेम की भावना का विकास किया जाता है। इस स्तर पर देश-प्रेम की भावना विकसित करने के लिए देशभक्ति कार्यक्रम, निबन्ध तथा विविध प्रकार की पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन किया जाता है, जिसमें बच्चे जोश से भाग लेते हैं और देश के महत्व, त्यौहारों का महत्व, देश-प्रेम की भावना, देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों से अवगत होते हैं और आजीवन उनके इन्हीं भावों का विकास होता है।

9. अनिवार्य और सार्वभौमिक शिक्षा:– संविधान की धारा 45 में प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क और सार्वभौमिक बनाने का प्रावधान किया गया है। अनिवार्य तथा सार्वभौमिक शिक्षा के द्वारा ही समाज तथा राष्ट्र का विकास होगा। इस दृष्टि से अनिवार्य तथा सार्वभौमिक शिक्षा की दृष्टि से प्राथमिक शिक्षा महत्वपूर्ण और आवश्यक है।

10. श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण:- प्रारम्भिक शिक्षा का महत्व और आवश्यकता श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण के विकास के लिए भी है। प्राथमिक स्तर पर कार्य और खेल के द्वारा शिक्षा प्रदान कर बालकों को श्रम के प्रति समुचित दृष्टिकोण का विकास किया जाता है और बालपन में पड़ी इस दृष्टिकोण की नींव आजीवन चलती रहती है, जिससे आर्थिक स्वावलम्बन का विकास होता है। बालपन से यदि श्रम करने की प्रवृत्ति का विकास हो गया तो वह आजीवन सतत् रूप से चलती रहती है।

11. सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक आदि विकास:– प्राथमिक शिक्षा का एक कार्य बच्चों के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक तथा चारित्रिक आदि गुणों के द्वारा व्यक्तियों का विकास करना है। प्राथमिक शिक्षा के द्वारा बालकों को विभिन्न प्रकार की पृष्ठभूमियों, धर्म, संस्कृतियों तथा क्षेत्रों से आने वाले व्यक्तियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने का अवसर प्रदान किया जाता है। धार्मिक विकास हेतु सभी धर्मों के प्रति आदर तथा सभी धर्मों की अच्छाइयों से अवगत कराया जाता है और इसी प्रकार नैतिक तथा चारित्रिक विकास हेतु बालकों को महापुरुषों की जीवनियों, प्रेरणादायक हानियों और घटनाओं से परिचय प्राप्त कराया जाता है। इस प्रकार प्राथमिक शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास की नींव रखती है, जिसके द्वारा ही आगे चलकर वह रचनात्मक तथा कलात्मक अभिव्यक्तियाँ कर पाता है।

12. स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोणों में सहायक:- प्राथमिक स्तर पर रूढ़िवादी समाजों में भी साथ-साथ पढ़ने और खेलने पर पाबन्दी नहीं होती है और प्राय: इस स्तर पर बालक-बालिकाये जाति, धर्म, ऊँच-नीच, लिगादि भेदभावों को न मानकर साथ-साथ खेलते, पढ़ते और बढ़ते हैं। यदि इस उम्र में जो शिक्षा प्रदान की जा रही है उससे बालक-बालिका का भेदभाव निकाल दिया जाए तो स्वस्थ लैंगिक दृष्टिकोण में सहायता प्राप्त होगी। बालक-बालिकायें दोनों में साथ-साथ रहने और दोनों की समानता और स्वतन्त्रता के प्रति आदर के विकास की दृष्टि से इस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता तथा महत्व अधिक है।

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