भारतीय सामाज में महिलाओं की स्थिति | Status of Women in Indian Society in hindi

महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर रही हैं और वर्तमान में महिलाओं ने एक सशक्त नारी की छवि स्थापित की है। समाज में महिलाओं की

भूमिका (Introduction)

महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर रही हैं और वर्तमान में महिलाओं ने एक सशक्त नारी की छवि स्थापित की है। समाज में महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण वर्तमान परिस्थिति के आधार पर पूर्णरूपेण नहीं किया जा सकता। भारत में महिलाओं की स्थिति का विहंगावलोकन करने के लिए विभिन्न कालों, जैसे-वैदिक, मुस्लिम, ब्रिटिश एवं आधुनिक काल में उनकी स्थिति का अध्ययन करने के उपरान्त ही समाज में महिलाओं की स्थिति का ज्ञान किया जा सकता है। विभिन्न ऐतिहासिक काल क्रमों में महिलाओं की स्थिति भी अलग-अलग प्रकार की रही है। महिलाओं की स्थिति जानने का आधार मुख्य रूप से उनका सामाजिक आदर, शिक्षा व्यवस्था, परिवार में स्थान, लैंगिक भेदभाव का न होना, रूढ़ियों एवं कुप्रथाओं का न होना, आर्थिक संसाधनों पर नियन्त्रण, निर्णय लेने की क्षमता का प्रयोग एवं स्वतन्त्रता आदि में निहित होता है।

Status of Women in Indian Society in hindi

वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in Vedic period)

प्राचीनकाल में लगभग 200 ई० पूर्व तक स्त्रियों को समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था और उनकी शिक्षा का प्रबन्ध करना माता-पिता का परम कर्तव्य माना जाता था। बालिकाएं 16 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करती थी। अथर्ववेद में उल्लिखित है कि नारी विवाह के पश्चात् तभी सफल हो सकती है, जबकि उसे ब्रह्मचर्य की अवस्था में भली-भांति शिक्षित किया गया हो। यहाँ स्त्रियाँ कृषि कार्यों तथा युद्ध सम्बन्धी अस्त्रों के निर्माण का कार्य भी करती थीं। वे अपने पतियों के साथ युद्ध में भाग लेती थीं और धनु संचालन तथा अश्व संचालन में भी भाग लेती थीं। स्त्रियों को वेदाध्ययन करने, शास्त्रार्थ करने, पुराणों का अध्ययन करने, धार्मिक एवं सामाजिक कृत्यों के भाग लेने, यज्ञादि कार्यों में भाग लेने की स्वतन्त्रता प्राप्त थी।

इस समय की विदुषी स्त्रियों में इन्द्राणी, मैत्रेयी, गार्गी, लोपामुद्रा तथा सर्वराज्ञी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। ऋग्वेद के अनेक ग्रन्थों की रचना महिलाओं के द्वारा ही की गयी थी। जिनमें सिकता, विश्ववारा, निवावरी, घोषा, रोयशा, लोपामुद्रा, अपाला तथा उर्वशी आदि 20 कवयित्रियों की रचनाओं का उल्लेख प्राप्त होता है।

उत्तर-वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में ह्रास के चिह्न दृष्टिगत होते हैं। मनुस्मृति में मनु ने कुछ नियमों का वर्णन किया है, जिसके अनुसार स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार प्रदान नहीं किया गया और मन्त्रोच्चारण की कसौटी पर उन्हें आयोग्य बना दिया गया। मनु के अनुसार, स्त्रियों को केवल घर के कार्य करने चाहिए तथा पति की सेवा करना उनका धर्म माना गया, जिसे उसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के समकक्ष ठहराया गया। मनु ने अन्य कई नियम बनाये जिनका पालन करना स्त्रियों के लिए अनिवार्य था। विवाह की आयु भी कम की गयी। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों को वेदों की शिक्षा की अपेक्षा संगीत, नृत्य, चित्रकला व अन्य ललित कलाओं को सीखने पर अधिक जोर दिया जाने लगा। वास्तव में इस काल में जो विचारधाराएँ थी, वे ही काफी बदले हुए स्वरूप में आज भी कायम है। इस काल की महिलाएँ कम आयु में विवाह के कारण वे शिक्षा से वंचित हो जाती थी। उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता भी उत्पन्न नहीं हो पाती थी। वे धन और सुरक्षा के लिए पुरुषों पर आश्रित थी।

साधारण समाज में स्त्रियों की बड़ी अवनति हुई, किन्तु उच्च परिवारों में इनकी स्थिति काफी अच्छी थी। इस काल में भी अनेक कवत्रियों और लेखिकाएँ हुई। 'हाल की गाथा' में सात कवयित्रियों की रचनाएं संगृहीत है। शील और भट्टारिका अपनी सरल, प्रसादयुक्त शैली तथा शब्द और अर्थ के सामंजस्य के लिए प्रसिद्ध थीं। देवी लाट प्रदेश की प्रसिद्ध कवयित्री थी। विदर्भ में विजयका की कीर्ति की समता केवल कालिदास ही कर सकते थे। राजशेखर की पत्नी को काव्य रचना और टीका करने में सिद्धहस्तता प्राप्त थी। कतिपय महिलाओं ने आयुर्वेद पर पाण्डित्यपूर्ण और प्रामाणिक रचनाएँ की हैं, जिनमें 'रूसा' का नाम प्रसिद्ध है।

जैन तथा बौद्ध धर्मों ने स्त्रियों की शिक्षा का पूर्णरूपेण समर्थन किया और स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। वे भिक्षुणी कहलाती थी तथा मठी तथा विहारों में रहती थी। महावीर तथा बुद्ध ने संघ में नारियों के प्रवेश की अनुमति दे दी थी। ये धर्म और दर्शन के मनन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थीं। जैन और बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि कुछ भिक्षुणियों ने साहित्य तथा शिक्षा के प्रसार में व्यापक योगदान दिया। उनमे सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा का नाम उल्लेखनीय है। जो धर्म के प्रचारार्थ सिंघल जैसे दूर देश भी गयी। बौद्ध आगमों की महान शिक्षिका के रूप में भी इनकी ख्याति थीं। जैन साहित्य से जयन्ती का पता चलता है, जिसने धर्म और दर्शन की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति हेतु आजन्म अविवाहित रहने का व्रत लिया और भिक्षुणी हो गयी।

इस प्रकार वैदिक काल में पूर्व भाग में स्त्रियों की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आयी, फिर भी उनको अभी भी सम्मान प्राप्त था।

मुस्लिम काल में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in Muslim period)

मध्य काल मुस्लिम आक्रान्ताओं और उनके शासन का काल रहा है। आठवीं शताब्दी के आरम्भ से ही भारत के अतुलनीय वैभव की ओर आकृष्ट होकर मुस्लिम आक्रमण पर आक्रमण करते रहे और धन-सम्पदा लूटकर अपने साथ ले गये, परन्तु इनका उद्देश्य मात्र लूटमार तक ही सीमित था। ये भारत में शासन स्थापित करना नहीं चाहते थे। 1192 ई० में मुहम्मद गोरी ने दिल्ली के अन्तिम प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान को पराजित करके भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नीव डाली थी। इनके बाद क्रमश: गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, एवं मुगल वंश ने शासन किया। लगभग 600 वर्षों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। मध्य काल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ।

डॉ० एफ०के०कई के अनुसार, "मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी, जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।" प्रथम मदरसे की स्थापना मुहम्मद गोरी द्वारा अजमेर में की गयी बाबर, हुमायूँ, अकबर इत्यादि शिक्षा प्रेमी थी और इन्होंने मदरसे की स्थापना करायी। मुस्लिम काल में पर्दा-प्रथा के कारण स्त्री शिक्षा प्राय: उपेक्षित रही और उनकी शिक्षा के लिए कोई विशेष प्रबन्ध नहीं किया गया। कम आयु की बालिकाएँ मकतबों में प्राथमिक शिक्षण ग्रहण करती थी। निर्धन तथा निम्न वर्ग की स्त्रियाँ सामान्य या प्राथमिक शिक्षा से वंचित थीं।

अकबर अत्यधिक उदारवादी शासक था। जिसने इस्लाम में स्त्री पुरुषों दोनों को समान महत्त्व दिया सल्तनत काल में इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया की शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया वह स्त्री शिक्षा का हिमायती था। मस्लिम काल में ऐसी कई मुस्लिम शासिकाएँ भी हुई हैं जिन्होंने अपनी योग्यता और काल युद्धभूमि में भी दिखाई। इस सन्दर्भ में अहमदनगर की चाँदबीबी के प्रयास उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अकबर की सेना से अपने साम्राज्य की रक्षा की बाबर की पुत्री गुलबदन बानो बेगम विदुषी थी और 'हुमायूँनामा' की लेखिका थी।

इस प्रकार मुस्लिम काल में पर्दा प्रथा चरम पर थी जिसे जन-सामान्य में स्त्री शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया और स्त्रियों की सामाजिक आदि स्थितियाँ दयनीय हो गयी। बाल-विवाह, बहुविवाह, विधवा, पुनर्विवाह निषेध, सती प्रथा इत्यादि कुप्रथाएँ चरम पर थीं जन-सामान्य की बालिकाओं और स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह उठने लगे और वे अपने अधिकारों से वंचित तथा उपेक्षित रह गयी।

ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in British period)

ब्रिटिश मिशनरी भारत में अपने धर्म और शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने हेतु लालायित रहते थे। प्रोटेस्टेण्ट तथा कैथोलिक मिशनरियों ने स्त्री शिक्षा हेतु प्रयास किये। 1821 ई० में मिस कुक भारत आयी और आते ही उन्होंने आठ बालिका विद्यालयों की स्थापना की तथा सन् 1823 तक 14 और बालिका विद्यालयों की स्थापना की। मिशनरियों के इन कार्यों से प्रभावित होकर भारतीयों ने भी इस क्षेत्र में कार्य किये, जिसमें पूना में महात्मा बाई फूले ने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमे वे और उनकी पत्नी पढ़ाते थे। 1849 ई० में कोलकाता में भी वैश्यून ने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। इसके पश्चात् राजा राममोहन राय और ईश्वरचन्द विद्यासागर ने कोलकाता क्षेत्र में कई बालिका विद्यालयों की स्थापना की। 1851 तक ईसाई मिशनरियों ने ही 371 बालिका विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें 11,293 बालिकाएँ शिक्षा प्राप्त कर रही थीं।

1850 में सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु सरकार ने सहायता प्रदान की। उस समय अंग्रेजों द्वारा चलाये जा रहे विद्यालयों को भारतीय समाज सुधारकों, राजा मोहन राय आदि ने खुला सहयोग दिया। लार्ड डलहौजी ने भी स्त्री शिक्षा का समर्थन किया तथा यह माना कि यह एक प्रमुख मुददा है। जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति जब तक सुदृढ़ नहीं होगी तब तक किसी प्रकार का परिवर्तन और विकास कल्पना मात्र ही रहेगा। और इस हेतु अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में जागृति लाने, उनकी दशा में सुधार करने के लिए प्रयास किये, जिसमें भारतीयों ने भी योगदान दिया। 1854 के शिक्षा सुधार के पश्चात् स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में काफी जागृति उत्पन्न हुई तथा स्त्रियों की शिक्षा विशेषतया प्राथमिक शिक्षा पर बल दिया गया। कई संस्थाओं ने बालिका शिक्षा हेतु मुक्त हस्त से अनुदान दिया।

अंग्रेज महिला समाज सुधारक मैरी कारपेटर ने यह अनुभव किया कि विद्यालयी शिक्षा के साथ-साथ महाविद्यालय की शिक्षा भी आवश्यक है। उनके प्रयासों से महिलाओं के लिए पहला प्रशिक्षण महाविद्यालय स्थापित किया गया। इन प्रयासों के फलस्वरूप तथा सन् 1854 के शिक्षा परिपत्र के परिणामस्वरूप मद्रास में विद्यालयों की संख्या 256, मुम्बई में 65, बंगाल में 288 और उत्तर पश्चिमी प्रान्तों में 17 थी। उस परिपत्र के द्वारा सरकार ने स्त्री शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता का वचन दिया और सीधी कार्यवाही करने का भी वचन दिया। सन् 1882 तक लड़कियों के लिए 2600 प्राइमरी स्कूल, 81 सेकेण्डरी स्कूल, 15 शिक्षण संस्थाएँ और एक कॉलेज स्थापित हो चुके थे। 1882-83 में इण्डियन एजूकेशन कमीशन स्थापित हुआ। लार्ड रिपन ने इसे डब्ल्यू डब्ल्यू० हण्टर की अध्यक्षता में नियुक्त किया गया। इस आयोग का गठन प्राथमिक शिक्षा के विकास तथा विस्तार की जानकारी के साथ-साथ उसमें सुझाव हेतु किया गया। हण्टर आयोग ने यह सुझाव दिया कि पब्लिक फण्ड का अधिकांश भाग नारी शिक्षा में लगाना चाहिए और उसके लिए उदारतापूर्वक सहायता अनुदान (Grant and Aids) देना चाहिए।

लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए आयोग ने सुझाव दिया कि सरकार ने प्राइवेट कन्या स्कूलों का स्वतन्त्र अनुदान, महिला शिक्षिकाओं को अनुदान, कन्या प्राथमिक विद्यालयों में सरल पाठ्यक्रम लागू किया जाये। महिलाओं हेतु विद्यालय की स्थापना की जाये तथा मालिकाओं की शिक्षा हेतु पृथक निरीक्षणालयों की स्थापना की जानी चाहिए। परिणामतः 1902 के अन्त तक 12 महिला कॉलेज, 468 सेकेण्डरी विद्यालय, 5650 प्राथमिक विद्यालय तथा 45 प्रशिक्षण संस्थाएँ स्त्रियों के लिए स्थापित की जा चुकी थी। सन् 1901-02 में 76 नारियाँ मेडिकल कॉलेजों में थीं, 166 मेकैनिकल स्कूलों में थी।

सन् 1902 में 1921 तक के काल में शिक्षा के प्रति काफ़ी जागरूकता उत्पन्न हो चुकी थी। 1904 में श्रीमती ऐनी बेसेण्ट ने बनारस में 'सेण्ट्रल हिन्दू बालिका विद्यालय' की स्थापना की। 1916 में दिल्ली में 'लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज' की स्थापना की गयी जो भारत का प्रथम महिला मेडिकल कॉलेज है। इसी वर्ष मुम्बई में महिला महाविद्यालय की भी स्थापना की गई। 1917 में श्रीमती ऐनी बेसेण्ट की अध्यक्षता में भारतीय महिला संगठन (Indian Women Association) की स्थापना की गयी, जिसका मुख्य उद्देश्य नारी शिक्षा को प्रसारित करना थ। इस काल में 19 महाविद्यालय, 675 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तथा 21,956 प्राथमिक विद्यालय थे।

महात्मा गाँधी ने स्त्री शिक्षा और स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी स्त्रियों की भूमिका पर बल दिया तथा स्त्रियों को पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए आवाज उठायी, जिसका प्रभाव स्त्रियों की दशा पर पड़ा। 1936 में इन्होंने, 'अखिल भारतीय स्त्री संघ' की स्थापना की तथा इसके माध्यम से अपनी माँगों को बुलन्द करना प्रारम्भ कर दिया। राजनैतिक जागरण के कारण भी स्त्रियों की सामाजिक दशा में सुधार आया।

स्वतन्त्रता के पश्चात् महिलाओं की स्थिति (Status of Women after Independence)

भारतीय शिक्षा में सुधार हेतु सर्वप्रथम स्वतन्त्र भारत में 1948-49 में राधाकृष्णन आयोग, जो उच्च शिक्षा पर सुझावों के लिए केन्द्रित था, इसलिए इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के नाम से भी जाना जाता है, का गठन किया गया। आयोग ने स्त्री शिक्षा को गम्भीरता से लेते हुए इस विषय में निम्न सुझाव दिये-

  1. स्त्रियों और पुरुषों की शिक्षा एक समान न हो, अपितु स्त्रियों की अभिरुचित के अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए।
  2. महिला तथा पुरुष अध्यापकों को समान वेतन ।
  3. बालिकाओं हेतु शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  4. कॉलेज स्तर पर सह-शिक्षा को प्रोत्साहन।
  5. स्त्रियों की शिक्षा में वृद्धि करने हेतु उनको शिक्षा के अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

इस समय तक देश में 100 से अधिक महिला महाविद्यालय थे। पंचवर्षीय योजनाओं के संचालन द्वारा स्त्री शिक्षा में प्रगति तथा उनकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक इत्यादि उन्नति का कार्य योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न किया जाने लगा। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में स्त्री शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान किये गये तथा इसी समय 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के लिए ए० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में मुदालियर आयोग का गठन किया गया। आयोग का मानना था कि माध्यमिक स्तर पर स्त्रियों तथा पुरुष दोनों की शिक्षा समान होनी चाहिए। स्त्री शिक्षा विषयी आयोग के मुख्य सुझाव निम्न प्रकार थे-

  1. सह-शिक्षण संस्थाओं में महिला शिक्षिकाओं की नियुक्ति का सुझाव।
  2. बालिकाओं के पाठयक्रम में गृहविज्ञान, शिल्प, गृहउद्योगों, संगीत एवं चित्रकारी को स्थान।
  3. स्त्री तथा पुरुषों की समान शिक्षा की व्यवस्था ।
  4. बालिकाओं को विद्यालयों में पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की जाये।

इस प्रकार आयोग ने शिक्षा के द्वारा महिलाओं के सामाजिक तथा आर्थिक स्वावलम्बन में भूमिका निभायी।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में स्त्री शिक्षा के प्रसार के साथ शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण का प्रावधान किया गया, जिससे महिलाओं की आर्थिक सुदृढ़ता में वृद्धि हो सके। इस योजना के ही समय सन् 1958 में श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख की अध्यक्षता में 'राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति' (National Women Education Committee) का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट सन् 1959 में प्रस्तुत की जिसमें स्त्री शिक्षा के विषय में सुझाव निम्न प्रकार दिये गये-

  1. केन्द्रीय सरकारी स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में निश्चित नीति बनाये तथा इसके प्रसार के लिए एक निश्चित योजना बनायी तथा इस नीति एवं योजनानुसार स्त्री शिक्षा के प्रसार का कार्य प्रान्तीय सरकारों को सौंपे।
  2. स्त्री शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं के लिए केन्द्रीय सरकार अतिरिक्त धनराशि की व्यवस्था करे तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में इस हेतु ₹10 करोड़ की अतिरिक्त धनराशि का आबंटन करें।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष कार्य किये जायें।
  4. स्त्री शिक्षा को राष्ट्र की प्रमुख समस्या माना जाये तथा कुछ समय के लिए इसके प्रचार एवं प्रसार का उत्तरदायित्व केन्द्र सरकार स्वयं लें।
  5. केन्द्रीय स्तर पर 'राष्ट्रीय महिला परिषद्' (National Council for Women Education) तथा प्रान्तीय स्तर पर राज्य महिला शिक्षा परिषद्' (State Council for Women Education) का गठन किया जाये और ये परिषदें स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु उत्तरदायी हो।
  6. स्त्री तथा पुरुषों की शिक्षा में वर्तमान विषमताओं को दूर कर दोनों के लिए समान शिक्षा की व्यवस्था करना।

दुर्गाबाई देशमुख समिति के सुझाव पर 1959 में केन्द्र में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद्' (National Council for Women Education) का गठन किया गया तथा इसे देश में स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में नीति एवं योजना बनाने का कार्य सौंपा गया। इसके निर्देशन में स्त्री शिक्षा के विकास को गति प्राप्त हुई। 1962 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् (National Council for Women Education) ने श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में स्त्री शिक्षा के पुनर्गठन हेतु सुझाव देने के लिए एक समिति का गठन किया। इसे 'हंसा मेहता समिति' के नाम से भी जाना जाता है। इस समिति ने महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न सुझाव दिए-

  1. प्राथमिक स्तर पर बालकों और बालिकाओं हेतु समान पाठ्यक्रम की व्यवस्था।
  2. माध्यमिक स्तर पर बालकों और बालिकाओं हेतु समान पाठ्यक्रम की सुविधा।
  3. माध्यमिक हेतु पृथक व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था।
  4. किसी भी स्थिति में बालकों और बालिकाओं की शिक्षा में बहुत अन्तर नहीं होना चाहिए।

1964 में भारतीय शिक्षा पर समग्र रूप से सुझाव देने हेतु 'कोठारी आयोग की नियुक्ति की गयी तथा इस आयोग ने स्त्रियों की स्थिति में सुधार हेतु शैक्षिक सुझाव इन शब्दों में दिये-

  1. बालिकाओं हेतु अलग से माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की जाये।
  2. माध्यमिक स्तर पर बालिकाओं को छात्रावास की सुविधा प्रदान की जाये।
  3. बालिकाओं हेतु विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाये।
  4. लड़कियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय भेजने के लिए जनमानस को तैयार करना।
  5. अशिक्षित प्रौद महिलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की जाये तथा उनके लिए अलग से प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की जाये।
  6. बालिकाओं हेतु अलग से व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
  7. बालिकाओं के लिए अलग से महिला महाविद्यालय की स्थापना की जाये।
  8. 6 से 14 आयु वर्ग के सभी लड़के-लड़कियों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
  9. 11 से 14 आयु वर्ग की बालिकाओं हेतु अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था।

आयोग के इन सुझावों के पश्चात् राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 की घोषणा की गयी, जिसमे स्त्री शिक्षा पर विशेष रूप से बल दिया गया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) के अन्तर्गत 1970 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् (N.C.W.E) द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट में स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए निम्न बिन्दुओं पर बल दिया गया-

  1. स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु योजनाबद्ध कार्यक्रम का बनाया जाये।
  2. ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने हेतु शिक्षिकाओं को प्रोत्साहन किया जाए और उन्हें अतिरिक्त भत्ता तथा सुविधाएँ प्रदान की जाये।
  3. केन्द्रीय सरकार स्त्री शिक्षा हेतु अलग से पर्याप्त धनराशि सुनिश्चित करे।

1971 में छात्राओं की संख्या 1961 की लगभग 140 लाख से लगभग दो गुनी अर्थात् 280 लाख हो गयी। 1974 में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) का शुभारम्भ किया गया। 1975 के वर्ष के यूनेस्को (UNESCO) में महिला वर्ष' के रूप में मनाया गया तथा भारत मे भी महिला कल्याण की योजनाओं का शुभारम्भ किया गया। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण योजना उनके लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने की थी। इस योजना के दौरान स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष प्रयास तथा महिला शिक्षिकाओं की पूर्ति हेतु प्रयास किया गया।

1986 में सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की घोषणा की। इस नीति में स्पष्ट शब्दों में घोषणा की गयी कि अब स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं होगा। और दोनों को ही समान सुविधाएँ प्रदान करना चाहिए। इस शिक्षा नीति के साथ इसकी एक कार्य योजना (POA) तैयार की गयी, जिसके अनुसार प्रत्येक क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किये गये, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी स्त्री शिक्षा के प्रसार हेतु जो कदम उठाये गये उनमें उल्लेखनीय कदम हैं-जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (District Primary Education Programme : DPEP) यह कार्यक्रम मुख्य रूप से उन जिलों में प्रारम्भ किया गया जिनमें स्त्री साक्षरता प्रतिशत न्यूनतम था। बालिका निरौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को 90% अनुदान देना शुरू किया गया बालिका माध्यमिक विद्यालय वहाँ खोले गये जहाँ इनका एकदम अभाव था। केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में बालिकाओं के लिए 30% आरक्षण प्रदान किया गया और उनकी शिक्षा निःशुल्क की गयी।

महिलाओं के लिए +2 स्तर पर नये-नये व्यावसायिक पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये गये, अलग से पॉलिटेक्निक कॉलेज खोले गये। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में महिला अध्ययन केन्द्र खोलने हेतु सहायता देना प्रारम्भ कर दिया। 1989 में 'महिला समाख्या कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया जिसके अन्तर्गत ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं की शिक्षा तथा उनको अधिकार सम्पन्न बनाने हेतु कार्यक्रम तैयार किया गया। 1991 में लगभग 6.2 करोड़ बालिकाएँ अध्ययनरत थीं।

1992 में आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) प्रारम्भ की गयी, जिसमें माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर छात्राओं के लिए छात्रावास सुविधाएँ तथा इन छात्रावासों को ₹1,500 प्रति छात्रों के हिसाब से फर्नीचर, बर्तन, मनोरंजन, खेलकूद सामग्री तथा वाचनालय व्यवस्था हेतु अनुदान दिया गया और ₹5000 प्रति छात्रा भोजन सामग्री एवं भोजन व्यवस्था करने वाले कुक एवं कर्मचारी के वेतन हेतु अनुदान दिया गया।

नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) के अन्तर्गत मानव संसाधन विकास मन्त्री डॉ० मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता में राज्यों के शिक्षा मन्त्रियों और शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन हुआ, जिसमें महिलाओं हेतु स्नातक स्तर की निःशुल्क शिक्षा, बालिकाओं की शिक्षा की प्रतिबद्धता को दोहराया गया।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) के अन्तर्गत प्राथमिक स्तर पर सर्व शिक्षा अभियान (SSA), कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना (KGBVP) का संचालन किया गया, जिससे स्त्री शिक्षा में तीव्रता से विस्तार हुआ तथा आँकड़ों के अनुसार 2005-06 में देश में अध्ययनरत छात्रों की कुल संख्या 10.9 करोड़ हो गयी।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना 2007-12 में वंचित वर्गों की बालिकाओं की सभी स्तर पर शिक्षा के लिए प्रयास किये गये। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत में अर्थात् 20वीं और 21वीं सदी में स्त्री शिक्षा की प्रगति के क्रमिक विकास को बढ़ाव मिला.

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