Project Method of Teaching in hindi

शिक्षा जगत में प्रचलित शिक्षा प्रणालियों में योजना प्रणाली या प्रोजेक्ट प्रणाली (Project Method) का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस शिक्षण प्रणाली के

योजना प्रणाली (Project Method)

शिक्षा जगत में प्रचलित शिक्षा प्रणालियों में योजना प्रणाली या प्रोजेक्ट प्रणाली (Project Method) का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस शिक्षण प्रणाली के जन्मदाता तो जॉन डीवी थे, परन्तु इस पद्धति को क्रियारूप उनके शिष्य डब्ल्यू० एच० किलपैट्रिक ने दिया है। उन्होंने 'प्रयोजनवाद' के सिद्धान्तों पर आधारित शिक्षण पद्धति को क्रियान्वित किया। मुख्य रूप से इस शिक्षण-प्रणाली के आधार है- समस्या को स्वयं हल करना, जीवन, सामाजिक कुशलता तथा व्यावहारिक एवं उद्देश्यपूर्ण शिक्षा।

Project Method of Teaching in hindi

किलपैट्रिक ने यह अनुभव किया कि उनके समय में विद्यालय एवं समाज के मध्य एक बहुत गहरी खाई पैदा हो गई है तथा दोनों एक-दूसरे से अलग हो गए है। दोनो विचार एवं कार्यक्षेत्र में असम्बद्ध हो गए हैं। विद्यालय में जो कुछ सिखाया जाता है वह समाज के अनुरूप नहीं होता, फलस्वरूप बालक विद्यालय में जो कुछ ज्ञानार्जन करता है उसका समाज में बहुत कम उपयोग कर पाता है।

इसका कारण यह है कि विद्यालयों की शिक्षा दैनिक जीवन से सम्बन्धित नहीं होती है। शिक्षा में सामाजिक दृष्टिकोण का ध्यान नहीं रखा जाता। विद्यालय में प्रयोजनहीन, संकीर्ण, अव्यावहारिक तथा नौरस शिक्षा प्रदान की जाती है। किलपैट्रिक के शब्दों में, "इसीलिए हम चाहते हैं कि शिक्षा वास्तविक जीवन को गहराई में प्रवेश करे। केवल सामाजिक जीवन में ही नहीं, वरन् उस उत्तम जीवन में जिसकी हम आकांक्षा करते हैं।" अतः इन दोषों को दूर करने और शिक्षा को वास्तविक जीवन से सम्बद्ध करने के उद्देश्य से किलपैट्रिक ने शिक्षण के क्षेत्र में योजना प्रणाली को प्रस्तुत किया।

योजना प्रणाली का अर्थ (Meaning of Project Method)

योजना प्रणाली के अन्तर्गत किसी भी विषय को योजनाबद्ध ढंग से सीखा एवं किया जाता है। किलपैट्रिक के शब्दों में— "प्रोजेक्ट (योजना) वह सहृदय उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो सामाजिक वातावरण में किया जाए।" इसी प्रकार रायबर्न ने भी उद्देश्यपूर्णता तथा स्वेच्छापूर्वक किए गए कार्य को योजना प्रणाली के लिए आवश्यक माना है। उनके शब्दों में "योजना वह उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो सद्भावनाओं से बालक स्वेच्छापूर्वक पूरा करने का प्रयास करते हैं।" प्रो० स्टीवेन्सन के शब्दों में- "योजना एक समस्यामूलक कार्य है जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्णता को प्राप्त होता है।"

इन समस्त स्पष्टीकरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि योजना एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया होती है और वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होती है तथा उसे बालक विद्यालय में स्वेच्छा से लगन के साथ करता है। इसके चार तत्त्व होते हैं-

  • (i) उद्देश्यपूर्ण क्रिया,
  • (iii) तत्सम्बन्धी योजना,
  • (iii) क्रियात्मक रूप
  • (iv) सामाजिक उपयोगिता।

शिक्षा के क्षेत्र में अपनाई जाने वाली यह योजना प्रणाली विभिन्न सिद्धान्तों पर आधारित है जैसे कि उद्देश्य या प्रयोजन का सिद्धान्त, क्रियाशीलता का सिद्धान्त, अनुभव का सिद्धान्त, स्वतन्त्रता का सिद्धान्त, उपयोगिता का सिद्धान्त, वास्तविकता का सिद्धान्त, सामाजिकता का सिद्धान्त तथा सानुबन्धता का सिद्धान्त।

योजना प्रणाली की विभिन्न अवस्थाएँ (Different Phase of Project Method)

योजना प्रणाली एक व्यवस्थित शिक्षण प्रणाली है। इस शिक्षण प्रणाली को मुख्य रूप से छह अवस्थाओं में विभाजित किया गया है जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है-

1. समस्यामूलक परिस्थिति उत्पन्न करना:- इस प्रणाली में सर्वप्रथम शिक्षक बालकों के सम्मुख अनेक समस्यामूलक परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। ये समस्यात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न करते समय शिक्षक बालकों की रुचि, अवस्था तथा मानसिक विकास का पूरा-पूरा ध्यान रखता है, अर्थात समस्याएँ इस स्तर की होती हैं कि उन्हें बालक सरलता से सुलझा सके। अब बच्चे स्वयं परिस्थिति में छिपी समस्या को ढूंढ़ निकालते हैं और उस समस्या के समाधान हेतु स्वयं योजनाएँ भी बनाते हैं। समस्या सम्बन्धी विचार, तर्क वितर्क, पक्ष-विपक्ष आदि पर बालक तथा शिक्षक बातचीत करते हैं।

2. योजना अथवा प्रोजेक्ट का चयन:- प्रत्येक परिस्थिति में अनेक समस्याएँ निहित रहतो हैं। प्रत्येक बालक इन समस्याओं को ढूंढता है और फिर अपनी रुचि के अनुकूल एक समस्या चुन लेता है। तत्पश्चात् इस समस्या के समाधान हेतु बालक अपने प्रस्ताव शिक्षक के समक्ष रखते हैं। इस स्थिति में शिक्षक का काम बालकों का पथ-प्रदर्शन करना होता है अर्थात् बच्चों को ऐसे प्रोजेक्ट चुनने के लिए कहना होता है जिनका वास्तविक जीवन से सम्बन्ध हो तथा जिनका सबसे अधिक महत्त्व हो । शिक्षक को किसी भी प्रोजेक्ट को बालक पर बलपूर्वक नहीं थोपना चाहिए। उसे तो केवल पथ-प्रदर्शन करना चाहिए और बालको को मात्र यह बता देना चाहिए कि कौन-सा प्रोजेक्ट कितना महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार सभी प्रस्तावित योजनाओं में से एक सबसे महत्त्वपूर्ण योजना चुन ली जाती है।

3. कार्यक्रम बनाना:– योजना चयन के बाद बालक एवं शिक्षक आपस में वाद-विवाद के द्वारा कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। सभी बालक शिक्षक के सामने कार्यक्रम से सम्बन्धित अपने-अपने सुझाव रखते हैं। तब दोनों के मध्य विचार-विमर्श के उपरान्त कार्यक्रम निर्धारित होता है। कार्यक्रम निर्धारण में भी शिक्षक को बालकों को पूर्ण स्वतन्त्रता एवं मार्गदर्शन देना चाहिए। उसका काम बच्चों को केवल यह समझाना होता है कि ऐसी कार्यविधि चुने जो स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण की जा सके और वास्तविक जीवन से अधिक-से-अधिक सम्बन्धित हो । शिक्षक को चाहिए कि वह कार्यक्रम निर्धारण के बाद उसे कई भागों में बाँट दे और प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता के अनुसार कुछ-न-कुछ कार्य अवश्य दें। इस प्रकार सामाजिक गुणों, सामाजिक कुशलता तथा सहयोग की भावना का विकास होता है।

4. कार्यक्रम को क्रियान्वित करना:- कार्यक्रम या कार्यविधि निर्धारण के उपरान्त अब बालक अपने-अपने कार्य प्रारम्भ करते हैं, जैसे पढ़ना, लिखना, घूमना आदि। प्रत्येक बालक का कार्य निश्चित होता है। इसलिए अपने-अपने कार्य को सब बड़े उत्साह से करते हैं। पूरे प्रोजेक्ट में शिक्षक को कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। उसे तो केवल आवश्यकता पड़ने पर बालकों की सहायता करनी चाहिए। बालकों को अपनी गति से कार्य करने में देर तो अवश्य लगती है, कि इस प्रकार स्वयं करके सीखने से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह काफी स्थाई होता है। नया काम सीखने या करने में बालकों को देर लगती है। अतः शिक्षक को व्याकुल होकर ऐसा नहीं करना चाहिए कि वे कार्य स्वयं ही कर डालें। ऐसा करने से प्रोजेक्ट का महत्त्व समाप्त हो जाएगा। शिक्षक का दायित्व है कि वह बालकों को निरन्तर प्रोत्साहित करता रहे, इससे उनकी गति में वृद्धि होती है आवश्यकता पड़ने पर शिक्षक बालकों को प्रोजेक्ट में परिवर्तन करने के लिए सुझाव दे सकते हैं किन्तु स्वयं परिवर्तन नहीं करना चाहिए।

5. प्रोजेक्ट का मूल्यांकन:- कार्य समाप्त होने पर शिक्षक एवं छात्र देखते हैं कि योजना कहाँ तक सफल हुई है अर्थात् जिस उद्देश्य को लेकर प्रोजेक्ट प्रारम्भ किया था, उस उद्देश्य की प्राप्ति हुई है या नहीं तथा असफलता अथवा आंशिक सफलता के क्या कारण रहे हैं और इनको कैसे दूर किया जा सकता है? प्रत्येक बालक इस विषय में पूर्ण स्वतन्त्र होकर अपने विचार व्यक्त करता है। सब अपनी गलतियाँ स्वयं देखते और समझते हैं। सब आपस में एक-दूसरे की गलतियों की आलोचना करते हैं। इससे सबको लाभ होता है अर्थात् सबको सही बात के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है।

6. कार्य का लेखा:- प्रत्येक बालक के पास एक विवरण पुस्तिका होती है जिसमें वह प्रतिदिन के कार्यों का विवरण लिखता है। बालक अपनी पुस्तिका की प्रगति को अपनी विवरण पुस्तिका में स्वयं लिखता है। दूसरी ओर अध्यापक अपनी पुस्तिका में बालक को प्रतिदिन की प्रगति लिखता जाता है। इससे अन्त में अर्थात् योजना के पूर्ण होने पर प्रत्येक बालक के कार्य का मूल्यांकन करने में सहायता मिलती है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कार्य में क्या क्या कठिनाइयाँ आई तथा त्रुटियों पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है।

योजना प्रणाली के गुण (Features of Project Method)

योजना या प्रोजेक्ट प्रणाली के कुछ विशिष्ट गुणों का संक्षिप्त विवरण निम्नवर्णित हैं-

1. ज्ञान की व्यावहारिकता:- इस प्रणाली द्वारा बालक जो भी ज्ञान प्राप्त करता है वह व्यावहारिक होता है और उसका जीवन में उपयोग हो सकता है, अतः इस विधि द्वारा ज्ञान प्राप्त करना लाभदायक और उचित होता है।

2. मनोवैज्ञानिक पद्धति:- शिक्षण की योजना प्रणाली अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक प्रणाली है। इस प्रणाली के अन्तर्गत बालकों की रुचि, योग्यता तथा उनकी सामर्थ्य के अनुसार उनसे कार्य कराए जाते हैं।

3. मानसिक विकास में सहायक:- इस पद्धति की सम्पूर्ण कार्यविधि ऐसे चलती है कि प्रत्येक बालक को प्रारम्भ से अन्त तक बराबर सोचने, विचारने, तर्क करने तथा निर्णय करने का अवसर मिलता है। इससे उनकी विभिन्न मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास होता है।

4. विकास का समान अवसर:- इस शिक्षण-प्रणाली के अन्तर्गत सभी बालकों को समान रूप से कार्य करने का अवसर उपलब्ध होता है। इससे बालक भले ही तीव्र बुद्धि हो या मन्दबुद्धि या साधारण बुद्धि से युक्त हो, प्रत्येक बालक का समान रूप से विकास हो जाता है।

5. आत्म-विकास होता है:- इस पद्धति में प्रत्येक बालक को स्वयं करके सीखने का अवसर मिलता है। इससे उनमें आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता और क्रियाशीलता का विकास होता है। 6. पाठ्य विषयों की स्वाभाविकता-बच्चों को पाठ्य विषयों का ज्ञान स्वाभाविक परिस्थितियों में कराया जाता है। इससे ज्ञान में स्वाभाविकता बनी रहती है।

7. सामाजिक भावना का विकास:- प्रस्तुत शिक्षण प्रणाली के अन्तर्गत सभी बालकों को मिल-जुलकर कार्य करने पड़ते हैं। इससे उनमें सहयोग तथा अन्य सामाजिक भावनाओं का विकास होता है। साथ ही उनमें नागरिकता की भावना भी विकसित होती है।

8. चरित्र का विकास:- शिक्षण की योजना प्रणाली के गुणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह प्रणाली चरित्र के विकास में सहायक है।

9. गृह, पाठशाला एवं समाज में सम्बन्ध:- प्रस्तुत शिक्षण प्रणाली का एक गुण यह है कि इसके द्वारा घर, पाठशाला और समाज तीनों के बीच एक सम्बन्ध जुड़ जाता है। तीनों ही सम्मिलित रूप से बालक की शिक्षा में सहयोग देते हैं।

10. बालकों के लिए रोचक प्रणाली:- यह प्रणाली बालकों के लिए रुचिपूर्ण है। इस गुण के कारण बालक अनेक बातों का ज्ञान शीघ्र और सफलता से प्राप्त कर लेते हैं।

11. विषयों की सानुबन्धता:- इस पद्धति में विभिन्न विषयों का ज्ञान संगठित रूप से दिया जाता है। इससे बालको को ज्ञान की एकता का अनुभव प्राप्त होता है अर्थात् उन्हें इस बात का ज्ञान प्राप्त होता है कि विभिन्न विषयों को पढ़ाने का क्या लाभ है।

12. बालक का सर्वांगीण विकास:- इस प्रणाली में बालक विभिन्न बातें इस प्रकार सीखता है कि उसका चहुंमुखी विकास हो।

13. स्वतन्त्रता की रक्षा:- शिक्षण की इस प्रणाली में बालक की स्वतन्त्रता को पूर्ण रक्षा होती है। उसे स्वतन्त्र रूप से चिन्तन, निरीक्षण एवं कार्य करने की छूट दी जाती है।

14. रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास:- प्रोजेक्ट या योजना प्रणाली में बालक विभिन्न कौशल सीखते हैं तथा स्वतः अनुभव से व्यावहारिक ज्ञान सीखते है जो उनमें रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास करता है।

योजना प्रणाली के दोष (Defects of Project Method)

विभिन्न गुणों से युक्त होते हुए भी शिक्षण की योजना प्रणाली कुछ दोषों से भी युक्त है। योजना प्रणाली के मुख्य दोष निम्नलिखित है-

1. धन की अधिक आवश्यकता:- प्रोजेक्ट प्रणाली को क्रियान्वित करने के लिए अनेक पुस्तकों और अन्य बहुत सी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। इस स्थिति में इस पद्धति को अपनाने में अधिक धन खर्च करना पड़ता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गरीब देशों द्वारा इस शिक्षण प्रणाली को नहीं अपनाया जा सकता।

2. पाठ्य पुस्तकों का अभाव:- इस शिक्षण प्रणाली को अपनाने में एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मातृभाषा या स्थानीय भाषाओं में लिखी हुई पुस्तकों का नितान्त अभाव है। इस कारण विषयों की एक निश्चित सीमा निर्धारित नहीं हो पाती।

3. समस्त विषयों के ज्ञान का अभाव:- एक ही प्रोजेक्ट द्वारा बालकों को सभी विषयों का समुचित ज्ञान देना सम्भव नहीं। उदाहरण के लिए, सामाजिक विज्ञानों एवं दर्शन जैसे विषयों का शिक्षण इस प्रणाली के माध्यम से सम्भव नहीं है।

4. अभ्यास का अभाव:- इस प्रणाली में किसी भी विषय के अभ्यास का अवसर नहीं मिलता, जबकि कुछ विषयों के अध्ययन के लिए अभ्यास अनिवार्य होता है।

5. विषयों के क्रमबद्ध अध्ययन का अभाव:- इस प्रणाली के अन्तर्गत विभिन्न अनिवार्य विषयों का एक क्रम से अध्ययन नहीं किया जाता। इस स्थिति में बालकों को किसी भी विषय का क्रमिक ज्ञान नहीं मिल पाता है।

6. प्रोजेक्ट ढूँढना सरल नहीं:- सामान्य रूप से ऐसा प्रोजेक्ट ढूँढना सरल नहीं जिसका जीवन में कोई मूल्य हो तथा कक्षा में बालकों की रुचियो, योग्यताओं एवं सामथ्र्य के अनुरूप हो।

7. समुचित मूल्यांकन सम्भव नहीं:– निश्चित पाठ्यक्रम के अभाव में तथा प्रत्येक बालक के अलग-अलग कार्य होने के कारण कोई उचित परीक्षा प्रणाली अपनानी सम्भव नहीं। परिणामस्वरूप बालकों के कार्यों का सही-सही मूल्यांकन करना सम्भव नहीं।

8. हाथ के कार्यों की अधिकता:- कुछ आलोचकों का कहना है कि इस प्रणाली में आवश्यकता से अधिक हस्त कार्यों पर बल दिया जाता है, जो कि अनुचित है।

9. कुशल शिक्षकों का अभाव- भारत में इतने योग्य एवं कुशल शिक्षकों का अभाव है। जो प्रोजेक्ट प्रणाली पर आधारित शिक्षा दे सकें। साथ ही यहाँ ऐसे प्रशिक्षण केन्द्र भी सीमित हैं जो इस प्रकार की प्रणाली का प्रशिक्षण देते हैं।

10. समय अधिक लगता है:- इस प्रणाली का एक दोष यह भी है कि बालकों को बहुत लम्बे समय में सीमित ज्ञान ही प्राप्त होता है, क्योंकि प्रत्येक प्रोजेक्ट लम्बे समय तक चलता है।

11. शिक्षक केवल पथ-प्रदर्शक है:- इस प्रणाली में शिक्षक का स्थान गौण रखा गया है। उसको प्रारम्भ से अन्त तक केवल निरीक्षण, निर्देशन एवं सहयोग देने का कार्य करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में यदि वह अपनी योग्यता एवं अनुभव के आधार पर बालकों को कुछ ज्ञान देना या कुछ बातें सिखाना चाहे तो सम्भव नहीं। इस प्रकार बालकों पर शिक्षक के व्यक्तित्व का कोई प्रभाव नहीं पड़ता जो अनुचित है।

12. समान विकास का अभाव:- तीव्र बुद्धि वाले छात्र अपना कार्य शीघ्र समाप्त कर लेते है और मन्दबुद्धि वाले छात्रों को समान अवसर नहीं मिल पाता है।

13. प्रोजेक्ट की कृत्रिमता:- सामान्य रूप से प्रोजेक्ट के अन्तर्गत अस्वाभाविक समस्याएँ ली जाती है।

14. अरुचिकर समस्याएँ:- कुछ आलोचकों का विचार है कि प्रोजेक्ट प्रणाली के अन्तर्गत ली गई समस्याएँ अधिकांश बालकों के लिए रुचिकर नहीं हुआ करती।

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